Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 19
________________ सक्रिय मार्गदर्शन प्रदान किया। छह वर्षो तक सभी के सहयोग से यह बाललेखनी चलती रही, और मेरी बालचेष्टा के अनुरुप विश्वकोश ‘अभिधान राजेन्द्र' के आचारपरक दार्शनिक शब्दों पर लिखित यह शोध प्रबंध आपके सन्मुख इस रूप में प्रस्तुतियोग्य बन सका । चिरलक्षित एक स्वप्न, विश्वपूज्य गुरुदेव द्वारा प्रणीत श्री अभिधान राजेन्द्र कोश पर शोध-प्रबंध की पूर्णाहूति की इस वेला में उन सभी की आभारी हूँ जिन्होने मेरा मार्ग प्रशस्त किया, मुझे सदैव प्रेरणा, प्रोत्साहन के पीयूष पिलाये, सार्थक - सफल सहयोग किया। सर्वप्रथम मैं नतमस्तक हूँ थीरपुर (थराद - उ. गु.) नगरस्थ - श्री गोडी पार्श्वनाथ परमात्मा के श्रीचरणों में, जिनके प्रगटप्रभावी, प्रबलप्रतापी प्रभापटल से मेरा सम्पूर्ण अन्त:करण ज्ञानलोक से प्रकाशित हुआ एवं परमात्मा अवन्ती पार्श्वनाथ की अविनाशी आभा में, अवन्तिका में विजयादशमी (वि.सं. 2054) के दिन प्रारंभ हुआ यह शोध-प्रबंध राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर में श्री वासुपूज्य स्वामी की शीतल छाया में प्रगति को प्राप्त हुआ, पुनः रुका, पुनः करेडा तीर्थ में पार्श्वनाथ प्रभु की कृपा से प्राप्तगति यह शोध - प्रबंध फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, वि.सं. 2059 को श्री थीरपुर / थराद तीर्थ में उन्हीं पावन परमात्मा श्री गोडीजी पार्श्वनाथ की छत्रछाया में साजीजी (गोरजी) के उपाश्रय में पूर्ण हुआ । यद्यपि 'श्रेयासि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।' यह एक सूक्ति है, परन्तु 'गुरुकृपा हि बलीयसी' उक्ति के •अनुसार जहाँ गुरुजनों का आशीर्वाद हो वहाँ सभी विघ्न शान्त हो जाते हैं और तदनुसार ही अनेक विघ्न आने पर भी यह कार्य सुचारु रुप से सम्पन्न हो गया। मैं कृतज्ञ हूँ कोशकर्ता विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की; जिनके असीम आशीर्वाद, अदृश्य मार्गदर्शन एवं अद्भूत सान्निध्य से मुझे राजेन्द्र कोश की गहन अगम्य शास्त्रीय बातें उनके स्मरणमात्र से समझ में आने लगी । मैं कृतज्ञ हूँ मेरे संयमदाता प. पू. गुरुदेव राष्ट्रसंत वर्तमानाचार्य किन्तु आजीवन विद्यार्थी, ज्ञानालोक के तेजस्वी सूर्य, साहित्यमनीषी श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. 'मधुकर' की, जिन्होने मुझे आज्ञा, आशीर्वाद एवं अध्ययन हेतु अनूकूलताएँ उपलब्ध करायी । साथ ही मैं नतमस्तक हूँ मेरी गुरुमाता सरलमना तपस्विनी साध्वीवर्या प.पू. शशिकला श्री महाराज की जिन्होने शिष्यामोह को छोडकर अध्ययन में स्थिरता हेतु मुझे दूर-दराज क्षेत्रों में चातुर्मास की आज्ञा प्रदान की, प. पू. गुरुवर्याश्री ने मेरी लक्ष्यप्राप्ति में मुझे पूर्ण आशीर्वाद के साथ सफलता प्रदान करायी । इसके साथ ही मेरी अनुगामीनी साध्वी चिन्तनकलाश्रीजी एवं मुमुक्षु कु. संगीता जैनने भी इस शोधग्रन्थ निर्माण में मुझे अतीव सहयोग किया एतदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। मैं आभारी हूँ इस शोध-प्रबंध के निर्देशक डो. हर्षदराय धोलकियाजी की, जिन्होने मुझे इस शोध प्रबंध में यथा समय यथायोग्य मार्गदर्शन दिया, इतना ही नहीं मेरे साध्वीजीवन की मर्यादाओं को ध्यान में रखते मुझे कभी किसी भी प्रकार से व्याकुल नहीं होने दिया । विषयवचन, उसकी उपादेयता आदि के विषय में जो मार्गदर्शन अपेक्षित था, प्रो. कु. बी. वाय. ललिताम्बा, विभागाध्यक्ष, तुलनात्मकभाषा एवं संस्कृति अध्ययन शाला, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर ने मुझे सदा मार्गदर्शन देते हुए प्रोत्साह किया जिसका परिणाम यह शोध प्रबंध है। मैं हृदय से प्रो. कु.बी. वाय. ललिताम्बा के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ । ज्ञानलोक की इस अलौकिक यात्रा में मैं इन्हे नहीं भूल सकती - स्व. श्रीमती कंकुबेन बोहरा, (अध्यापिका - श्रीधनचंद्रसूरि जैन पाठशाला, थराद) एवं श्रीमती अ. सौ. रसीला बेन संघवी (सांसारिक बुआ) को, जिन्होने मुझ अज्ञानी को धार्मिक अध्ययन हेतु प्रोत्साहित किया एवं मेरे अध्यात्मज्ञान का द्वारोद्घाटन कराया। साथ ही पूज्य दादी साहिबा स्व. वीराबहने दोशी, स्व. ताराबहन दोशी, पू. दादा जी स्व. मफतलाल दोशी, स्व. पूज्य पिताश्री चन्दुलालजी दोशी एवं मातृश्री श्रीमती सविताबेन दोशी आदि समस्त परिवार जिनकी सदैव एक ही भावना रही 'ज्ञान - ध्यान तप-त्याग में आगे बढकर संघ शासन- गुरुगच्छ की प्रभावना के उत्तमोत्तम कार्य करें एवं हमारे कुल वंश का गौरव बढाते हुए कुलदीपिका बन शासनप्रभाविका बने । ' अभिधान राजेन्द्र कोश पर आधृत इस शोध-प्रबंध की पूर्णाहुति की इस अवधि में मैं अभारी हूं मुझे इसके योग्य बनाने वाले श्री रतिभाई (अहमदाबाद), श्री दिनेशभाई (अहमदाबाद), श्री मदनलालजी जोशी एवं श्री कांतिलालजी पण्डया (मंदसौर, म.प्र.), डॉ. विनायक पाण्डे (इन्दौर), डॉ. नरेन्द्र धाकड (इन्दौर), श्री किरीट भाई (वर्तमान में मुनि श्री प्रशमेशप्रभ विजयजी एवं कु. विमलाबेन (वर्तमान में साध्वी विद्वद्गुणाश्रीजी), आदि विद्वद्वर्ग स्वर्णाभि नक्षत्रपुञ्ज की जिन्होने मेरे अज्ञान को दूरकर मुझे ज्ञान प्राप्ति करायी । - मैं विशेष कृतज्ञ हुं डो. गजेन्द्र कुमार जी जैन सा. के प्रति, जिनके अविरत श्रम, साहस, सरलता, समयबद्धता, सहनशीलता, सहजता, समता, क्षमता एवं ज्ञानातिशयपूर्वक विशिष्ट योगदान के बिना यह शोध-प्रबंध की पूर्णाहुति असंभव सी थी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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