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(२७) रविकिरणमण्डल पास में ज्यों तिमिर टिकता है नहीं । दुःख लेश भी चिन्तामणी के पास में रुकता नहीं ॥ त्यों नाथ ! रागादिक सभी ये दोष आ सकते नहीं । ये दोष हैं तूं दोषहर यह विदित है सचमुच सही ॥ २७ ॥ (२८) जो चन्द्रमण्डल सलिलसम पीयूष फेन सुपुंजसम । विकसित मनोरथ-पुष्पका जो एक विस्तृतकुंजसम || हे नाथ ! ऐसे दुःखनाशक धर्मदाता जगतमें । जिसके श्रवण से भविकमल खिलकर प्रभो ! तुमको नये ||२८|| (२९) अतिदूर से भी चन्द्रमा निज किरण के उत्कर्षसे । विकसित किया करता कुमुद के अन्तरों को हर्षसे ॥ त्यों नाथ ! तेरे आत्मदर्शक सौम्य शुभ गुण वृन्द उससे जगत में भव्य -जन को सर्वथा आनन्द है । २९ ॥
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