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सुरवृन्द जो हे नाथ ! वर्षा अचित पुष्पों की करी। सुरभित करी चारों दिशा यह आएकी अतिशय खरी॥ स्याद्वाद नयकी चारु रचना युक्त वाणी को सुनी। सब भव्यमानव प्रशमधारा मग्न होते हैं गुनी ॥३६॥
सब जीव भाषारूप निज परिणत तुम्हारी देशना । पीयूष सम अति मधुर जिनवर ! मोहहर तव देशना॥ यह देशना शिवपद विधायक ऋद्धिसिद्धि विधायिनी। है शान्ति आदि अनन्त निज गुणरत्न अनुपम दायिनी ॥३७॥
(३८) गोदुग्ध-जल-शशि-कुन्द-हिम-मणि हार सम उज्ज्वल सही। चामर गगनतललसित मानो प्रकट करता है सही॥ है तम्हारा ध्यान जिनवर ! शुक्ल भी उससे कहीं। सर्वज्ञता निःशेष-कम समूल नाशक है वही ॥३८॥