Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
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आचाराङ्ग
[७]
के. आर. चन्द्र
प्रस्तावना जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषितानि, उत्तराध्ययन के कतिपय अध्ययन और दशवैकालिकसूत्र प्राचीनतम रचनाएँ मानी गयी हैं। उनमें भी विषय, शैली और भाषिक दृष्टि से आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध सबसे प्राचीन रचना है । प्रो. याकोबी के अनुसार इन प्राचीन रचनाओं का समय ई.स. पूर्व तीसरी सदी है। इस मन्तव्य के अनुसार प्राचीन आगम ग्रंथों की भाषा भी प्राचीन होनी चाहिए, परंतु इन ग्रंथों के उपलब्ध संस्करणों और प्रतियों में सर्वत्र ऐसा नहीं पाया जाता है ।
भ. महावीर और भ. बुद्ध एक ही काल में विद्यमान थे। परंतु पालि भाषा और अद्यावधि प्रकाशित जैन आगमों की अर्धमागधी में बहुत अन्तर है । सम्राट अशोक के पूर्वी भारत के शिलालेखों की भाषा के साथ भी अर्धमागधी पूर्णतः समानता नहीं रखती है, हाँ कितने ही प्रयोग ऐसे हैं जो उससे साम्य रखते हैं । अर्धमागधी आगमों की भाषा में इतना परिवर्तन क्यों आ गया । कारण स्पष्ट है - मौखिक परंपरा, बदलती हुई जन-भाषा और परवर्ती प्राकृत व्याकरणकारों का पंडितों और लेहियों पर प्रभाव पड़ा और स्थलान्तर से भी भाषा के रूप बदलते गये। किसी प्रत में प्राचीन रूप मिलता है तो किसी प्रत में परवर्ती रूप मिलता है, कभी ताड़पत्र की प्रत में परवर्ती रूप तो कभी कागज़ की प्रत में प्राचीन रूप मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि प्रतों की पीढी दर पीढी नकल करते समय भाषा में परिवर्तन आते गये ।
'आगमोदय समिति' के आचारांग के संस्करण की जब 'महावीर जैन विद्यालय' के संस्करण के साथ तुलना करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अनेक जगह मध्यवर्ती अल्पप्राणों और महाप्राणों को म.जै.वि. के संस्करण में पुनः स्थापित किया गया हैं । मुनि श्री जम्बूविजयजी ने आचारांग की भूमिका में इस बात को स्पष्ट किया ही है । मुनि श्री पुण्यविजयजी का भी ऐसा ही मन्तव्य रहा है कि आगमों की भाषा खिचड़ी बन गयी है। उनके अनुसार प्राचीन काल में मध्यवर्ती अल्पप्राण का लोप और मध्यवर्ती महाप्राण का 'ह' इतने प्रमाण में नहीं था । मुनि श्री जम्बूविजयजी के म. जै. वि. के आचारांग के संस्करण में कुछ हद तक भाषा की प्राचीनता स्थापित हो सकी है। अब उसी प्रक्रिया को भाषाविज्ञान और कालक्रम
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