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(१८) हे नाथ ! तेरे चरण-पंकज में नमे जो सर्वदा। - अति ऋद्धिसिद्धि पूर्ण होवे विश्व में जन वे सदा ॥
जो तीर्थकर होकर पुनः कल्याणकारी तात है।। शुभ-नित्य सुखदायी सुनिर्मल सिद्धिपद को जात है ॥१८॥
मैं नाव को पूछं प्रभो ! यह तरण तारण की कलामा सीखी कहाँ ? इस प्रश्न का उत्तर न देती क्यों भला ॥ जिनदेव ! तुम भी चल दिये हैं तीसरा कोई नहीं। सन्तोषपद उत्तर मुझे जो दे सके कहिये सही ॥१९॥
(२०) पीयूष को पीते हुए जो अमर मानव न बने। आरोग्यमय जीवन भछे बहुकाल वे धारण करे ॥agra पर आप की वाणी अलौकिक अमर रस का पान है। पीते अमरपद प्राप्त होवे सिद्धिसुख की खान है ॥२०॥
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