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(६) कुन्देन्दु मुक्ताहार सम तव धवल गुणगण की कथा । हे नाथ ! कौन समर्थ जगमें कहसके जो सर्वथा ॥ है कौन ऐसा जगत में जो जीवराशी गिन सके । छद्मस्थ जन की क्या कथा ? भगवान भी नहि कह सके ॥६॥ (19)
मुनिनाथ हूँ असमर्थ फिर भी तव गुणों के गान में । 55 जैसा भी होगा मैं करूंगा यत्न अपनी जान में ॥ किसकी शरम इसमें मुझे, यह बात जगत प्रसिद्ध है । जो पथ गरुड़ हित सिद्ध है वह पक्षि शिशुहित सिद्ध है ॥७॥ (<) पीयूषसम वाणी प्रभो ! तेरी मुझे है खेंचती । ज्ञानादि तव निर्मल गुणों के गानमें है मेरती ॥ चंचल तरंगे उदधि की बढती रही दिन पून में। है हेतु चन्द्रोदय सदा हे नाथ ! उसके गर्भ में ॥ ८ ॥
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