Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 300
________________ आचाराङ्ग [२६६] के. आर. चन्द्र प्रा. ६१. तं परित्राय मेधावी नेव सयं. वाउसत्थं समारम्भेज्जा, तं परिन्नाय मेहावी नेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा तं परिण्णाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा जै. १६७. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, म. ६१. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा, ल प्रा. नेवऽन्नेहि वाउसत्थं समारम्भावेज्जा नेवऽन्ने शु. ने'व'नेहिं वाउसत्थं समारम्भावेज्जा ने'व'ने आ. णेवऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा वऽण्णे जै. णेवण्णेहिं वाउ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे म. वऽण्णेहिं वाउ-सत्थं समारभावेज्जा, णेवऽण्णे वाउसत्थं वाउसत्थं वाउसत्थं वाउ-सत्थं वाउसत्थं प्रा. समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । जस्सेते वाउसत्थसमारम्भा शु. समारभन्ते समणुजाणेज्जा । जस्से'ए वाउसत्थसमारम्भा आ. समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा जै. समारंभंते समणुजाणेज्जा ।। १६८. जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा म. समारभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते वाउसत्थसमारंभा प्रा. परिनाता भवन्ति से हु मुनी परिन्नातकम्मे शु. परित्राया भवन्ति से हु मुणी परित्राय-कम्मे आ. परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे(५९) जै. परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे म. परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे {c} {c} {c} Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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