Book Title: Acharang Sutra Saransh
Author(s): Agam Navneet Prakashan Samiti
Publisher: Agam Navneet Prakashan Samiti

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Page 12
________________ जहां होत हिंसा नहीं है संशय, अधर्म वहीं पहिचानिए। समस्त प्राणियों के लिए भी यही धर्म है इसे जानकर कभी भी इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। किन्तु लोक रुचि का त्याग करना चाहिए। ... (2) मनुष्य भव में भी यह ज्ञान और विवेक नहीं पाया तो अन्यत्र तो पाना सम्भव कैसे होगा। - (3) अतः धीर साधक अप्रमाद भाव से सदा यतना पूर्वक आचरण करे। द्वितीय उद्देशक:-- (1) व्यक्ति के विवेक के द्वारा कर्म बंध के क्षण कर्म बंध' के कार्य भी संवर निर्जरा एवं मोक्ष के हेतु भूत बन सकते हैं। इसी अपेक्षा से यह कहा जाता है कि-'विवेक में धर्म है। (2) प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चिंत है। फिर भी इच्छाओं के वशीभूत हो असदाचरण द्वारा अज्ञानी जीव कर्मों का संचय करते है / क्रूर कर्मों से वे महादुःखी बन जाते हैं / (3) कुछ मिथ्यावादी हिंसा में ही धर्म मानते हैं। (4) ज्ञानी उन्हें कहते हैं कि जब सुख अच्छा लगता है, दुःख अच्छा नहीं लगता है, तो दूसरे प्राणियों की भी यही मनो दशा है, यह स्पष्ट है। सभी जीव सुखी रहना चाहते हैं, दुःख सबके लिए महा भय प्रद है, तो अपने सुख के लिए दूसरों को दुःखी करना यह कभी भी धर्म नहीं हो सकता। तृतीय उद्देशक: (1) जो संसारी लोगों की रुचिया-प्रवाह है, ज्ञानी उसकी उपेक्षा ही करता है अर्थात् स्वयं वैसा नहीं बनता है। (2) दुःखों का मूल हिंसा या प्रारम्भ प्रवृत्ति ही है।

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