________________ 18 योग्यता का विचार कर तथा किसी की भी आशातना, विराधना न हो इस तरह-अहिंसा, क्षमा, शान्ति प्रादि का उपदेश दे / व्रत महाव्रत का स्वरूप समझा। (3) संयम में अवहिर्लेशी रहे अर्थात् असंयमी विचारों एवं व्यवहारों का त्याग करके रहे संयम नाशक तत्वों से दूर रहे / (4) प्रारम्भ-परिग्रह, काम-भोग और क्रोधादि कषायों का विवेक पूर्वक त्याग करने वाला कर्मों का क्षय कर मुक्त होता है। (5) अन्तिम समय में शरीर का त्याग करना यह कर्म संग्राम का शीर्ष है। अर्थात प्रमुख अवसर है उस समय पादपोपगमन प्रादि सन्थारा कर लेना चाहिए। सातवां अध्ययन उपलब्ध नहीं है, यह व्यवच्छिन है। आठवें अध्ययन का सारांश:-- प्रथम उद्देशकः-- . (1) अन्य तीथिक सन्यासी या अन्य सम्भोगिक जैन श्रमण के साथ प्राहार आदि का प्रादान-प्रदान एवं निमन्त्रण नहीं करना। (2) अन्य तीथिक विभिन्न प्रकार से प्ररूपण और प्रवृति करते है उनका धर्म प्ररूपण भी सत्य नहीं है। (3) सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में पाप सेवन को भी स्वीकार किया गया है। इस कारण वे पूर्ण शुद्ध धर्म नहीं है। (4) ग्राम हो या नगर हो अथवा जंगल हो, कहीं पर भी जो प्रथम मध्यम या अन्तिम किसी भी वय में बोध प्राप्त कर संयम धारण करे और हिंसादि पापों का सर्वथा परित्याग कर दे वह मुक्त होता है। (5) सर्वत्र लोकगत जीवन हिसादि में लगे हैं उन्हें देख मुनि त्रिकरण योग से हिंसा दण्ड का सेवन न करें।