________________ 14 क्षय को प्राप्त हो जाते हैं / इसलिए सदा अप्रमाद भाव से विवेकपूर्वक प्रवृति करनी चाहिए। (4) साधक स्त्री परीषह से सदा सावधान रहे और कभी किसी कारण से ब्रह्मचर्य घातक परिणाम उत्पन्न हो जाए तो आहार त्याग या विहार आदि सूत्रोक्त क्रमिक साधना से प्रात्मा के उन दुष्परिणामों को दूर कर देना चाहिए। .... (5) ये कामभोग आगे-पीछे प्रशान्ति-क्लेश के जनक है। (6) संयम की सावधानी हेतु साधक को संयमी जीवन में विकथाएं, चक्षु इन्द्रिय के पोषण, गृहस्थ के प्रपंच, वाचालता प्रादि से दूर रहना चाहिए। पंचम उद्देशकः (1) सर्व और से सुरक्षित निर्मल परिपूर्ण जल वाले हृदद्रह के समान ही लोक में मुनि होते हैं।' (2) जिन वचनों को श्रद्धा के द्वारा उत्पन्न हुए संदेहों को दूर कर देना चाहिए। (3) "जिनेश्वर भाषित सदा सत्य एवं निःशंक है" ऐसा दृढ विश्वास रखना चाहिए। (4) सम्यग् अनुप्रेक्षण करने वाले के सभी प्रसंग सम्यक् हो जाते हैं। (5) किसी को कष्ट देने के समय यह सोचना चाहिए कि इस जगह यदि मैं होउं तो कैसा अनुभव होगा' यह सोचकर तीनों करण से अहिंसक बने। (6) आत्मा ही विज्ञाता और परमात्मा है / यह समझने वाला और सम्यक् प्राचरण करने वाला ही सच्चा प्रात्मवादी और सम्यक् संयमी है।