________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं विचलित नहीं हुआ। उसकी दृढ़ आस्था देखकर देव तुष्ट हो गया और दिव्य ऋद्धि देकर वापस लौट गया। 5. कृष्ण वासुदेव की वंदना एक बार भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका में समवसृत हुए। कृष्ण वासुदेव भगवान् को वंदना करने राजभवन से निकले। भगवान् के अठारह हजार शिष्यों को वंदना करने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा- "भगवन्! संतों को किस प्रकार से वंदना करूं?" भगवान् ने कहा-"तुम सबको द्रव्य वंदना न करके भाव वंदना करो।" भगवान् से प्रेरणा प्राप्त करके श्रीकृष्ण वासुदेव ने द्वादशावर्त वंदना से सब साधुओं की वंदना की। उनके साथ आए अन्य राजा परिश्रान्त हो गए। वीर कौलिक भी वासुदेव का अनुगमन करता हुआ सबको वंदना कर रहा था। वंदना करते हुए श्रीकृष्ण पसीने से तरबतर हो गए। वंदना के पश्चात् श्रीकृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि को निवेदन किया-"मैंने जीवन में 360 युद्ध किए हैं, उन युद्धों में मैंने इतनी थकान की अनुभूति नहीं की, जितनी आज हुई है।" भगवान् ने कहा-"कृष्ण! वंदना के द्वारा आज तुमने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त * कर लिया है और दृढ़ श्रद्धा से तुमने तीर्थंकर नाम गोत्र का बंधन कर लिया है। वंदना से तुमने सातवीं नरक के बंधन को तीसरी नरक .लक सीमित कर दिया। यदि तुम्हारा आयुष्य और होता तो तुम प्रथम नास्की का बंध कर सकते थे। 6. ललिताङ्गकुमार .. श्रीवास नगर में नरवाहन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी . का नाम कमला तथा राजकुमार का नाम ललितांगकुमार था। ललितांगकुमार 1. आगम 110, निचू 1 पृ. 20 / 2. आगम 110, आव 2 पृ. 18 /