Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तावना
[ प्रथम संस्करण से ]
आगम का महत्त्व
जैन आगम साहित्य का प्राचीन भारतीय साहित्य में अपना एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। वह स्थूल अक्षर-देह से ही विशाल व व्यापक नहीं है अपितु ज्ञान और विज्ञान का, न्याय और नीति का, आचार और विचार का, धर्म और दर्शन का, अध्यात्म और अनुभव का अनुपम एवं अक्षय कोष है। यदि हम भारतीय चिन्तन में से कुछ क्षणों के लिए जैन आगमसाहित्य को पृथक् करने की कल्पना करें तो भारतीय साहित्य की जो आध्यात्मिक गरिमा तथा दिव्य और भव्य ज्ञान की चमक-दमक है, वह एक प्रकार से धुंधली प्रतीत होगी और ऐसा परिज्ञात होगा कि हम बहुत बड़ी निधि से वंचित हो गये ।
वैदिक परम्परा में जो स्थान वेदों का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, पारसी धर्म में जो स्थान 'अवेस्ता' का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान की है, वही स्थान जैन परम्परा में आगम साहित्य का है। वेद अनेक ऋषियों के विमल विचारों का संकलन है, वे उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं किन्तु जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक क्रमशः भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी और विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आगम की परिभाषा
आगम शब्द की आचार्यों ने विभिन्न परिभाषाएँ की हैं। आचार्य मलयगिरि का अभिमत है. कि जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो ' वह आगम है। अन्य आचार्य का अभिमत है - जिससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो वह आगम है। भगवती अनुयोगद्वार और स्थानांग में आगम शब्द शास्त्र के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार भेद हैं। आगम के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये हैं। ' उसमें 'महाभारत', 'रामायण' प्रभृति ग्रन्थों को लौकिक आगम में गिना है और आचारांग, सूत्रकृतांग प्रभृति आगमों को लोकोत्तर आगम कहा गया है।
जैन दृष्टि से जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है, वे जिन तीर्थंकर और सर्वज्ञ हैं, उनका तत्व - चिन्तन, उपदेश और उनकी विमल वाणी आग़म है। उसमें वक्ता के साक्षात् दर्शन और वीतरागता के कारण दोष की किंचित् मात्र भी संभावना नहीं रहती और न पूर्वापर विरोध या युक्तिबोध ही होता है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक निर्युक्ति में लिखा है- "तप, नियम, ज्ञानरूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवली भगवान् भव्य-आत्माओं के विबोध के लिए ज्ञान - कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट में उन सभी कुसुमों को झेलकर प्रवचन-माला गूँथते हैं। "
१. (क) आवश्यक सूत्र मलयगिरि वृत्ति
(ख) नन्दीसूत्र वृत्ति
२. आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्ध्यन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागन: - रत्नाकरावतारिका वृत्ति |
३. भगवती सूत्र ५ । ३ । ११९२
४. अनुयोगद्वार सूत्र
५. स्थानाङ्ग सूत्र ३३८-२२८
६. (क) अनुयोगद्वार सूत्र - ४२, (ख) नन्दीसूत्र, सूत्र ४०-४१, (ग) वृहत्कल्प भाष्य, गाथा - ८८ ७. आवश्यक निर्युक्ति गाथा ५८, ९०
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