Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 16
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १-२ सू० १ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् ५ इत्येवं रीत्या जानानः स भावभिक्षुः लाभे सत्यपि न प्रतिगृह्णीयात् ग्रहणं न कुर्यादितिभावः एवं लिङ्गव्यत्यासेन सा पूर्वोक्ता मूलोत्तरगुणधारिणी भावभिक्षुकी वा वेदनावैयावृत्यादि षडन्यतमकारणेन आहारार्थिनी भूत्वा गृहस्थगृहम् अनुप्रविष्टासती अशनादिकं चतुर्विधमाहारं यदि द्वीन्द्रियरसजादि प्राणिप्रभृतिभिः संयुक्तं गोधूमादिहरितदूर्वाङ्कुरादिभिः शबलीभूतं शीतोदकेन आर्टीकृतं सचित्तधूल्यादिभिर्वा व्याप्तत्वाद् अशुद्ध तथा प्रकारकम् अप्रासुकम् आधाकर्मादि दोषदुष्टं पश्येत् तदा सा भावभिक्षुकी तथाविधाहारस्य लाभे सत्यपि न प्रति. गृह्णीयादिति पूर्वोक्तरीत्यैवान्वयो बोध्यः ॥ सू०१॥ __ मूलम्-से य आहच पडिग्गहिए सिया से तं आयाय एगंतमवकमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा, अप्पंडे-अप्पपाणे-अप्पबीए, अप्पहरिए, अप्पोसे, अप्पोदए, अप्पुत्तिंगपणग-दग-मट्टियमकडासंताणए विगिचिय विगिचिय उम्मीसं विसोहिय विसोहिय तओ संजयामेव भुंजिज वा, पीइज वा, जं च णो संचाइज्जा भोत्तए वा पायए वा, से तमाया य एगंतमवक्कमिजा, एगंतमवक्कमित्ता, माणे' समझकर 'लाभेवि संते' लाभ-प्राप्त होने पर भी 'णो पडिगाहेज्जा' नहीं लेना चाहिये, अर्थात् श्रमण साधु या श्रमणी साध्वी श्रावक गृहस्थ के घर में। भिक्षा के लिये जाकर यदि ऐसा जानले कि अशन वगैरह चतुर्विध आहार द्वीन्द्रियादि प्राणियों से या पनक उल्ली जीवों से अथवा प्रस्फुट गोधूमचना चावल वगैरह बीजों से या हरे भरे अङ्कुर दूर्वा वगैरह सचित्त से सम्बद्ध या मिश्रित है अथवा शीतोदक-कच्चा पानी से मिश्चित है या रज धूलि रेणुओं से व्याप्त है तो इस प्रकार के अशनादि चतुर्विध-आहार दूसरे के हाथ में या दूसरे के पात्र में रक्खा हुआ भी उस सचित्त और आधाकर्मादि दोषों से दूषित समझकर मिलने पर भी नहीं लेना चाहिये ॥सू०१॥ सयित्त तथा मनपाय-या भाषाथा इषित 'मण्णमाणे' समलने 'लाभेवि संते, साल प्रात २१७i yeg णो पडिगाहेज्जा' वे न नये अर्थात् साधु अथवा સાધ્વીજી શ્રાવક ગૃહસ્થને ઘેર ગોચરીને માટે ગયા હોય અને તેઓના જાણવામાં એવું આવે છે કે–આ અશન વિગેરે આહાર-પાન દ્વીન્દ્રિયાદિ પ્રાણિયોથી અથવા ઘ, ચણા વિગેરે બીજેથી અથવા લીલેરી અંકુરેથી મળેલ અથવા તેના સંબંધથી યુક્ત છે , અગર ઠંડા પાણીથી છંટકાયેલ હોય અગર ધૂળવાળા હોય છે તેવા પ્રકારને અનાદિ ચાર પ્રકારને આહાર બીજાના હાથમાં અગર બીજાના પાત્રમાં રાખેલ હોય તે પણ તેને સચિત્ત અને આપા કર્માદિ દેથી દૂષિત સમજીને મળવા છતાં પણ તે ન જોઈએ. રાજા श्री सागसूत्र :४

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