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अज्ञान मोह समूह जिनवर ! हृदय में जो है सदा। दूर करने में उसे है शक्त वाणी तव सदा ॥ चिरकाल से पर्वत गुफा में तिमिर जो अति व्याप्त है। उसको हटाने में प्रभो ! मणिजोति ही पर्याप्त है ॥९॥
हे तरणतारण नाथ ! मेरा वचन जो गुणहीन है। जो नय प्रमाण सुरीति भूषणहीन और मलीन है। फिर भी जगत में तव कथा से वर कहावेगा यथा। जलबिन्दु मोती सीपयोगे श्रेष्ठ होता सर्वथा ॥ १० ॥
हे नाथ ! मन से भी अगम्या गुणकथा तब दूर है। शुभनाम भी तेरा जगावे भक्ति दिल में पूर है। ये बात जगविख्यात है नीबू पडा अति दूर है। कन ‘पर नाम उसका द्रवित करता जीम को मशहूर है ॥११॥