________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 27 .85. अमराण वंदिताणं, रूवं दट्ठण जेसि मणतावो। सो संतावो तेसिं, भवे भवे होज्जऽणंतगुणो॥ देवताओं के द्वारा वंदनीय साधुओं के रूप को देखकर जिनके मन में संताप होता है, उनका वह संताप भव-भव में अनंत गुणा होता जाता है। 86. आगममायरमाणं', सच्चुवदेसे कहासु रसियाणं। जे गारवं करेंते, सम्मत्तविवज्जिता होंति॥ आगम के अनुसार आचरण करने वाले तथा सत्य उपदेश की वार्ता में रसिक साधु भी यदि गौरव-अभिमान करते हैं तो सम्यक्त्व से रहित हो जाते हैं। 87. नाणेण दंसणेण य, तवेण संवरिओं संजमगुणेण। चउण्हं पि समाओगे, 'मोक्खो जिणसासणे भणितो // ज्ञान, दर्शन, तप और संयम-इन चारों के समायोग को जिनशासन में मोक्ष कहा है। ८८.नह देहं वंदिज्जति, न जाति-कल-रूव-वण्ण'वेसंच। गुणहीणं को वंदे, समणं वा सावगं वावि॥ शरीर को वंदना नहीं की जाती। न ही जाति, कुल, रूप, वर्ण और वेश आदि को वंदना की जाती है। गुणहीन श्रमण या श्रावक को कौन वंदना करता है? 89. णाणं नरस्स सारं, सारं नाणस्स सुद्धसम्मत्तं / सम्मत्तसार चरणं, सारं चरणस्स निव्वाणं॥ मनुष्य जन्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार शुद्ध सम्यक्त्व, सम्यक्त्व का सार चारित्र तथा चारित्र का सार निर्वाण है। 1. “रणाणं (अ, द, म, ब), रयाणं (ला)। नहीं रहता। 2. सुद्धोवएस (म)। 4. संवरेण (अ, ब, द, म, हे)। 3. ठाणं सूत्र में तीन प्रकार के गौरव 5. चउहिं (अ, म)। . बताए गए हैं-ऋद्धि गौरव, रस 6. मुक्खो हि जिणेहि पण्णत्तो (अ, द, ___ गौरव और साता गौरव अर्थात् म, ला, हे)। ऋद्धि, रस और सुख का अभिमान 7. इ (अ, द, हे)। करने से व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् 8. रूवस्सं (अ, द), रूवं च (हे)।