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जो कर्मरूपी रोग अर्थे औषधी सुललाम है । जो पूर्ण विकसित आत्मगुण से सर्वथा अभिराम है ॥ जो ज्ञानप्रेरक अभयदायक शान्ति के वरधाम है । उन वीरप्रभु के चरणयुग को बार-बार प्रणाम है ॥ ३ ॥
(४) -बालक विवेक विहीन जैसे बालता से सोचता । 'आकाश को मैं नापलूं,' फिर युक्ति इसकी योजता ॥ ऐसे प्रभो ! तव ज्ञान आदि अनन्त गुण के गान में । उद्यत हुआ हूं धृष्टतावश तो न लीजे ध्यानमें ॥ ४ ॥
(५) पारसमणी के स्पर्श से जड़ लोह भी कंचन बने । इस बात का आश्चर्य क्या ? ऐसा सदा निश्चय बने ॥ आश्चर्य तो है आपका यह ध्यान जो गुणखान है । जिस ध्यान से नर दूरसे भी होत आप समान है ॥ ५ ॥
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