Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ ___ आगम अद्भुत्तरी ने कहा- हम दोनों साथ चलते हैं।' वे आश्रम में गए और राजर्षि से बोले-'प्रसन्नचन्द्र प्रणाम करता है।' चरणों में लुठते प्रसन्नचन्द्र का राजर्षि ने हाथ से स्पर्श किया और कहा–'पुत्र! नीरोग तो हो?' वल्कलचीरी ने प्रणाम किया। राजर्षि ने चिर समय तक उसे आलिंगित किया। आंखों से आसुंओं की बाढ़ चल पड़ी। राजर्षि के नयन खुल गए। दोनों पुत्रों को देखकर राजर्षि परम संतुष्ट हुए। बीते समय की सारी बातें उनसे पूछीं। कुमार वल्कलचीरी कुटिया में यह देखने के लिए गया कि राजर्षि पिता के तापस-उपकरण किस स्थिति में हैं? वह कुटिया में गया और अपने उत्तरीय के पल्ले से उनकी प्रतिलेखना करने लगा। अन्यान्य उपकरणों की प्रतिलेखना कर चुकने के पश्चात् ज्योंही वह पात्र-केसरिका की प्रतिलेखना करने लगा तो प्रतिलेखना करते-करते उसने सोचा-'मैंने ऐसी क्रियाएं पहले भी की हैं।' वह विधि का अनुस्मरण करने लगा। तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उससे देवभव, मनुष्यभव तथा पूर्वाचरित श्रामण्य की स्मृति हो आई। इस स्मृति से उसका वैराग्य बढ़ा। विशुद्ध परिणामों में बढ़ता हुआ, शुक्ल-ध्यान की दूसरी भूमिका का अतिक्रमण कर, ज्ञान-दर्शन, चारित्र में अवगाहन कर मोहान्तराय को नष्ट कर वह केवली हो गया। वह उटज से बाहर निकला। उसने अपने पिता राजर्षि सोमचन्द्र तथा महाराज प्रसन्नचन्द्र को जिनप्रज्ञप्त-धर्म का उपदेश दिया। दोनों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। दोनों ने केवली को सिर नमाकर प्रणाम किया। वे बोले-'तुमने हमको अच्छा मार्ग दिखाया है। प्रत्येकबुद्ध वल्कलचीरी पिता को साथ ले वर्द्धमानस्वामी के पास गया। महाराज प्रसन्नचन्द्र अपने नगर में चले गए। तीर्थंकर भगवान् महावीर विहरण करते हुए पोतनपुर के मनोरम उद्यान में समवसृत हुए। महाराज प्रसन्नचन्द्र को वल्कलचीरी के उपदेश से वैराग्य उत्पन्न हुआ। तीर्थंकर के वचनों से उनका उत्साह बढ़ा और वे बाल-पुत्र को राज्यभार संभलाकर प्रव्रजित हो गए। उन्होंने सूत्रार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया। तप और संयम से अपने आपको भावित करते हुए

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