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मणि-रत्नराशि अनेकविध धनकनक संपद सौख्यदा । देता पिता निज पुत्र को पर वह विनश्वर सर्वदा॥ हे नाथ ! केवल ध्यान तेरा भव्यजन के हित तथा। स्थिर नित्य अनुपम सुखदपद को प्रकट करता सर्वथा ॥१२॥
(१३) ज्ञानादि संख्यातीत गुणगण-रत्न गौरव सिन्धु हैं। अशरणजनों के शरण बान्धवहीन के भी बन्धु हैं । तज दया के सिन्धु तुमको कौन औरों को ग्रहे । है मूर्ख ऐसा कौन जो तज राज्य किंकरता चहे ॥१३॥
हे नाथ ! जड पुद्गल जहाँ तव गात्रता धारण करे।मकर कल्याणकारी अतिमनोहर श्रेष्ठता जगमें धरे ॥ आश्चर्य क्या इसमें मनुज तव चरण का शरणा धरे । PORE भगवन्त जो तेरी कृपा से मुक्तिपद को हैं बरे ॥१४॥