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जिनवर ! सुधाकर-किरण का संयोग पाकर सर्वथा। मणिवर पिंघलते चन्द्रकान्तक इस धरातल में यथा ॥ त्यों ही तुम्हारी परम महिमा श्रवण करते सर्वदा । भवि हृदयगिरि से शान्ति करुणा निझरी झरती सदा ॥३०॥
है मोक्षपद से रहित भविजन दुःखजाल विशाल है। फिर आयु आदिक घट रहे यह विषम पंचमकाल है । इसमें प्रभो ! तव वचन रूपी अमृतरसके पान से । पाते भविक-जन शान्ति अनुपम शुद्ध तेरे ध्यान से ॥३१॥
(३२) षट्कायनायक ! शुभविधायक ! गुणनिकाय निधान है। हे देवनायक ! भविसहायक ! नाथ ! जिन भगवान है। कर के कृपा हमको जगाओ ज्ञान-रस के पूर से । जिन ! क्या न करता कुमुदवन को चन्द्र विकसित दूर से ॥३२॥