________________ (4) शब्दादि विषयों में उपेक्षा भाव रखने वाला साधक मरण से मुक्त हो जाता है। (5) हिंसादि पाप का परिपूर्ण ज्ञाता ही वास्तव में संयम का ज्ञाता है। . (6) संसार भ्रमण की सम्पूर्ण उपाधि, कर्मों से ही उत्पन्न होती है / और कर्मों का मूल हिंसा है / (7) राग द्वेष न करते हुए एवं लोक संज्ञा (सांसारिक रुचि) . का त्याग करते हुए संयम में पुरूषार्थ करना चाहिए। द्वितीय उद्देशक: (1) परम धर्म को समझकर सम्यक् दृष्टि पाप कर्मों का . उपार्जन नहीं करता है। (2) काम भोगों में गृद्ध जीव कर्म संग्रह कर संसार भ्रमण करते हैं। (3) कर्म विपाक का ज्ञाता मुनि पापकर्म नहीं करता है / (4) सांसारिक प्राणी सुख के लिए जो पुरुषार्थ करते हैं वह चालणी को पानी से भरने के पुरुषार्थ के समान है। (5) मुनि भौतिक सुख और स्त्री से विरक्त रहे। (6) मुनि क्रोधादि कषायों और प्राश्रवों का त्यागी बने / मनुष्य भव रूपी अवसर को प्राप्तकर हिंसा का सर्वथा त्याग करें। तृतीय उद्देशकः (1) दूसरों की लज्जा वश पाप कर्म नहीं करने में भाव संयम नहीं हैं। किन्तु परमज्ञानी कर्म सिद्धान्त एवं भगवदाज्ञा समझकर कभी प्रमाद न करें वैराग्य के द्वारा उदासीन वृतिपूर्वक अहिंसक बने / (2) तत्वों की शुद्ध श्रद्धा रखकर कर्म क्षय करने में तत्पर बने।