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हे नाथ ! तेरे चरण-पंकज सन्निहित होते जहाँ। जो विषम भूमि भाग भी अति त्वरित सम होते तहाँ । फूले फले ऋतु साथ सब ही लोक सब सुख साथ है। मैं मानता हूँ कल्पतरु हो तव पदाम्बुन नाथ! है ।। ४२ ।
(४३) है दिव्य तेरा वचन जिनवर ! और गुगगण दिव्य है । जो दिव्य है यश दिव्य समता और प्रभुता दिव्य है ।। उससे प्रभो । तव सम जगत में कोई प्राणी है नहीं। तारा भले चमके कदापि सूर्यमय हाते नहीं।। ४३
(४४) तब दिव्य महिमा देखकर सुरनर अनुर किनर समो। पीयूषसम वाणी तुम्हारी भाग्यवश सुनते कभी। आनन्द सिन्धु तरंग में हो मग्न अति अनुराग से । गुणगान में असमर्थ होकर नम्र बनते भाव से ॥४४॥