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(२१) षट्खण्डमण्डित भुवन-मण्डल को प्रभो! चक्री यथा । करके विजय निजचक्र से ज्यों वश्य करता सर्वथा ॥ तुमने हरा इस विश्व में मिथ्यात्व को त्रयरत्नसे । जैनेन्द्रशासन रत किये भविजीव बहु निज यत्नसे ॥२१॥
(२२) ज्यो ज्ञान होवे समय का रवि-चन्द्र से जगमें सदा। दो पांखसे उडना खगों का गगन में हो सर्वदा ॥ वैसे क्रिया अरु ज्ञान से संसार के उत्थान का। कारण बताया नाथ ! तूने जीव के कल्याण का ॥ २२ ॥
(२३) चिरकाल से आगत विषमतर हृदय में बैठे हुए। विषयुक्त भगवन् । भ्रमणकारक मलिन हो पैठे हुए । मिथ्यात्वरूपी दोष जो दिन रात दुःख देते रहे। अनुभाव से तेरे प्रभो ! के नष्ट नित होते रहे ॥ २३ ॥