________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं विषय में जानकारी प्राप्त करते रहते। जब बालक बड़ा हुआ, तब चित्रकारों ने उसका चित्रांकन कर राजा प्रसन्नचन्द्र को दिखाया। तब महाराज प्रसन्नचन्द्र ने स्नेह के वशीभूत होकर लघुवय वाली गणिकाओं को ऋषि का रूप धारण कराकर उसके पास भेजा और कहा–'तुम वल्कलचीरी को विविध प्रकार के फलों के टुकड़ों, मीठे वचनों तथा शरीर के स्पर्श से लुभाओ।' वे ऋषिवेश में आश्रम में गईं और ऋषि वल्कलचीरी को गुप्त रूप में विविध फलों, मीठे वचनों तथा सुकुमाल, पीवर और उन्नत स्तनों के पीलन रूप स्पर्श से उसे मोहित किया। उनमें लुब्ध होकर उसने उनके साथ जाने का संकेत दे दिया। जब वह अपने तापस उपकरणों को एकत्र संस्थापित करने के लिए वहां से गया, तब वृक्ष पर आरूढ़ चारपुरुषों ने उन गणिकाओं को संकेत दिया कि ऋषि आ रहे हैं। वे गणिकाएं वहां से खिसक गईं। वल्कलचीरी उन गणिकाओं के मार्ग का अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ने लगा। परन्तु उन्हें न देखकर अन्य मार्ग से चला और एक अटवी में पहुंच गया। अटवी में भटकते हुए उसने रथ में बैठे एक व्यक्ति को देखकर पूछा-'तात! मैं तुम्हारा अभिवादन करता हूं।' रथिक ने पूछा-'कुमार! तुम कहां जाना चाहते हो?' वह बोला-'पोतन नामक आश्रम में जाना चाहता हूं। तुम कहां जाओगे?' रथिक बोला-'मैं भी वहीं जा रहा हूं।' वल्कलचीरी उनके साथ चल पड़ा। वह रथिक की पत्नी को 'तात' इस संबोधन से संबोधित करने लगा। पत्नी ने रथिक से पूछा-'यह कैसा उपचार-संबोधन?' रथिक बोला-'सुंदरी ! यह कुमार स्त्री-विरहित आश्रम में बड़ा हुआ है इसलिए यह विशेष कुछ नहीं जानता। इस पर कुपित नहीं होना चाहिए।' घोड़ों को देखकर वह बोला-'तात! इन मृगों को रथ में क्यों जोता गया है?' रथिक बोला-'कुमार! इस कार्य में ये ही लगाए जाते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है।' रथिक ने कुमार को मोदक दिए। कुमार बोला_ 'पोतन आश्रमवासियों ने भी मुझे पहले ऐसे ही फल दिए थे।' वे आगे बढ़े। मार्ग में एक चोर मिला। रथिक ने उसके साथ युद्ध