Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
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परिशिष्ट
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चारित्र के उन्नयन निमित्त उत्कीर्ण कराये जाते थे, इसीलिए उनमें लोक व्यवहार के उपयुक्त भाषिक प्रयोगों के प्रति अधिक आग्रह रहता था, इसलिए भी तद्विषयक प्राकृतों में प्रायोगिक विविधता का सहज समावेश हुआ । कदाचित् इन तत्त्वों को ही लक्ष्य करके आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा कि 'आर्षं प्राकृतं बहुलं भवति', ८१- ३, जो हो भाषाओं के प्रयोग-वैविध्य और प्रयोग - वैचित्र्य का साग्रह अध्ययन और अनुशीलन भाषा - शास्त्रियों के लिए पुराकाल से ही एक रोचक प्रसंग रहा है। आन्तरिक (हार्दिक ) प्रसन्नता की बात है कि प्राकृत के मर्मज्ञ मनीषि डॉ. के. आर. चन्द्रा ने जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी के प्रयोग-वैविध्य की गहराई में खोज-बीन करने के अपने सारस्वत संकल्प को क्रियान्वित करने का अतिशय सफल और प्राकृत भाषा के शोध- अधीतियों के लिए सहज अनुकरणीय विषिष्ट प्रयत्न किया है। अवश्य ही डो. चन्द्रा का इस कृति के माध्यम से प्राचीन अर्धमागधी के शोधगर्भ अध्ययन - अन्वेषण के क्षेत्र में किया गया यह भाषिक पदनिक्षेप डो. पिशेल के एतद्विषयक अध्ययन को आगे बढ़ानेवाला तो है ही, तथा अपने आप में क्रोशशिलात्मक और ऐतिहासिक महत्त्व भी रखता है । भाषा - व्यसनी विद्वान् डो. चन्द्रा की अपनी सार्थक संज्ञा से समन्वेत यह नातिबृहत् कृति 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' के संदर्भ में लिखे गये शोधपूर्ण नातिदीर्घ आठ लेखों का यह महत्त्वपूर्ण संकलन है, जिसमें उनका मूल लक्ष्य प्रायः अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ 'आचारांग' की भाषा के तुलनात्मक अध्ययन तक केन्द्रित है और इस सन्दर्भ में उन्होंने अशोक के शिलालेख, पालि पिटक तथा जैन आगम आचारांग की भाषाओं का समेकित और व्यतिरेकी दोनों प्रकार से अनुशीलन करने की वैदुष्यपूर्ण और आशंसनीय चेष्टा की है।
इस कृति में यथासंकलित लेखों के सटीक शीर्षकों से उनमें प्रतिपादित विषयों का प्रतिपाद्य विषय स्वतः स्पष्ट है। इस क्रम में डो. चन्द्रने अर्धमागधी के तद्धितीय और कृदन्तीय दोनों प्रकार के शब्दों का व्यापक पाठालोचन किया है। और पाठालोचन के प्रसंग में उन्होंने भाषा विज्ञान के प्रायः सभी आयामों का उपयोग करते हुए उन पर सूक्ष्मक्षिकापूर्वक विचार किया है । इस भाषिक विवेचन के निमित्त उन्होंने जैन विश्वभारती, लाडनूं, आगमोदय समिति, महेसाणा, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, तथा एम. ए. महेण्डले, जे. शार्पेण्टियर, डो. वाल्थेर शुब्रिंग, आदि द्वारा स्वीकृत
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