Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 314
________________ 280 आचाराङ्ग आगमों की अर्धमागधी भाषा का मूल स्वरूप निर्धारण करने के लिए आप जो प्रयत्न कर रहे हैं, वह बहुत उपयोगी है । आगम की भाषा श्रुतधर मुनियों और आचार्यों के विहार-स्थल-परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होती रही है। इसलिए अर्धमागधी के प्राचीनतम स्वरूप को खोजना बहुत श्रम-साध्य कार्य है। प्राकृत व्याकरणों में अर्धमागधी के नियम बहुत स्वल्प हैं इलिए अर्धमागधी के स्वरूप का निर्धारण बहुत जटिल काम है फिर भी प्राचीन प्रति के आधार पर जो कुछ किया जा रहा है, उसका अपना महत्त्व है। पाठ-निर्धारण के विषय में अन्य आगमों के संदर्भो पर ध्यान देना भी आवश्यक है। लाड -आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ५-१२-९६ जैन अंग-आगम साहित्य भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार पर अनेक साक्षात् शिष्यों अर्थात् गणधरों के द्वारा निर्मित हुआ और श्रुत-परम्परा से उनके शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा संरक्षित होता रहा, किन्तु स्मृति पर आधारित होने के कारण उसके भाषायी स्वरूप में कुछ परिवर्तन भी आया और कुछ स्खलनाएँ भी हुईं । कालान्तर में उन्हें संरक्षित करने हेतु जो वाचनाएँ हुईं, उनमें उन पर क्षेत्रीय प्राकृतों का प्रभाव आता गया । नवीं शती तक आगमों का जो पुनर्लेखन होता रहा उसमें मूल अर्धमागधी का काफी अंश बचा रहा किंतु क्रमश: लिपिकारों की असावधानी एवं क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से उनमें महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दरूपों का बाहुल्य हो गया । आज जो अर्धमागधी आगम उपलब्ध हैं उनके शब्दरूप महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित है । यद्यपि उनकी प्राचीन प्रतियों में आज भी अनेक मूल अर्धमागधी स्वरूप की झलक मिल जाती है। आज आगमों के प्रकाशित संस्करणों की तो यह स्थिति है कि उनमें एक ही पैराग्राफ में एक ही शब्द कहीं अपने अर्धमागधी स्वरूप में है तो कहीं महाराष्ट्री प्राकृत में । अतः आज यह आवश्यकता है कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी स्वरूप को उपलब्ध प्राचीन शब्द-रूपों के आधार पर पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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