Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 32
________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद . 47. मत्तो जिणहरपडिमा, घर-हट्ट-विमाण-धाम'-दुग्गादी। पारसपत्थरफासा, लोहो वि य कंचणो होति॥ (पत्थर भी प्रतिवाद प्रस्तुत करते हुए कहता है-) मुझसे जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा निर्मित होती है। घर, हाट, विमान, धाम, दुर्ग आदि निर्मित होते हैं। पारस पत्थर के स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। 48. चिंतिज्जंतं पूरइ, चिंतामणि किं न होज्ज पत्थरयं। जातिरयणेहिं ठवितं, कुत्तीयावणयसंबंधं॥ चिन्तामणि रत्न मन-चिंतित प्रयोजनों को पूरा करता है, क्या वह पत्थर नहीं है? जात्य रत्नों के बीच स्थापित इसका कुत्रिकापण से सम्बन्ध होता है। 49. तुट्ठो हरति सिरोरं, रुट्ठो मारेमि देवसंकलितो। उवमिजंतो एसिं', कइकुसलो किं न लज्जेसि?॥ . देवताधिष्ठित होने से तुष्ट होकर यह लोगों के दारिद्र्य को दूर करता है तथा रुष्ट होकर मैं लोगों के प्राण हरण कर लेता हूं', ऐसे गुणों से युक्त मुझ पत्थर से आज्ञाभ्रष्ट पुरुष को उपमित करते हुए हे कविकुशल! क्या तुमको लज्जा का अनुभव नहीं होता? 50. दिण्णं वहेमि भारं, सीउण्ह सहेमि सव्वदा कालं। .. संतोसे चिट्ठामी, लज्जं कारेमि आरुहणं॥ ... (गधा कहता है-) मैं दत्त भार को वहन करता हूं। सर्वदा सर्दी और गर्मी सहन करता हूं। सदा संतुष्ट रहता हूं। मुझ पर बैठने वाले को मैं लज्जित कर देता हूं। -- 1. धाउ (ब)। . 2. दुग्गाई (हे)। 3. जैसे कुत्रिकापण में तीनों लोक की सभी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, वैसे ही चिन्तामणि रत्न से मन-वांछित फल प्राप्त होता है। 4. एयं (म)। 5. गाथा के प्रथम चरण में अन्य पुरुष का तथा द्वितीय चरण में उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है। संभवत: छंद की दृष्टि से ऐसा प्रयोग हुआ होगा। 6. चिट्ठामि (अ, द)।

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