Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 38
________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 25 होती, वैसे ही जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं, वे मूल से भ्रष्ट हैं। वे सिद्धि गति को प्राप्त नहीं करते। 75. जह मूलाओ खंधो, साहापरिवार बहुगुणो होती। तह जिणदंसणमूलो, निद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स॥ जैसे मूल से स्कन्ध तथा उससे बहुगुणित शाखा-प्रशाखा आदि निष्पन्न होते हैं, वैसे ही जिनेश्वर भगवान् ने मोक्षमार्ग का मूल दर्शन को कहा है। 76. लभ्रूण य मणुयत्तं, सहितं तह उत्तमेण गुत्तेणं। लभ्रूण य सम्मत्तं, अक्खयसुक्खं च मोक्खं च॥ मनुष्यत्व को प्राप्त करके जो प्राणी उत्तम गोत्र से युक्त होता है, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह प्राणी अक्षय सुख और मोक्ष को प्राप्त करता है। . 77. जिणवयणमोसधमिणं', विसयसुहविरेयणं अणभिभूत। . जर-मरण-वाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ जिनवचन रूप औषधि विषय-सुख रूप व्याधि के लिए विरेचन है, दूसरों से अपराभूत है, जरा, मरण और व्याधि का हरण करने वाली तथा सब दुःखों का क्षय करने वाली है। . 78. जिणवयणमोसहेणं', कंखावाही न फिट्टते जेसिं। - अमियं विसुव्व तेसिं, अणंतसो लहति मरणाइं॥ जिनवचन रूप औषधि से जिनकी कांक्षा रूप व्याधि नष्ट नहीं होती, उनके लिए अमृत भी विष तुल्य है। वे अनंत बार जन्म-मरण . . को प्राप्त करते हैं। 79. आगमायारभट्ठा, जाणंता लज्ज-गारवभएणं। तेसिं पि नत्थि बोधी, पावं अणुमोदमाणाणं॥ . आगम में वर्णित आचार को जानते हुए भी जो लज्जा, गौरव * 1. सुहं (अ)। 2. “ण ओसह' (द, ब, म, हे), - 'यणं ओस (द)। . 3. अमियभूयं (अ, ब)। 4. “यणं ओस' (अ)। 5. फिट्टइ (द)। 6. समयायारभट्ठाणं (अ, द, हे ) /

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