Book Title: Acharang Sutra Saransh
Author(s): Agam Navneet Prakashan Samiti
Publisher: Agam Navneet Prakashan Samiti

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Page 49
________________ 47 (27) विविध ( 12 प्रकार की ) तपस्या करने से--पूर्व-बद्ध कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं। (28) अल्पकर्मा हो जाने से-वह क्रमशः योग निरोध अवस्था को प्राप्त करता है / फिर शीघ्र ही मुक्त हो जाता है / (26) शान्तिपूर्वक अर्थात् उतावल उद्वेग के बिना मन वचन एवं काया की प्रवृति करने से--१. जीव उत्सुकता रहित एवं शान्ति प्रिय स्वभाव और व्यवहार वाला बनता है। 2. शान्ति पूर्वक प्रवृति करने वाला ही वास्तव में प्राणियों की पूर्ण अनुकंपा कर सकता है। 3. ऐसा वह अनुकंपा पालक साधक, हाय हाय और भड़ाभड़ युक्त प्रवृतिएं नहीं करता है। 4. जिससे वह शोक मुक्त रहता है और 5. चारित्र मोह कर्मों का विशेष रूप से क्षय करता है। (30) मन को अनाशक्ति हो जाने से--१. प्राणी बाह्य संसर्गो से और उससे उत्पन्न होने वाली परिणतियों से मुक्त हो जाता है / 2. ऐसा साधक सदा एकत्व भाव में ही तत्लीन बन उसी में दत्तचित्त रहता है। 3. और वह रात दिन ( प्रतिक्षण ) प्रतिबंधों से रहित होकर प्रात्म भावों में रहता है एवं अप्रमत्त भावों से युक्त रहकर सदा अंतर्मुखी रहता है। (31) जनाकुलता एवं स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान के सेवन से--१. चारित्र की रक्षा होती है / 2. ऐसा चारित्र रक्षक साधक पौष्टिक आहार का त्याग करता है / 3. दृढ़ चारित्र वाला बनता है। 4. एकान्त में ही रमण करने वाला होता है। 5. अंत:करण से मोक्ष पथिक बन कर कर्मों की गांठ को तोड़ देता है। (32) इन्द्रियों और मन को विषयों से दूर रखने से-- 1. जीव नये-नये पाप कर्म नहीं करने में ही तत्पर रहता है अर्थात्

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