Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ प्रकाशकीय 'उत्तरज्झयणाणि' मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पणियों सहित दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। पहले भाग में बीस अध्ययन हैं। शेष अध्ययन तथा विविध परिशिष्ट दूसरे भाग में संदृब्ध होंगे। वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी एवं उनके इंगित और आकार पर सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले मुनि-वृन्द की यह समवेत कृति आगमिक कार्य-क्षेत्र में युगान्तकारी है। इस कथन में अतिश्योक्ति नहीं, पर सत्य है। बहुमुखी प्रवृत्तियों के केन्द्र प्राणपुज आचार्य श्री तुलसी ज्ञान-क्षितिज के एक महान् तेजस्वी रवि हैं उनका मण्डल भी शुभ्र नक्षत्रों का तपोपुञ्ज है। यह इस अत्यन्त श्रम-साध्य कृति से स्वयं फलीभूत है। गुरुदेव के चरणों में मेरा विनम्र सुझाव रहा-आपके तत्त्वावधान में आगमों का सम्पादन और अनुवाद हो—यह भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय की एक मूल्यवान् कड़ी के रूप में चिर-अपेक्षित है। यह अत्यन्त स्थायी कार्य होगा, जिसका लाभ एक-दो-तीन नहीं अपितु अनेक भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता रहेगा। मुझे इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि मेरी मनोभावना अंकुरित ही नहीं, पर फलवती और रसवती भी हुई है। ___ 'दसवेआलियं' की तरह ही 'उत्तरज्झयणाणि' में भी प्रत्येक अध्ययन के आरम्भ में पांडित्यपूर्ण आमुख दे दिया है, जिससे अध्ययन के विषय का सांगोपाङ्ग आभास हो जाता है। प्रत्येक आमुख एक अध्ययनपूर्ण निबन्ध-सा है। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में तद् अध्ययन गत विशेष शब्दों तथा विषयों पर तुलनात्मक विमर्श प्रस्तुत किया गया है। प्रयत्न यह किया गया है कि कोई भी शब्द या विषय विमर्श शून्य न रहे। टिप्पण गत विमर्श के संदर्भ भी सप्रमाण नीचे दे दिए गए हैं। तेरापंथ के आचार्यों के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने प्राचीन चर्णि. टीका आदि ग्रन्थों का बहिष्कार कर दिया। वास्तव में इसके पीछे तथ्य नहीं था। सत्य जहां भी हो वह आदरणीय है, यही तेरापंथ आचार्यों की दृष्टि रही। चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने पुरानी टीकाओं का कितना उपयोग किया था, यह उनकी भगवती जोड़ आदि रचनाओं से प्रकट है। 'दसवेआलियं' तथा 'उत्तरज्झयणाणि' तो इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाओं आदि का जितना उपयोग प्रथम बार वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी एवं उनके चरणों में सम्पादन-कार्य में लगे हुए युवाचार्य महाप्रज्ञ तथा उनके सहयोगी साधुओं ने किया है, उतना किसी भी अद्याविध प्रकाशित सानुवाद संस्करण में नहीं हुआ है। सारा अनुवाद एवं लेखन-कार्य अभिनव कल्पना को लिए हुए है। मौलिक चिन्तन भी उनमें कम नहीं है। बहुश्रुतता एवं गंभीर अन्वेषण प्रति पृष्ट से झलकते हैं। हम आशा करते हैं कि दो भागों में प्रकाशित होने वाला यह ग्रन्थ पाठकों को नई सामग्री प्रदान करेगा और वे इसे बड़े ही आदर के साथ अपनायेंगे। आभार आचार्य श्री सुदीर्घ दृष्टि अत्यन्त भेदिनी है। जहां एक ओर जन-मानस को आध्यात्मिक और नैतिक चेतना की जागृति के व्यापक आंदोलनों में उनके अमूल्य जीवन-क्षण लग रहे हैं वहीं दूसरी ओर आगम-साहित्य-गत जैन-संस्कृति के मूल सन्देश को जन-व्यापी बनाने का उनका उपक्रम भी अनन्य और स्तुत्य है। जैन-आगमों को अभिलषित रूप में भारतीय एवं विदेशी विद्वानों के सम्मुख ला देने की आकांक्षा में वाचना प्रमुख के रूप में आचार्य श्री तुलसी ने जो अथक परिश्रम अपने कन्धों पर लिया है, उसके लिए जैन ही नहीं अपितु सारी भारतीय जनता उनके प्रति कृतज्ञ रहेगी। आचार्य महाप्रज्ञजी का सम्पादन और विवेचन कार्य एवं तेरापंथ-संघ के अन्य विद्वान् मुनि-वृन्द का सक्रिय सहयोग भी वस्तुतः अभिनन्दनीय है। हम आचार्य श्री और उनके साधु-परिवार के प्रति इस जन-हितकारी पवित्र प्रवृत्ति के लिए नतमस्तक हैं। दीपावली १६६२ लाडनूं श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति जैन विश्वभारती संस्थान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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