Book Title: Acharang Sutra Saransh
Author(s): Agam Navneet Prakashan Samiti
Publisher: Agam Navneet Prakashan Samiti

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Page 15
________________ (6) बंध और मोक्ष, भावों की प्रमुखता से ही होते हैं। अतः जीवन पर्यन्त अप्रमत्त भावों से संयम का पाराधन करें। तृतीय उद्देशकः (1) अनुपम अवसर प्राप्त हो जाने पर साधना काल में कभी भी अपनी शक्ति का गोपन नहीं करना चाहिए / संयम तप में वृद्धि ही करना किन्तु हानि कभी भी नहीं करना चाहिए। (2) जिनाज्ञा का पालन न करने वाला साधक इस संसार में कहीं भी स्नेह न करें और युद्ध भी करे तो कर्मों से प्राभ्यन्तर युद्ध करें। कर्मों से युद्ध करने का यहीं अवसर है। अन्य भव में नहीं। (3) कई साधक शब्दादि विषयों में फंस जाते हैं। किन्तु उन सबकी उपेक्षा करने वाला ही सच्चा ज्ञाता मुनि है। कायर कपटी और इन्द्रिय विषयों में प्राशक्त व्यक्तियों से संयम आराधना शक्य नहीं है। अतः संयम लेकर जो मुनि रूक्ष एवं सामान्य आहार का सेवन करते हैं वे ही कर्मों को परास्त कर मुक्त और तीर्ण होते हैं। चतुर्थ उद्देशक: (1) अव्यक्त (अयोग्य) भिक्षुओं का एकल विहार असफल हो जाता है क्योंकि उनमें से कई साधक बारम्बार क्रोध और घमण्ड के वशीभूत बन जाते हैं और वे अनेक बाधाओं को पार करने में अक्षम होकर महादुःखी बन जाते हैं। (2) ऐसे अपरिपक्व साधको को सदा गुरू सान्निध्य से संयम गुणों का एवं प्रात्म शक्ति का विकास करना चाहिए। . . (3) शुद्ध संयम भावों के साथ विवेक युक्त प्रवृति में भी कभी हिंसादि हो जाए तो अल्प कर्म संग्रह होता है / जो शीघ्र ही


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