Book Title: Acharang Sutra Saransh
Author(s): Agam Navneet Prakashan Samiti
Publisher: Agam Navneet Prakashan Samiti

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Page 17
________________ षष्ठ उद्देशकः (1) जिनाज्ञा में ही सदा प्रवृत्त होना चाहिए / (2) मोक्षार्थी साधक इन्द्रियों से गुप्त होकर आगमानुसार ही पुरूषार्थ करें। (3) संसार में सर्वत्र कर्म बंध के एवं भवभ्रमण के स्थान है। इन्हें प्रावर्त (चक्कर) जाने और इस जन्ममरण के चक्राकार मार्ग को पार करलें। (4) परमात्म सिद्ध अवस्था स्वर, तर्क और मति से ग्राहय नहीं हैं वहां आकार, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी नहीं है और न ही स्त्री पुरूष आदि अवस्था है। कर्म बंध भी नहीं है। केवल ज्ञाता दृष्ट अवस्था है / अतः उसकी कोई उपमा भी नहीं है। छठे अध्ययन का सारांश:-- प्रथम उद्देशक: (1) जिसे ये सर्व जम्म मरण के स्थान समझ में आ जाते हैं वही अनुपम ज्ञानी हो सकता है एवं मुक्ति मार्ग का प्ररूपक हो सकता है। (2) पलास पत्र से आच्छादित जल से कई अल्प सत्व वाले प्राणी बाहर नहीं पा सकते / वक्ष अपने स्थान से हट नहीं सकते; उसी प्रकार कई जीव संसार में फंसे रहते हैं, कर्मों से मुक्त नहीं होते हैं। (3) संसार में कई प्राणी बड़े-बड़े राज रोगों से दुःखी होते हैं। (4) कर्मों का विपाक विचित्र है, उससे ही लोक के प्राणी विभिन्न दुःखों से व्याप्त है। (5) ऐसी अवस्था हमें प्राप्त न हो इसके लिए किसी भी

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