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आचाराङ्ग स्वरूप को बिना जाने ही जो प्रकाशन हुआ है या किया गया है अन्यथा एक ही पेरा में एक ही शब्द के जो विविध रूप मिलते हैं वह संभव नहीं था । उन्होंने प्रयत्न किया है कि प्राचीन अर्धमागधी का क्या और कैसा स्वरूप हो सकता है उसे प्रस्थापित किया जाय । आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का भी नयी दृष्टि से किया गया अध्ययन प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलेगा ।
'क्षेत्रज्ञ' शब्द के उदाहरण के तौर पर विविध प्राकृत रूपों को लेकर तथा आचारांग के उपोद्घातरूप प्रथम वाक्य को लेकर जो चर्चा भाषा की दृष्टि से की गयी है वह यह दिखाने के लिए है कि जो अभी तक मुद्रण हुआ है वह भाषा विज्ञान की दृष्टि से कितना अधूरा है।
डो. चन्द्र का यह सर्व प्रथम प्रयत्न प्रशंसा के योग्य है । इतना ही नहीं किन्तु जैनागम के संपादन की प्रक्रिया को नयी दिशा का बोध देने वाला भी है
और जो आगम-संपादन में रस ले रहे हैं वे सभी डो. चन्द्र के आभारी रहेंगे। अहमदाबाद ११-१२-१९९१
-पं. दलसुख मालवणिया
In Search of the Original Ardhamāgadhi
The collection of Prof. K. R. Chandra's studies "प्राचीन अर्धमागधी की खोज में" aims at ascertaining the linguistic characteristics of the original language of the Svetāmbara Jain canonical texts or what is isually referred to as the Ardhamnāgadhi canon. Chandra points out, through a detailed comparison of the canonical texts as edited by various modern scholars, the disagreement and diversity of ihe criteria of selecting the various readings. le as made quite obvious the conscqucnt linguistic heterogeneity that creates problems for making out the real character of the language of the Ardhamāgadhi canon. Secondly, he has sought to point out with the help of the Eastern Asokan and Pali language that inspite of the considerably changed character (under the impact of the standard Mahārāștri Prakrit) of the language of the canonical texts during the long period of transmission certain old readings have been preserved that reveal some of the phonological, morphological and lexical traits of the
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