________________ प्राणी को किंचित भी दुःख नहीं देना चाहिए एवं पापों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। (6) यह जानकर कई प्राणी अनुक्रम से महामुनि बन जाते हैं / पारिवारिक लोग उन्हें संसार में फंसाने की कोशिश करते हैं किन्तु वह उन्हें शरण भूत नहीं समझता है और ज्ञान में रमण करता है। द्वितीय उद्देशकः (1) कई साधक संयम स्वीकार करके भी परीषह उपसर्गों से घबरा जाते हैं, विषय लोलुप. बन जाते हैं, संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। फिर भी वे अन्तराय कर्म के कारणं इच्छित भोगों से वंचित होकर दुःखी हो जाते हैं। . (2) कई साधक वैराग्य तथा ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण प्राशक्तियों को दूर करते हुए यतनापूर्वक संयमाराधन करते हैं। आक्रोश, वध आदि को सम्यक सहन करते हैं। वे ही वास्तव में मुनि है और संसार भ्रमण से मुक्त होते हैं। (3) संयम साधको को सदा जिनाज्ञा के पाराधन को ही धर्म समझकर पुरुषार्थ करना चाहिए। (4) कई एकल विहार चर्या वाले साधक भी जिनाज्ञा के अनुसार आचरण करते हुए शुद्ध गवेषणा से जीवन निर्वाह करते हैं एवं परिषह उपसर्गों को धैर्य के साथ सहन करते हैं, वे मेघावी है अर्थात् प्रशस्त एकल विहारी है। तृतीय उद्देशकः (1) संयम के साथ अचेल (वस्त्र रहित).अवस्था में रहने वाले मुनियों को वस्त्र सीवन प्रादि सम्बन्धी क्रियाएं चिन्ताएं नहीं होती है।