Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 44
________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद परलोक में घोर दारिद्र्य प्राप्त होता है। वह सम्यक् प्रकार से पाले पोसे सर्प जाति' की भांति प्रत्येक जन्म में विघ्न देने वाली होती 105. दुद्रुत्तणेण पिसुणत्तणेण दुवियड्डकोधबहुलेणं। हारेंति बोधिलाभं, कीड-पयंगा य जायंति॥ दुष्टता, पिशुनता, दुर्विदग्धता तथा क्रोधबहुलता से जीव बोधिलाभ को गंवा देते हैं और कीट-पतंगे की योनि में उत्पन्न होते हैं। 106. पिट्ठीमंसे रसिया, जलसप्पिणिपमुहरुहिरसोसा य। बालयऽमिज्झा किमिया, जायंति य दुब्भिगंधिल्ला॥ चुगली करने में रसिक व्यक्ति रक्त शोषण करने वाली जलसर्पिणी तथा कचरे में दुर्गन्धयुक्त छोटे-छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न होते हैं। __ 107. टुंटा मूगा' अंधा, दारिदा घोरदुक्खबाहुल्ला। - सूला भिण्णसरीरा, साहु असाहुग्गनिंदाए॥ असाधु के सामने साधु की निंदा करने से जीव हाथ-पैर से विकल, मूक, अंध, दारिद्र्य से युक्त तथा घोर दुःख से युक्त होते हैं। उनका शरीर शूल से भेदा जाता है। 108. परवंचणेण रत्ता, परापवादेण अप्पसंसणया। ताणं कत्तो बोधी, परमप्पाणं च बोल्लेति॥ - परवंचन में आसक्त तथा परापवाद से स्वयं की प्रशंसा करने वाले लोगों को बोधि की प्राप्ति कहां से होगी? वे दूसरों की तथा स्वयं की आत्मा को संसार में इबोते हैं। 1. सर्प की जाति का कितना ही पालन- 3. “मुहाइरु' (ब, म)। पोषण किया जाए, वह पालनकर्ता 4. वालय' (अ, द, ब, म)। के लिए घातक होती है। थोड़ा सा 5. मुंगा (हे)। - 'प्रतिकूलआचरण होते ही प्रतिशोध ले 6. असाहूणनिं (ला)। लेती है। 7. "मप्पणया (ला)। . 2. पिट्ठ (ब, म)।

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