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(३३) कंके तिरु निःशोक है पाकर मदद प्रभु ! आपकी । विख्यात नाम अशोक पाया यही अतिशय आपकी । तो क्या नहीं प्रभुवर ! तुम्हारे चरण के अवलम्ब से । निःशोक हो निष्कर्म होवे भव्यजन अविलम्ब से ||३३|| (३४) मणियुक्त सिंहासन विराजित आप को प्रभु देखते । तत्वज्ञ बुधजन विविध संशययुक्त होकर पेखते || यह चन्द्र है क्या ? नहि नहीं वह तो कलंकित ज्ञात है । यह सूर्य भी होवे नहीं क्यों ? ताप उसका ख्यात है ॥ ३४॥ (३५) है तेज का यह पुंज ऐसा पूर्व तो निर्णय किया। आकार देखी देहधारी सम्झ निजमन में लिया ॥
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यह पुरुष है ऐसी सभी की धारणा क्रम से रही । फिर शान्त करुणासिन्धु है यह वीर जिन जाना सही ॥ ३५॥