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पाठ-भेदों को विवेच्य के आधार के रूप में स्वीकार किया है ।
अवश्य ही कृतविद्य भाषाशास्त्री डो. चन्द्रा ने अपने स्वीकृत शोधश्रम के प्रति पूरी ईमानदारी से काम किया है और इस क्रम में जैन आगमोंआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्यारव्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, कल्पसूत्र, उपासकदशा, औपपातिकसूत्र, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि तथा पालि आगमों (त्रिपिटक) सुत्तनिपात आदि के गहन अध्ययन का विस्मयकारी परिचय दिया है । इसके अतिरिक्त शोधश्रमी लेखक ने अपने भाषिक अध्ययन के उपजीव्य के रूप में शिलालेखों को ततोऽधिक मूल्य दिया है। इसके लिए उन्होंने अशोक के शिलालेखों को मुख्यता दी है और प्रत्यासत्तिवश शाहबाजगढी, मानसेहरा, धौली, जौगड, कालसी, गिरनार आदि शिलालेखों का भी यथोचित परिशीलन किया है । परन्तु अवश्य ही इस संदर्भ में यथाप्रत्यक खारवेल और हाथीगुंफा के शिलालेखों का अध्ययन अपेक्षित रह गया है ।
आचाराङ्ग
कुल मिलाकर अधीती लेखक डो. चन्द्रा की यह कृति प्राचीन अर्धमागधी के पाठालोचन के क्षेत्र में सर्वथा नवीन निक्षेप के रूप में स्वीकृत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है । साथ ही यह आशा है कि प्रज्ञावान् लेखक महोदय अपने इस लघुतर प्रशंसनीय प्रयास को बृहत्तर रूप देने के लिए अपनी स्वीकृत सारस्वत यात्रा को अविराम बनाये रखेंगे - " अयभारम्भः शुभाय भवतु " । भाषा - विज्ञान जैसे जटिल और तकनीकी विषय से सम्बद्ध इस कृति के मुद्रण की स्वच्छता और शुद्धता साधुवाद के योग्य है । पर लेखक द्वारा किया गया 'भाषाकीय' शब्द का प्रयोग अपाणिनीय है । इसकी जगह 'भाषिक' शब्द का प्रयोग साधु होता ।
अन्त में इस कृति की भूमिका में— एक विशिष्ट प्रयत्न - - के महाप्रज्ञ लेखक, प्राकृत जैन - 3 - शास्त्र के शलाकापुरुष पं. दलसुख मालवणियाजी के साथ में भी समस्वर हूँ कि डो. चन्द्रा का यह सर्व प्रथम भाषिक अध्ययन का प्रयत्न प्रशंसा के योग्य तो है ही, जैन आगमों के सम्पादन की प्रक्रिया को नई दिशा और नवीन बोध देने वाला भी है। निश्चय ही, जो लोग आगमों के पाठानुशीलन और सम्पादन में अभिरुचि रखते हैं वे डो. चन्द्रा के आभारी रहेंगे ।
पटना, 14-7-92
- डो. श्रीरंजनसूरिदेव
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