________________ आगम अद्रुत्तरी व्यक्ति दोनों काल में स्वाध्याय करते हुए भी धर्म के रस का आनंद नहीं ले सकता। 70. सणमूलो धम्मो, उवदिट्ठो जिणवरेहि सीसाणं। तं सोऊण सकण्णोरे, दंसणहीणो न वंदिज्जा // जिनेश्वर भगवान् ने शिष्यों के लिए दर्शनमूलक धर्म का उपदेश दिया है। उसे सावधानी से सुनकर दर्शनहीन को वंदना नहीं करनी चाहिए। __71. सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणंता बहुविहाइ सत्थाई। सुद्धाराधणरहिता, भमंति' जत्थेव तत्थेव॥ बहुत शास्त्रों को जानने वाले भी यदि सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट हैं तो वे शुद्ध आराधना से रहित होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं। 72. जे दंसणेण भट्ठा, नाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा जे। एते भट्ठ-विभट्टा, सेसं पि जणं विणासंति॥ जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट होते हैं। वे नष्ट और भ्रष्ट व्यक्ति दूसरे लोगों का भी विनाश करते रहते हैं। 73. जे के विधम्मसीला, संजम-तव-नियम-जोगजुत्ताय। ताणं दोस भणंता, 'भग्गा भग्गत्तणं'६ बेंति // जो धर्मशील व्यक्ति संयम-तप-नियम तथा योगयुक्त हैं, उनके दोषों को बताने वाले स्वयं भ्रष्ट हैं इसीलिए वे दूसरों को भग्नव्रत वाला कहते 74. जह मूलम्मि विणढे, दुमस्स परिवार नत्थि परिवुड्डी। तह जिणदंसणभट्ठा, मूलविणट्ठा न सिझंति॥ जैसे जड़ का विनाश होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं 1. जैसे डमरुक मणि दोनों तरफ बंधी करता है। होती है, वैसे ही मिश्रदृष्टि विधि- 2. सिस्साणं (अ, म, ब, द)। पूर्वक और अविधिपूर्वक-दोनों 3. सण्णाणे (ब, द)। अनुष्ठान करता है। जैसे घंटे की 4. वंदिज्जो (अ, म, ब, द)। डंडी और करवत की धारा दोनों 5. भमंते (ब)। तरफ जाती है, वैसे ही मिश्रदृष्टि 6. भट्ठा भट्ठत्तणं (हे)। . शुभ और अशुभ दोनों अनुष्ठान 7. दिति (अ, द, ब, म)।