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परिशिष्ट
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१. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, 1992 (1. PRACINA ARDHAMAGADHI KI KHOJA MEN)
एक विशिष्ट प्रयत्न कई विद्वानों ने जैनागम-आचारांग का समय ई. स. पूर्व ३०० के आसपास रखा है किन्तु अब तक किसी विद्वान ने उस समय में लिखे गये अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ आचारांग की भाषा की तुलना नहीं की। किसी को यह विचार भी नहीं आया कि जब दोनों का लगभग एक ही समय था तब भाषा में इतना अन्तर क्यों ? दूसरी बात यह है कि भ. महावीर और भ. बुद्ध दोनों ने अपने उपदेश बिहार में दिये हैं तो उस प्रदेश की भाषा में ही दिये होंगे तब फिर जैनागम और पालि पिटक की भाषा में भी समानता क्यों नहीं?
इन्हीं प्रश्नों को लेकर डो. के. ऋषभचन्द्र ने सर्व प्रथम अशोक के लेख, पालि पिटक और जैनागम-आचारांग की भाषा का अभ्यास करने का प्रयत्न किया है। मै साक्षी हूँ कि इसके लिए उन्होंने अपने अभ्यास की सामग्री लगभग ७५ हजार कार्डों में एकत्र की है। आचारांग के साथ साथ सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, सुत्तनिपात और अशोक के शिलालेखों के शब्दों के संस्कृत रूपान्तर के साथ कार्ड तैयार करवाये है । इसी सामग्री का प्रस्तुत ग्रन्थ "प्राचीन अर्धमागधी की खोज में" में उपयोग किया गया है। उन्होंने इस समस्या के समाधान के लिए जो लेख लिखे उन्हीं का संग्रह प्रस्तुत ग्रंथ में है।
प्रस्तुत ग्रन्थ एक छोटी सी पुस्तिका ही है परन्तु उसके पीछे डो. चन्द्र का कई वर्षों का प्रयत्न है-यह हमें भूलना नहीं चाहिए । जैनागमों के संशोधन की प्रक्रिया शताधिक वर्षों से चल रही है किन्तु उस प्रक्रिया को एक नयो दिशा यह पुस्तिका दे रही है यह यहाँ ध्यान देने की बात है और इसके लिए विद्वज्जगत् डो. चन्द्र का आभारी रहेगा इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेष रूप से भगवान् महावीर ने जिस भाषा में उपदेश दिया वह अर्धमागधी मानी जाती है तो उसका भूल स्वरूप क्या हो सकता है यह डो. चन्द्र के संशोधन का विषय है। इसीलिए उन्होंने प्रकाशित जैन आगमों के पाठों की परंपरा का परीक्षण किया है और दिखाने का प्रयत्न किया है कि भाषा के मूल
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