Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEW EVSESSIO2 PCG WA . k as SA ३ TPSYC श्रीवीतरागाय नमः। घडू व्यकी आवस्यका व सिद्धि - और जैन साहित्याका महत्वा । . rixxxoreलखनऊको महासभामें जैन साहित्य सभाके लिये लेखक:- . . श्रीमान पं० मथुरादासजी-बनारस, पं० अजितकुमारजी स्त्री, पं० बुद्धिलालजी श्रावक, पं० बनवारीलालजी स्याद्वादी, और व्याकरणरत्न पं० सतीशचंद्रजी न्यायतीर्थ-काशी। . 發對號端端端端器端端端器端網 प्रकाशक: मूलचन्द किसनदास कापड़िया, ___ मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-चन्दाबाड़ी-सूरत । "जैनविजय" प्रिन्टिंग प्रेस-सूरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया। विक्रम सं० १९८४) . वीर सं० २४५३ [ई०. सन् १९२७ मूल्य-एक रुपया। Tale Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन। . हमारी भारतवर्षीय दिगंबर जैन महासभाका २६ वां वार्षिक अधिवेशन वीर सं० २४४८ ( ई० सन् १९२२ ) में लखनउमें श्रीमान् विद्यावारिधि दर्शन दिवाकर वेरिस्टर चंपतरायजीके सभापतित्वमें अतीव उत्साह व समारोहके साथ वसंतपंचमोके रथोत्सबके मौके पर हुआ था तब श्रीमान् जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर व० सीतलप्रसादनीकी प्रेरणासे, लखनऊ धर्मपरायण दि० जैन समाजने उस समय एक जैन साहित्यप्तभा करनेका व उसमें हमारे विद्वानोंके इस ग्रन्थमें वर्णित दो विषयोंपर इनामी लेख मंगाकर उत्तम लेखकोंको २००)का इनाम देनेकी योजना की थी जिससे षड़ व्यकी आवश्यकता व सिद्धि पर तीन तथा जैन साहित्य महत्वपर तीन ऐसे ६ लेख प्राप्त हुए थे जो वहांकी सभा में पढे गये थे तथा जिसकी परीक्षा श्रीमान् विद्वदर्य पं० माणिकचंदनी न्यायाचार्य (मोरेना) द्वारा हुई थी, वे सब लेख पूज्य व्र० सीतलप्रसादजोकी सूचनानुपार हमने हमारे "दिगंबर जैन" मासिक पत्रमें क्रमशः प्रकट कर दिये थे तथा इनको पुस्तकाकार भी प्रकंट करनेकी चारों ओरसे हमें सूचना मिली थीं इसलिये उन लेखोंका यह संग्रहीत ग्रन्थ प्रस्ट किया जाता . है । आशा है कि इसके प्रकाशनसे षड् द्रव्य व जैन साहित्यके विषयमें विशेष प्रधश . पड़ेगा तथा विद्यार्थियोंके लिये तो ये निबंध बहुत ही लाभदायक होंगे। दि जैन समाजके अद्वितीय विद्वान् श्रीमान् पं० माणिकचंद्रनी न्यायाचार्य (वर्तमानमें प्रधानाध्यापक, जंबू विद्यालय-सहारनपुर) ने इस ग्रंथपर विस्तृत प्रस्तावना भी लिख दी है . (जो " दिगम्बर जैन " वर्ष १६ अंक ६ में भी प्रकट होचुकी है ) जिसके लिये भापके . हम बड़े आभारी हैं। कागनकी अतीव महंगीके समयमें यह ग्रन्थ 'दिगंबर जैन' के साथ २ छपता गया था इसलिये इसमें काग़न हलके लगाये गये हैं जो हमें भी खटकता है। तथा अनेक कारणोंसे इसका प्रकाशन भी अतीव देरीसे होसका है इसके लिये पाठक हमें उलाहना न देंगे ऐसी उम्मेद है । . सूरत। निवेदकवीर सं० - २४५३ । मूलचन्द किसनदास कापड़िया, .. प्रकाशका आषाढ़ सुदी ११ , Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यसभा-लखनऊके प्रकट हुए लेखोंपर श्रीमान जैनतकरनपं० माणिकचंदजी न्यायाचार्य मोरेना द्वारा लिखित . प्रस्तावना। . प्रिय महानुभावों! ___पहिले इसके कि मैं छह द्रव्यकी आवश्यकता व सिद्धि तथा जैन साहित्यकी महत्ताका दिग्दर्शन आपको कराऊं यह बतला देना उचित समझता हूं कि वन्दनीय व्र० शीतलप्रप्तादजी व लखनऊ जनताका लेख लिखानेका कार्य कितना प्रशंसनीय है । भारतमें लेख लिखकर राजा सेठ या पविजकमें भेनने की प्रथा कुछ नवीन नहीं है लेकिन यह प्रथा नितनी पहिले प्रतिष्ठाप्राप्त थी उतनी इस समय नहीं देखी जाती, चाहे तो इसमें लेखकोंका आलस्य ही कारण हो या राजा व सेठों की सुनने में अप्रियता, लेकिन मेरी धारणा तो यह है कि इस विषयमें कुछ कुछ दोनों ही तरफसे त्रुटि की गई है। ___ कुछ ही समय पहिले राना भोन, बादशाह अकबरकी सभामें यति हीराविजय, पं० कालिदास प्रभृति कितने ही विद्वान् प्रतिदिन शिक्षा पूर्ण नवीन२ श्लोक बनाकर लेनाते थे इसके उपलक्षमें बादशाह भी उन्हें बहुत आदरकी दृष्टि से देखते थे तथा उनके उत्साह वर्धनाथ बहुतसा इनाम भी देते थे। सव शिक्षित समाजको यह विदित होगा कि राजा भोजकी सभामें कितने ही विद्वान् रहते थे। एक विद्वान् प्रतिदिन रानाके यहां नवीन २ शोक बनाकर लाया करते थे लेकिन महाराज भोनकी सभामें इतने बुद्धिशाली भादमी थे कि वे जिन श्लोकको एकवार सुन लेते थे वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था, दूसरे दो दफे तीन दफे आदि सुनने मात्रसे उसकी पूर्ण धारणा :ख लेने थे अतः प्रतिदिन नवीन पण्डित महाशय जो नवीन२ ३ोक बनाकर लाते थे सभ.के स्थायी अन्य पण्डित उसे उसी समय रानाको सुनाकर कहते थे कि महारान, यह प्राचीन शोक है नवीन नहीं ! एक दिन उन नवीन पण्डितने इस भावपूर्ण लोक बनाया कि महारानके पितामहसे मेरे पिताको इनाम दिया गया एक लक्ष रुपया महारानके खनाने में जमा है। इस प्रकारके नवीन श्लोकको सुनकर अन्य सभी पण्डित बहुत पशोपेशमें पड़े कि इनके इस श्लोकको प्राचीन ही बताना चाहिये या नवीन । नवीन बतलानेसे तो जवन श्लोकके बना. नेके कारण इनको एक लक्ष : रुपया इनामका मिल ही जायगा, और प्राचीन बताने से भी यह बात प्रमाणित हो जायगी कि इनका एक लक्ष रुपया राजकोष जमा है, इत्यादि कथाओंके सुननेसे यह विदित होता है कि पहिले श्लोक आदि लिखकर रानसभामें सुनानेका बहुत प्रचार था । अब भी कुंछ न्यूनताको लिए हुए यह प्रथा सनीवित है। ... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) अमेरिका जर्मन आदि दूर देशोंमें नवीन लेख भेजनेकी प्रथा अब भी पायी . जाती है और तत्रत्य विद्वान उन लेखौको देखकर नौबिल प्राइज, पी० एच० डी० आदिकी .. पदवियोंसे अलंकित करके सन्मानित करते थे। पूर्वमें आचार्यों बड़े २ विद्वानोंको वादीभसिंह, पूज्यपाद आदि पदवियां वितरित करके उनका गौरव बढ़ाया जाता था, उस पूर्व प्रथाका कुछ अनुकरण करते हुए ब्र० शीतलप्रसादजी तथा लखनऊकी जनताने षट् द्रव्यकी आवश्यकता व सिद्धि, तथा जैन साहित्यका महत्व इन दो विषयोपर लेख लिखकर जैन साहित्य सभा लखनऊ भेननेकी सुचना " जैनमित्र" आदिमें प्रकाशित की थी। उक्त दो निबन्धोंपर भिन्न २ स्थानीय विद्वानोंके ६ लेख माये जो कि "दिगंबर जैन। मासिक पत्रमें क्रमशः छप चुके हैं और पुस्तक रूपमें भी छपाये गये हैं। पूज्य ब्रह्मचारी शीतलपसादजी व लखनऊ जनताको उक्त दो निबन्धोंपर लेख लिखवाकर न सिर्फ उन विषयों को उन्नत करनेका यशोलाभ हुआ है बल्कि विद्वानोंका गौरव बढ़ाकर जैन समाजमें भी अन्य समानोंकी तरह लेख लिखनेकी प्रथा या यों कहिये कि प्राचीन प्रथाका जीर्णोद्धार किया है। . जैन समाजमें इस प्रथाका अभाव कुछ अधिक दिन पहिलेसे ज्ञात होता है नहीं तो इतने अधिक विद्वानों की उपस्थितिमें इन महत्वपूर्ण विषयोंपर केवल छह ही लेख न आते । इसमें हम सर्वथा लेखकोंका ही प्रमाद नहीं कहते बल्कि कुछ समानके नेताओंका भी है । मुझे आशा है कि अबसे ऐसे शास्त्रीय निबन्धों परं यदि समाजकी दृष्टि रहेगी तौ पुनः लेख लिखाये जानेपर ६की संख्यासे कहीं बहुत अधिक . संख्या में विद्वानों के लेख आसकेंगे और उपाधि आदि देनेकी पूर्व प्रथाका भी समानने यदि अनुकरण किया तो इप्स कार्य का बहुत महत्व हो जायगा और उस समय न सिर्फ जैन विद्वान ही बलिक निष्पक्षपाती अन्य जातीय विद्वान् भी इन विषयोंपर निबन्ध लिखेंगे और इस तरह जैन धर्मकां एक सुलभ रीतिसे दूर २ प्रदेशोंमें प्रचार हो जायगा, हमारी समझमें इस कार्यका पूर्ण प्रशंसालाभ ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजी व लखनऊकी जैन जनताको है । आशा है कि अगाड़ी भी इस प्रथाका अनुकरण किया जायगा। . .. - सज्जनो ! षद्रव्यकी आवश्यकताके विषयमें तीन लेख समुपलब्ध हुए . हैं और उन लेखोंसे पूर्णतः यह बात स्पष्ट हो गई है कि द्रव्य छह ही हैं न सात और न पांच, द्रव्यकी संरूपा ६ ही है। इस विषयमें विशेष कुछ कहना नहीं है क्योंकि अन्य मत कल्पित द्रव्य व पदार्थों की संख्या इन्हीं ६में अन्तर्भूत हो जाती है। यहां द्रव्य पदार्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका प्रथक् २ उल्लेख इसलिए किया है कि वैशेषिक द्रव्यकी संख्या और पदार्थकी: संख्या ७ मानता है । पदार्थ इस शब्दका तात्पर्य उन्होंने इस प्रकार माना है-पदस्य मर्थः पदार्थः । यहां षष्टीका अर्थ निरूपित है। ऋ धातुका अर्थ ज्ञान और थन् प्रत्ययका अर्थ विषयत्व है । इस प्रकार पद निरूपित ज्ञान विषयत्व ही पदार्थका तात्पर्य माना, है । यहां जो ऐसी शंका करते हैं कि पदार्थका अर्थ जब पद निरूपित ज्ञान विषयत्व है. तब ही खर विषाण भी पदार्थ कोटिमें आना चाहिये क्योंकि यह निरूपित ज्ञानविषयता तो इसकी भी होती है। इसका समाधान वे इस प्रकार करते हैं। हो खरविषाण भी पदार्थ है लेकिन वह अत्यन्ताभाव पदार्थमें सम्मिलित है। अस्तु, यहां इस परवाहकी आव. श्यकता नहीं है। जिस प्रकार द्रव्यको संरू । ६से अधिक सात नहीं हो सकती उसी प्रकार से कम ५ भी नहीं हो सकती है । द्रव्यकी जीव, अनीव रूप दोको संख्या जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालका सुक्ष्म रूपान्तर है क्योंकि जबसे भिन्न पुद्गलादि ५ का अनीवमें मन्तर्भाव है। जीव व पुद्गलकी सत्ता हमें प्रत्यक्षतः विदित हो रही है, बाकीकी ४ द्रव्य यानी धर्म, अधर्म, आकाश, कालकी सत्ताका अवधारण अनुमानादि प्रमाणोंसे होता है। ६ छहों द्रव्योंका कार्य हम अपने शरीरमें भलीभांति देखते हैं । जीवका ज्ञानगुण तथा पुद्गलका रूपादि सजीव शरीरमें दिखलाई देता ही है। . धर्म द्रव्यका जीव पुद्गलोंके गमन होनेमें सहकारी रूप जो कार्य है वह रक्तादिके गमनमें सहकारी होनेसे अच्छी तरह प्रमाणित होता है एवं अधर्म द्रव्यकी जो उक्त दो द्रव्यों के स्थिर होनेमें सहकारिता है वह भी शरीरमें पायी ही जाती है क्योंकि सजीव शरीरमें रक्तादिका निरन्तर चलते रहना जैसे उपयुक्त है उसी प्रकार शरीरके कुछ ऐसे अवयव भी हैं जो कि शरीरमें स्थिर ही रहते हैं और उनके चलित होनेसे आदमीकी मृत्यु हो . जाती है अतः मधर्म द्रव्यका कार्य भी शरीरमें बराबर देखा जाता है। आकाशका अवगाह . देना जो कार्य है वह भी शरीरमें सुस्पष्ट ही है, कोटें, तिनके, कांच, खानेपीने आदिकी कितनी ही चीन हैं जिनको कि शरीर अवगाह देता है । कालका कार्य. वर्तना भी भाप अच्छी तरह शरीरमें पावेंगे क्योंकि भोजनादिकी वर्तना या परिणमन निरन्तर शरीरमें . होता ही रहता है, इस प्रकार छहों द्रव्योंका कार्य शरीरके अन्दर देखने में आता है। .. साहित्यके विषयमें यही कहना है कि सर्वतः श्रेष्ठ साहित्य वही है जो आत्माको अन्तमें वैराग्यकी तरफ उन्मुख करे । पहिले जमाने में यति, साधु मंत्रोंसे स्तुति करते थे। उन मंत्रोंमें जो शक्ति है वह संस्कृत साहित्यमें नहीं है। मंत्रका शुद्ध उच्चारण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना बहुत कठिन है । हूत्व उदात्त अनुदात्त आदि सब प्रकारका ख्याल करके उच्चारित जो मंत्र है वही अपना कार्य पूर्णतः सिद्ध करता है क्योंकि "नहि मंत्र क्षरं न्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् " मंत्र शुद्ध उच्चारण न करनेसे न केवल आदमी अपने साध्यसे भ्रष्ट ही . होता है किंतु अपना अनिष्ट भी कर लेता है। इस प्रकार मन्त्रके उच्चारण तथा साधनाकी रूपतासे बचने के कारण संस्कृत साहित्यका .. प्रचार हुआ । संस्कृत साहित्यमें भी भांति २ की असुविधायें देखकर साधारण जनताके आनन्दार्थ हिन्दी साहित्यका आरम्भ हुआ। जिन मन्त्रोंको शुद्धाशुद्धका विचार रखते हुए हम केवल एक घंटे बोल सकते हैं। यदि उसके स्थान में संस्कृतकी कोई गद्य या पद्य हो तो हम ३ घंटे बोलकर हम थक जाते हैं उतनी ही हिन्दीकी गद्य या पद्य हम बराबर ६ घंटे बोल सकते हैं। गाना तो और भी अधिक समय तक गा सकते हैं। आप देखेंगे कि हिन्दी गायक बराबर अाठ २ दश २ घंटे एक जगह बैठकर अच्छी तरह गा सकते हैं। यदि गायकसे संस्कृत के बारेमें कहा जाय कि तुम ४ घंटे बर:वर बैठकर गाओ तो वह किसी हालतमें नहीं गा सकता क्योंकि हिन्दीकी अपेक्षा संस्कृतका उच्चारण बहुत परिश्रम . युक्त है और मन्त्रका उच्चारण उससे भी बहुत कुछ परिश्रमपूर्ण है। इससे विदित होता है कि मंत्रके साहित्यमें अड़चन देखकर ही संकृत साहित्य और जो स्व स्वल्पशक्तिके कारण संस्कृत साहित्यसे लाभ नहीं उठा सकते उनके लिए हिंदी साहित्यका निर्माण किया गया है। बहुतसे महाशय काव्यके ग्रन्थोंको ही साहित्यकोटिमें परिगणित करते हैं लेकिन यह उनकी भूल है। बहुतसे सिद्धांत न्यायके ग्रंथ भी पूर्णतः साहित्यकी उन्नतिके परिदर्शक हैं। साहित्यका कार्य मनोरजन करना है और यह मैं पहिले ही कह चुका हूं कि श्रेष्ठ · साहित्य ग्रंथ वही कहा जा सकता है जो संसारकी अवस्थाका दर्शन कराकर अंतमें मोक्षके लिए आत्माके परिणामोंको ऋजु करे। साहित्य आत्माका एक रस है यानी श्रेष्ठ साहित्यको पाकर आत्मा अपने भूले हुए स्वरूपको पुनः प्राप्त कर लेती हैं। सिद्धांतका ग्रन्थ गोमट्टसार . साहित्यसे खाली नहीं है उसी प्रकार न्यायका ग्रन्थ अष्टसहस्रो भी साहित्योन्नत ग्रंथोंमें एक प्रधान ग्रंथ है अष्टप्तहस्रो पड़े हुए महाशय इस बातको भली भांति जानते होंगे कि अष्टसहस्रीके कती महोदयने ३६३ मतोंका किस खूबीसे खण्डन किया है। अष्टसहस्री पढ़कर जीव अपनी आत्माका स्वरूप भली भांति जान लेता है जो कि साहित्यका आनय कार्य है। अष्टसहस्रीके कर्ताने स्वयं लिखा है श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतेः किंमन्य सहवख्यानः । विज्ञायते वयव स्वसस्यपरसमयसभाम: ।। . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अर्थात् अष्टमी सहस्रीके पढ़ लेनेपर अन्य सेकड़ों ग्रंथों के पढ़नेसे क्या लाभ है यानी कुछ भी लाभ नहीं है इसीके श्रवणसे स्त्र तथा पर समय (शास्त्र) अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार स्वयंभूस्तोत्र, समयप्तार भादि ग्रंथ भी साहि. त्योन्नतिके अच्छे दर्शक हैं। समयसारके कर्त्ताने भात्माकी अद्वैत सिद्धि में जो आत्मात्मनंमात्मनात्मनेऽऽमनरात्मनि चेतयते-यह षकारक लगाये हैं । यह भी उच्चकोटिका साहित्य ही है क्योंकि यही आत्माके प्रत्यक्ष करनेका उराय है । . तुलसीदासनी कृत रामायण जो कि साहित्योन्नतिका एक निदर्शक कहा जाता है उससे आप टोडरमलजी कन गोमट्टसारकी हिन्दी टोकाका मिलान करें तो आपको भलीभांति विदित हो नायगा कि यह कहीं उससे बढ़कर साहित्योन्नतिका उदाहरण है । साहित्य लालित्यके साथ ही आप इसके अंदर एक और विशेषता पावेंगे वह यह कि कितने कठिन प्रमेयको पंडितनीने प्रसादगुणयुक्त हिंदी गद्यमें सरल कर दिया है । ___ महापुराण, पार्थाभ्युदय, सप्तमातरिङ्गिणी आदि कितने ही अन्य ग्रंथ भी साहित्यकी उच्चताको लिए हुए सिद्धांत न्याय विषयके अच्छे प्रतिपादक हैं । .. मैन साहित्यके उन्नत होनेमें दृप्तरा यह भी कारण है कि जितनी वर्ण संख्या दूसरोंके यहां मानी गयी है वह परिपूर्ण नहीं। पाणिनीयने ४३ इङ्गलिश भाषामें २६ किन्हीने ३२ इत्यादि वर्ण संख्या मानी है। जैनेन्द्र व्याकरणमें ४६ वर्ण माने गये हैं। द्वादशाङ्गमें तो ६४ वर्ण माने गये हैं इससे भी जैन साहित्य को पूर्णता ज्ञात होती है । किसीभी बातको वक्रोक्ति आदिके रूपमें कहनेसे ही उसकी शोमा होनाती है क्योंकि " वक्रोक्तिः काव्यनीवितम् " उदाहरणके लिए लीजिए कि स्त्रीको अपने पतिसे यह कहना था कि आप यहांसे चले जावेंगे तो मैं मर जाऊंगी इस बातको उसने वक्रोक्तिके द्वारा कहकर सरस पद्य बना दिया गच्छ गच्छ सिचेत्कान्त पन्थानः सन्तु ते शिवाः । ममापि जन्म तत्रैव भूयात्र गतो भवान् ॥ . अर्थात् हे कान्त ! यदि तुम जाते हो तो जाओ, तुम्हारे कल्याणकारी मार्ग हों लेकिन 'यह अवश्य ज्ञात रहे कि मेरा जन्म भी वहीं होगा जहां कि आप उपस्थित होंगे। यह एक साधारण बात ही वक्रोक्तिसे कहने पर लोंगोंकी प्रीति के लिए होजाती है। हम साधारण रीतिसे किसीसे पूछेगे कि आप कहांसे आये हैं और कहां जावेंगे तो इस तरहका हमारा पूछना सीधी भाषामें उतना अच्छा न मालूम होगा जितना कि साहित्यसे अलङ्कृत करने पर ज्ञात होगा यानी वह कोनसे मनुष्य हैं जिनकी कि मुखकमल श्री आपचन्द्रोयमके यहां Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानेसे फीकी पड़ गई है और वे कौनसे पुण्यशाली हैं जो सूर्योदयसे चक्रवाकके समान आपके आगमनसे अपनेको कृतार्थ समझेंगे इत्यादि । उक्त बातोंसे यह भलीभांति विदीत होता है कि जिससे मनोरञ्जन हो वही. साहित्य कहलाता है: पूर्वमें न्याय साहित्य आदिके ग्रन्थ बनाकर पहिले विद्वद्गोष्ठीमें पाप्त करालिये जाते थे और पुनः उसे पविलकके प्रचारार्थ देते थे। ऐसा करनेसे सभी ग्रंथ नों कि पब्लिकके प्रचारमें आते थे अपनी महत्ता और गुरुतासे प्रतिष्ठित रहते थे। . . पं. श्रीहर्ष नैपधचारित्रको बनाकर प्रथम कवि मम्मठके पास ले गये थे। पाणनीय मष्टाध्यायीको बनाकर विश्वामित्र ऋषिके पाप्त ले गये थे। उन्होंने जब पूछा कि विश्वामित्र शब्दकी सिद्धि किस प्रकारकी है तब उन्होंने कहा कि महाराज इसके लिए "मित्रे च।" यह स्वतन्त्र सूत्र बनाया है। यहां सूत्रमें ऋषि शब्द देनेसे माणवक वाची शब्द विश्वामित्र ही रह जाता है अतः यह इसी नामके लिए स्वाप्त सूत्र है इसपर मुनि बहुत प्रसन्न हुएं और इस प्रकार व्याकरणकी परिपूर्णता जानकर उस व्याकरणको पास कर दिया। पूर्व मैं कह चुका हूं कि पब्लिक प्रचारार्थ जो ग्रन्थ दिये जाते थे वे पूर्वतः ही . अच्छी तरह परीक्षित करलिए जाते थे और ऐसा करनेसे वे पास ग्रन्थ आदमीके नैतिक बल चारित्र आदिके विषयमें सुशिक्षा देने के लिए होते थे। आजकल कितनी ही ऐसी भद्दी पुस्तकें हम लोंगोकी दृष्टिात होती हैं जो बच्चों युवकादिकोंके चारित्रपर बहुत बुरा प्रभाव डालती है अतः हम इस प्रकारकी पुस्तकोंको कभी श्रेष्ठ साहित्यकी गणनामें नहीं गिन सकते क्योंकि श्रेष्ठ साहित्यका जो आत्माको शान्ति मार्ग लाना लक्षण है वह उनमें नहीं घटना। इन सब बातोंसे विदित होता है कि साहित्य एक आत्माको रस है जिसके पढ़नेसे आत्मा अपने स्वाभाविक गुणोंकी तरफ उन्मुख हो वही श्रेष्ठ साहित्य है। साहित्य ग्रंथों में भी जहां ९ रसोंका वर्णन किया है वहां भी सर्वतः उगरि शान्तिरसको ही बताया है क्योंकि पथिक जिस तरह सब जगह घूम आता है लेकिन अन्तमें अपने घरपर ही मानता है उसी प्रकार साहित्य भी आत्माको जगह २ घुमाकर अन्तमें आत्माका स्वरूप जो शान्ति है उसकी ही तरफ उन्मुख करता है। आत्मा औपाधिक वृत्तिका आचरण बहुत समय तक नहीं कर सकता लेकिन स्वाभाविक नो वृत्ति है उसके हमेंशा धारण करे रखनेमें भी उसे किसी प्रकारकी असुविधा नहीं होती है। - उदाहरणके लिए लीजिए कि मनुष्यके शरीरको अपने अवयव जैसे वल. हस्तादिका वजन कुछ वजन रूपसे प्रतीत नहीं होता और यदि उसके सिरपर १० सेरकी ही एक गठडी रख दी जाय तो वही उसे भाररूप मालूम पड़ने लगती हैं। दूसरी तरह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि बच्चेके शरीरमें विनलीके अधिक होनेसे उसकी मुट्ठी बंधी रहती है और बंधी रखने में अवश्य ताकत लगानी पडती है लेकिन वृद्धावस्थामें जब कि विनली कम होमाती है उस समय वृद्धको मुठ्ठी बांधकर रखनेमें प्रयत्न करना पड़ता है और खुली रखने में किसी प्रकारका कप्ट नहीं हो:। वह दूसरी बात है जो कि वृद्धावस्थामें ठण्ड आदि लगनानेसे शरीरके अवयव सिकड जाते हैं । ___ मित्रो ! इससे मन्त्री प्रकार हमारी समझमें आगाता है कि शान्त रहना . आत्माका स्वभाव है और क्रोधादि करना ये औपाधिक हैं। साहित्यमें रसों का वर्णन करते हुए प्रथम शृङ्गार रसका वर्णन किया है। पतिपत्नीकी रतिके समय जो परस्परसकी वृत्ति है उसे अङ्गाररस कहते हैं। इसके अनन्तर वीर रसको बताया है "उत्साहात्मा भवेद्वीरः" जो आत्मा वीर. रसापन्न होती है वह उत्साहयुक्त होती है । पुनः शोकमे उत्पन्न होनेवाले करुणारसको बताया है तदनन्तर वर्णित हास्य रसकी उत्पत्ति चेष्टादिके विकृत करनेसे होती है। असंभव सदृश वस्तुके देखने से या सुननेसे अद्भुत रस उत्पन्न होता है । भयानक वस्तुओंके देखनेसे भयानक रसकी उत्सत्ति होती है तथा क्रोधादि कारणोंके आनानेसे रौद्र और जुगुप्साके कारणोंके देखनेसे वीभत्स रसका उत्पाद होता है। अन्तमें सम्यग्ज्ञानसे है उत्पत्ति जिसकी ऐसे शान्तिरसकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार आत्मालो जो आकुलता रहित करके शान्तिके साम्रानमें बैठाते हैं ऐसे ही साहित्य ग्र-थ प्रशंसनीय और गणनीय हैं ऐसे जैन साहित्य अन्योंकी संख्या कितनी है यद्यपि यह अभीतक किसीसे विदित नहीं है तथापि ऐसा विश्वास अवश्य है कि उनकी संख्या बहुत बड़ी है और उनका महत्व बहुत चढ़ा बढ़ा है। ____मन्त्ररूर मैन साहित्य भी अपनी शानीमें एक ही है । भक्तामरके मन्त्रोंका आराधन करके और प्राप्त करके अब भी मनुष्य बहुत विचित्र २ कार्य करते दिखलाई देते हैं स्वयं श्रीमानतुंगाचार्य मिनको कि १८ कोठोंके अन्दर बन्दकर दिया गया था मन्त्रोके प्रभावसे ताले अपने आप खुलगये और मुनिमहारान बाहर आगये । अब भी मन्त्ररूप साहित्यमें जो शक्ति है वह संस्कृत साहित्यमें नहीं और जो संस्कृत साहित्यमें शक्ति है वह हिन्दी साहित्यमें नहीं है। जैन संस्कृत साहित्य भी उसी प्रकार समुन्नत है . जैसे कि जैन मन्त्र साहित्य कुछ ही समय पहिले । बादशाह अकबर हीरविनय यतिको .. अपनी शिक्षाके लिए अपने पास रखते थे और उनसे हरएक कार्यमें सम्मति लेते थे । . बादशाह अकबरकी सभा ५ खण्डोंमें विभक्त थी, श्रीहरिविजय यति पहिली श्रेणीमें थे तथा और भी तीन जैन विद्वान् ५वीं श्रेणीमें थे। महाराज अकबर जैन सिद्धा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तके नियमोंसे बहुत ही प्रान थे । कारण यह था कि वे जैन सिद्धान्तके नियम सबकी हितसाधनाके लिए थे अतएव बहुत गौरवान्वित थे । सच तो बात यह है कि साहित्यके प्रणेता जिस प्रकारके गुणों वा अवगुणोंके ढांचेमें ढले होंगे उनके द्वारा प्रणीत साहित्य ग्रन्थ उतनी महत्ताको रक्खेंगे। जैन हिन्दी साहित्यके विषयमें भी यदि आप विचार करेंगे तो वह भी आपको पूर्ण मिलेगा " मुनि मनसम उज्वल नीर " इत्यादि प्रतीयालंकारका कितना . ज्वलन्त उदाहरण है तथा पंडित टोडरमलजी आदि द्वारा रचित गोमट्टसारादिकी टीकायें तथा अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ भी जैन हिन्दी साहित्यकी समुन्नत अवस्थाके परिदर्शक हैं। . इस प्रकार षव्यकी आवश्यक्ता व सिद्धि तथा जैन साहित्यके महत्वके विषयमें जो कुछ आप महानुभावोंकी सेवामें निवेदन किया गया है उन्ही विषयों पर : अन्य कितनी ही युक्तियों द्वारा अगाड़ी गवेषणापूर्ण विचार किया गया है । पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादनी व लखनऊकी जनताके जैनमित्रमें लेखोंके लिए नोटिस निकालनेपर ३ लेख पदव्यकी आवश्यकता व सिद्धिक विषयमें तथा तीन लेख जैन साहित्यके महत्वके विषयमें आये। मैं ब्रह्मचारीनी तथा लखनऊ.जनताके इस प्रेमविशेषका विशेष आभारी हूँ जो कि योग्यता न होने पर भी आगत लेखोंके परीक्षणका कार्य मुझे दिया । समागमें अन्य उद्भट विद्वानोंके रहते हुए भी जो उक्त महाशयोंने यह कार्य मुझे दिया है इसमें अवश्य ही उनका प्रेम विशेष कारण है। निन महाशयोंके लेख आये हैं उनके नम्बर तथा लेखनपरिचय निम्न प्रकार है । पद्रव्यकी आवश्यकता व सिद्धिके विषयमें प्रथम लेख पं० मथुरादास जैन- : मोरेनाका आया । यह लेख संस्कृत साहित्य और दार्शनिक पद्धतिसे अच्छा है किन्तु लौकिक युक्तियोंसे कार्य नहीं लिया गया है । प्रकरणान्तर भी कुछ २ होगया है दार्शनिक पद्धतिसे लिखने के कारण ५७ नम्बर उपयुक्त ज्ञात होते हैं। इनको जैन साहित्य सभ से : ५०) पचास रुपया प्रथम नम्बरका पारितोपक भी मिला। इसी विषयमें द्वितीय लेख पं० अजितकुमारजीला आया । इन्होंने षद्रव्यकी सिद्धिमें लौकिक युक्तियों का समावेश कम किया है तथा आगमको भो पुष्ट करते हुए आगम गम्यत्वेन प्रामाण्य देना उचित था तथापि रूक्ष विषय होनेसे आपका आधश्रम प्रशंसनीय है । इनको लेखमें ५५ नम्बर मिले तथा सभाकी तरफसे दूसरे नम्बरक : पारितोषक ३०) तीस रुपया दिया गया। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. तृतीय लेख इसी विषयमें पण्डित बुद्धिलालजीका आया। यह लेख केवल हिन्दीकी सिफ्तसे अच्छा है परन्तु संस्कृत शास्त्रोंके तथा तदनुसार लौकिक युक्तियोंके अवलम्बनसे .' लिखा जाता तो विशेष प्रशंसावह होता। कुछ हिन्दीकी अशुद्धियां भी हैं तथापि प्रमेय कुछ नव्यताकी वायुसे संस्कृत किया गया है परन्तु पूर्ण गलत नहीं होप्तका । इनको ४६ नम्बर दिये तथा समाकी तरफसे तृतीय पारितोषक २०) वीस रुपया भी दिया गया। षड्दव्यकी आवश्यक्ताके विषयमें ये ही सिर्फ तीन लेख आये थे। द्वितीय विषय जैन साहित्यकी महत्ताके उपर प्रथम लेख पं० बनवारीलालजी स्याद्वादीका आया । इनका लेख उत्तम है । क्वचित अशुद्धियां भी हैं किन्तु श्रमसे लिखा गया है । जैन काव्योंके महत्वपर अच्छा प्रकाश डाला है फिर भी अन्त महत्व तक दृष्टि नहीं पहुंची। श्रम विशेष प्रशंसनीय है । इनको ७० नम्बर मिले तथा ५०) पचाप्त रुपया सभाकी तरफसे पारितोषक भी मिला। उक्त विषयपर द्वितीय लेख पं० सतीशचंद्रनी काशीका माया । आपका प्रयत्न अच्छा है किन्तु वैष्णव नियमोंपर विशेष लक्ष रखा है। नैन काव्योंमें दूसरे अन्यमतीय काव्योंसे महत्वद्योतक बातें अनेक भरी पड़ी हैं जिनका कि सम्बन्ध लौकिक पूर्ण मुख और निःश्रेयसके मतीन्द्रिय सुखसे है उन बातोंका जिक्र नहीं आया है फिर भी हिन्दी लेखनदृष्टिसे तथा शब्दालकार महिमासे यह लेख जनताको आदरणीय है। इनको लब्धाङ्क ६२ दिये गये तथा सभाकी तरफसे दूसरे नम्बरका इनाम ३०) रुपया भी दिया गया। तीसरा लेख इसी विषय पर पं० अजितकुमारजीका आया । आपका लेख उचित है। जैनत्वकी भी छाया है । अन्त्य महत्व तक नहीं पहुंचे जो साहित्यका चरम फल है। नम्बर ५८ दिये गये तथा तीसरे नम्बरका इनाम २०) वीस रुपया दिया गया। ये तीन लेख जैन साहित्यके महत्व विषयपर माये । आशा है कि समाज इन लेखोंसे लाभ उठानेकी चेष्टा करेगा। । अन्तमें समान नेताओं, विद्वानोंसे नम्र निवेदन है कि इस कार्यमें यदि किसी प्रकारकी त्रुटि रह गई हो तो क्षमा करें तथा प्रार्थना है कि इसी प्रकार दोनों तरफ यानी समाज नेता तथा विद्वानों की तरफसे प्रयत्न किया जायगा तो चन्द दिनों बाद ही माप जैन सिद्धान्त वृक्षकी प्रत्येक दिशामें छाया पड़ी हुई देखेंगे। विशेष्वलमिति । निवेदक-माणिकचन्द्र कोंदेय-मोरेना । Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 षट् द्रव्यकी आवश्यक्ता और सिद्धि / MHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE .. (जैन साहित्य समा लखनऊका लेख न. 1..)....... . ( लेखक-पं० मथुरादासजी वेरनी (एटा).निवासी, विद्यार्थी, गोपाल जैनसिद्धांत विद्यालय मोरेना) श्री वीरवर वैर वीर हो प्रभु तुम सुधीधर धीर हो / जगतापसे परितृप्तको तुम ही सुशीतल नीर हो! ... : 'सब सुखद सुखदाधार हो. सब जगत प्राणाधार हो / विनवू विना तुम अन्य नहिं मम भाक्तिका आधार हों॥ . . सभ्य महोदय ! . . . . . . . . . . . . . . इस असार संसार में निधर मी दृष्टिपात करते हैं सर्वत्र सुखेच्छुकोंकी ही संख्या दिखलाई देती हैं / समी अपने अपने पुखोंके कारणकलाप मिलाने में अतीव सन्नद्ध और व टिबद्ध दिखलाई पड़ते हैं / हम संमारका स्वरूप विचारते हैं तो वह बीमन्स ही जान पड़ता है " संसरणं. संसारः" अर्थात् संसार परिवर्तन शील है यहां कोई एकता कमी नहीं रहेता, सब वस्तुयें अपने अपने स्वरूपमें परिवर्तन करती रहती हैं, समुन्नत कमी अवनति दशापन्न और भवनति दशागत कपी समुन्नत दिखलाई देती हैं। ये सब बातें संबके प्रत्यक्ष प्रतिदिन होती रहती हैं अतः ध्यान देना चाहिये कि इस परिवर्तनका क्या कारण है। .: संसारका प्रत्येक प्राणी सुखोंकी इच्छासे ही. इधर उबर कभी किसी के पास और कभी किसीके पास जाता है जिस तरह विषम रोगापन्न रोगी के घरवाला जन किसी व्यक्तिसे अच्छे वैद्यकी वाचत सुनता है उधर ही दोड़ता जाता है और वहांसे सफलता न प्राप्त होने पर दूसरे. वैद्यकी या औषधिकी खोनमें लग जाता है ठीक इसी तरह यह संसारी प्राणी मी कमी. किसी और कमी किसी धर्म का आचरण करके सुखो होना चाहता है / यह अपने अमि-: कपित धानको जाने के लिए. जब भी समुद्या होता है तो इसे एक स्थान जानेके लिए मिन्नः . मिन्न मताश्रयी दार्शनिकोंसे निरूपित अलग अलग ही. मार्ग:दिखलाई पडते हैं. जो कि एक दूसरेसे सर्वथा विरुद्ध हैं। : ऐसे समय सुचारु विचारक महाशय ! उस जीवकी, क्या दशा होगी यह आप अच्छी तरह जान सकते हैं / ऐसे व्यक्ति की दशा हम उस व्यक्तिकी दशासे जान सक्ते हैं : 1. वीरोंमें उत्कृष्ट, 2 अंकानाम वामतोगतिः इस नियमानुसार वर; महावीर, 3 विशेषेईते : बीर सशः : ... Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कि किसी दिन स्थानको जाना चाहता है. और मार्गको परिक्षान न होने के कारण एकत्रित मनुष्यों से पूछता है कि अमुक स्यानको जानेके लिए कौनमा मार्ग है लेकिन समूहगत प्रत्येक व्यक्ति उसे अभिषितस्यान जाने के लिए भिन्न भिन्न ही मार्ग बतलाता है। अब या तो वह विचारा मनुष्य मानेका विचार ही छोड़ देगा या जावेगा मी तो सन्देहातुमरगझे अभीष्ट स्यानको नहीं पहुंचेगा / .............. ... ___ संसारमें अग अग धर्मोपदेशक एक सुखकै मागको पाने के लिए अपनी भिन्न भिन्न धर्मोपदेश रूपी टिकिट ( Ticket ) देका स्वकहरत सिद्धान्त गाड़ियोम बैठाकर इष्ट मार्ग प्राप्त करनेका दावा करते हैं अतः परीक्षाप्राधान्य मनुष्यका कर्तव्य है कि पहिले वह अपने भानेके मार्गकी अच्छी तरह परीक्षा करलें जिससे कि अंगाडी उसे अनिष्ट स्थान पर पहुंचकर दुःख न प्राप्त करना पड़े। ................ अब हमें पदार्थ विनिश्चायक उपायोंका यहां मी आत्रेय लेना चाहिये / प्रत्येक पदार्थके निश्चपके लिए नीन उपायों की प्रथम ही आवश्यकता हुआ करती है-एक उद्देश, . द्वितीय क्षण निर्देश, तृतीय परीक्षा ......... .... . इस लेखमें षट् दपकी आवश्यकता और-सिद्धि बतलाने तथा सिद्ध करने के लिए: पूर्ण प्रयत्न किया गया है यही इस लेखका उद्देश है / पीसा व लक्षण निर्देशका बागे.. खुलासा किया जायगा। . .::. .............. . षट् द्वयों के नाम निर्देश और परीक्षा के पहिले न्यका सांभाय लक्षण क्या है . यह विचारना चाहिये / आचार्योने द्रव्यता लक्षण " सपलक्षणं" या गुगायत्रद्न्यं ".. ऐसा कहा है यहां कोई ऐसी शंका गरे कि लक्षण तो अाधारण हुआ करता है और लक्षण द्वयक होनेसे अवश्य ही लक्ष्य द्वयकी सिद्धि होगी सो उसका यह कहना..मी समु.. वित नहीं है क्योंकि एक ही लक्ष्यका यहां प्रकारान्तरसे उक्षम किया है।. . . सट्टयरक्षण : . " गुणपर्ययवन्यं / इन लक्षणों का यही तात्पर्य है कि.. द्रव्य नित्यानित्यात्मक है / सतका लक्षण उत्पादन्यत्रौव्ययुक्कं सतअर्थात् जिसमें उत्पाद ( उत्पत्ति ) यय (नाश ) धौम्य (नित्यता ). ये तीनो ही ६उसे . स्त. कहते हैं। श्रौव्य नित्यात्मक है और टत्पाद व्यय अनित्यात्मक है / चेतन वा अचेतन . पदर्थ अपनी अपनी चेतनत्व. बा. अचेतनत्व जतिको न छोड़कर अंतरङ्ग बहिन कारणों से जो दुसरे पदार्पके स्वलाको प्राप्त करे उसे उत्पाद कहते हैं जैसे कि मिट्टी को घटं अन्य रूप आकार हो जाता है, व्य का अर्थ पूर्व पर्यायका चला जाना है जैसे कि घटकी उत्पत्ति : मृतपिण्डके आकाएका प्रभाव है / धौम उसे कहते हैं जो कि व्यय उत्पाद कर रहित है .श्रौव्यः / २०४की व्युत्पत्ति इस तरह की गई है कि श्रुति स्पिरि मति : भ्रास्य मावः क य वा प्रौल्य, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (*). अर्थात जो सर्वदा स्थिति स्वमात्र है उसे धन्य कहते हैं । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से उत्पाद, are, धौव्यका द्रव्यसे प्रथक भाव है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे अटक मात्र है क्योंकि द्रव्यसे अलग कहीं उत्पादादि नहीं देखे जाते । यहां एक में उत्पादादिका भेद अभेद दोनो ही हैं अतः भेद अभेद परस्पर विरोधी होनेसे एक जगह नहीं रह सकते। ऐसा नहीं कहना चाहिये जैसे कि एक पदार्थमें अपने अमोधायक ( वाचक ) के अभिधान (कथन) की अपेक्षा अमिता है और पर अभिधायकके अभिधानकी अपेक्षा अनमिवेपता है या स्वरूपकी अपेक्षा रूपता और पररूपाकारकी अपेक्षा अरूपता है उसीतरह पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद और द्रार्थिक नयको अपेक्षा अभेद समझना चाहिये। यहां थोड़ेसे में पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय लेख्य होनेसे लिखता हूं । जो साइदिमामण्णं अविणाभूदं विशेषरूपहिं । णाणा जत्ति वलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ॥ अर्थात् - 'विशेष रूप से अविनाभावी (विशेषरूपके विना जो न हो सके) जो सामान्य स्वरूप उसे युक्तियों द्वारा ग्रहण करनेवाली नयको द्र० गर्थिक नय कहते हैं । द्रव्य में 'सामान्य विशेषय ये दो धर्म रहते हैं। विशेषको अवधान कर और सामान्यकी मुख्यतासे जो पदार्थका ग्रहण करता है उसे पार्थिक तथा सामान्यकी अप्रधानता पूर्वक विशेषकी मुख्यतासे जो पदार्थ पर्यायका निरूपण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । न्यके भेद प्रभेदोंकी संक्षेपसे यह संदृष्टि हो सकती है द्रव्यार्थिक ? * अध्यात्मव्या० शास्त्रीयद्रव्या० | संग्रह, पर्यायार्थिक " x अध्यात्म पर्या ० व्यवहार 1. नैगम, ऋजुसूत्र शब्द. सममिरू एवंभूत + 1 T वर्तमाननै • भूतनगम, भावाने ० स मान्यतं ० विशेषसं० शुद्धव्य० अशुद्ध. स्थूल ऋजु० सुक्ष्मऋजु. शास्त्रीय पर्या० * इसके भेद - विधिनिरपेक्ष० शुद्ध, सत्ताग्राहक० शुद्ध, भेद विकल्यनिरपेक्ष० शुद्धि, शुद्ध, मेदकल्पनासापे० अशुद्ध, अन्वयद्र० • "कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध, उत्पादव्ययसा० स्वद्रव्यादिप्राह • परद्रव्यादि परमभावग्राही ● * इसके भेद - अनादि नित्यपर्या०, कर्मपाधिनिरपेक्ष अनि. अशुद्ध, शुल आदिनित्य०, अनित्य शुद्ध, अनित्य कर्माधिपापेक्ष अनित्य अशुद्ध, 10 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त कथनमें न के संक्षेप रीतिसे. भेद बताये हैं । एहि नयके दो भेद किये हैं फिर : द्रष्यार्थिकके २ और पायाधिकके दो भेद किये हैं : पुनः शास्त्रीय द्रव्यार्षिक नैगमादि. तीन भेद किये हैं और अध्यात्म द्रव्याकिंके कर्मोपाधि निरपेक्षादि १० भेद किये हैं। नैगमके तीन भेद किये हैं. और संग्रह तथा व्यवहारके दो दो किये हैं। शास्त्रीय पर्पयार्थिकके : ऋजुसूत्रादि १ भेद किये हैं..... .... . .. ' ऋजुसूत्रके दो भेद किये हैं तथा अध्यात्म पार्थिक ६ : अनादि नित्य पर्यायादि भेद किये हैं, यद्यपि नयके लिखनेका यहाँ विशेष प्रयोजन ही या लेकिन प्रसंगवश : कुछ लिखना पड़ा, अस्तु । ' : ' ......... ..पहले द्रव्यका लक्षण: कहा जा चुका है यहाँ. यह बतलाते हैं कि द्रव्यः लक्षणं का जो अर्थ है वही अर्थ शब्दान्तरों द्वारा " गुणपर्ययक्ष्यम् में कहा है यानी . हरएक पदार्थमें कोई न कोई शक्ति अवश्य होती है जैसे कि आत्मामें ज्ञान शक्ति, धर्ममें :. गतिहेतुस्व, अधर्ममें स्थितिहेतुत्व, आकाशमें अवगाहहेतुत्र, काउमें वर्तनःहेतृत्व, ये शक्तियां हैं। शक्ति गुणका पर्यायवाची शब्द है। द्रव्यमें अनन्त गुण होते हैं। यहां पर कोई : ऐसी.शंका करे कि द्रव्यमें रहनेवाला अनन्तगुणत्व वह द्रव्यसे अलंग-मी-दिखलाई देना चाहिये। आधेय रूप द्वारा निरूपित होनेसे, कुंड में दहीके समान, जैसे कि कुंडमें दही बाधेयरूपसे.. - अनुगत है अतः कुंडसे प्रषक भी पाया जाता है। द्रव्यमें अनन्त गुणत्व मी आधेवरूपसे निरूपित है अतः द्रव्यसे प्रथक् पाया जाना चाहिये। .. . . .. यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि यहां जो आधार आधेयंता है उसका अर्थ युतं .. : सिद्ध पदार्थकी. आधार आधेयताके समान नहीं है । ..... ...... .. युत सिद्धका स्वरूप : लक्षण यही है कि जो प्रथक प्रथक् स्वाश्रय सिद्ध हो, जैसे.. कुंडमें दही, यहां कुंड और दहीमें गो आधार आधेयता है वह युतसिद्ध पदार्थोंकी आधार आधेयता कही जायगी क्योंकि कुंड अपने अवयवों (अंशों) में रहता है और दही. अपने : .. दहीके अवयवोंमें रहता है । तसिद्ध पदार्थोंमें चार अर्थोकी प्रतीति होती है कुंड २ कुरा घयव ३ दही ४ दहीके अवयवः। आयु तं सिद्ध पदार्थोंमें नो आधार आधेयता हैं वहां तीन ही पदार्थ पायें जाते हैं जैसे आत्मामें ज्ञान गुण अयुत सिद्ध है। यहां १ आत्मा २ आत्मावयव । ३ ज्ञान गुण अयुत सिद्धको लक्षण ऐशा है कि ययोः द्वयोर्मध्ये एकोऽपराश्रिमे - तिष्ठति तौ अयुतसिद्धौर जिन दो पदायों के बीच में एक अपराश्रित होता. वे दोनों आपसमें, : - अयुतसिंद्ध कहलाते हैं न कि अयुतसिद्ध पदार्थोंकी आधार आधेयता युतसिद्ध पदार्थोकी आधार आधे पतासे सर्वया भिन्न ही है तो युतसिद्धकी आधार आधेयतामें रहनेवाला गुणः । मा. दोष अयुतसिद्धकी आधार आधेयतामें कैसे आसकता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. (4) जैसे आत्मामें ज्ञानशक्ति है वह आत्मासे प्रथकू नहीं पाई जाती. या उप ज्ञानशक्तिसे आत्मा अलग नहीं पाई जा सकती । 1 } श्री नेमिचन्द्राचार्यने सूक्ष्मनिगोदिया मध्य पर्याप्तक जीवसे सबसे जघन्यज्ञानको पर्याय ज्ञान नामसे कहा है । यहां पर्याय समास, अक्षर, अक्षरसपास आदि में जैसे उनका ( पर्याय समासादिका ) आवरण उन्हींके ऊपर पड़ता है. यानी पर्याय समास ज्ञानावरण' पर्याय समास श्रुतज्ञानके ऊपर पड़ता है। अक्षर ज्ञानावरण अक्षर श्रुतज्ञानके ऊपर, अक्षर समास ज्ञानावरण अक्षर समास श्रुतज्ञान के ऊपर पड़ता है उसी तरह पर्याय ज्ञानका आवरण मी पर्याय श्रुतज्ञानके ऊपर पड़ना चाहिये, लेकिन ऐसा न होकर पर्यायज्ञान, पर्याय समासज्ञान इन दोनोंका आवरण पर्याय समाप्त श्रुतज्ञानके ऊपर ही पड़ता है इसका कारण यही है कि ज्ञानकी सबसे कम अवस्था है और उसपर आवरण पढ़नेसे आत्मा के ज्ञानवानपनेका ज्ञान कैसे हो सकेगा यही बात श्री जीवकाण्ड में प्रतिरादित है । वरि विसेसं जाणे सुहुम जहणणं तु. पज्जयं णाणं । पज्जाया वरणं पुण तदनंतर णाण भेदेहिं || अर्थ- सूक्ष्म निगोदिया ब्ध्यपर्याप्त रूके सर्व जघन्य ज्ञानको पर्यायज्ञान कहते हैं और पर्याय ज्ञानावरण पर्यायके बादमें कहे गये पर्याय समास ज्ञानके ऊपर पड़ता है और वह पर्याय ज्ञान इस गांषाके अनुसार सुमणि गोद अपज्जत यस्स जादस्य पदम समय म्हि | हवदि हुसव्व जहणणं णिचध्वाणं णिरावरणम् ॥ यानी - सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जो कि उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही है तब उसके ज्ञानको पर्याय ज्ञान कहते हैं वह आवरण रहित तथा नित्य ही प्रकाशमान रहता है इत्यादि इत्यादि । यह दृष्टान्तस्वरूप जो आत्मा उसके ज्ञान गुणकी भप्रयक् सिद्धि प्रसंगवश कहा गया है। अब दृष्टान्त स्वरूप आत्मामें ज्ञान जैसे अमिन्नत्वेन रहता है उसी प्रकार अनन्तगुण मी द्रव्यसे अभिन्न जानना चाहिये । i उक्त कथनसे यह बात सिद्ध की गई कि जो अ सद्रव्य लक्षणका है वही है । द्रव्यमें दो गुण रहते हैं । एक सामान्ये एक विशेष । सामान्य गुण उसे कहते हैं जो बहुतसी द्रव्योंमें एकसा पाया नाय जैसे सत्व अगुरुकचुलादि जो एक ही द्रपमें रहे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ट) दूसरे लक्षणों का निरूपण किये हम उनका दोषादि नहीं बतला सक्ते अतः उनके द्रव्यकी अप्रमाणता दिन सिद्ध किये हम अपनी ही द्रव्यको सर्वथा प्रमाणता है यह भी नहीं कह सक्ते, तथा । स्वगुणं व्यनक्ति । गुणको प्रगट नहीं करती , ऋते तमांसि मणिर्मणिर्वा विना न काचैः अन्धकारके बिना सूर्य और काचके विना मणि अपने है उसी प्रकार विना असत (झूठे ) द्रव्य लक्षण हमारा सम्यक लक्षण भी अपने विशद लक्षणकी महत्ताद्योतक नहीं । इसी आशयका आश्रय लेकर परिकल्पित कुछ योंका उक्षण और साथ रही उनकी अप्रमाणता भी बताते हैं । 'क्रियावत् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यचक्षण' यानी क्रिया और गुण युक्त जो समवायी कारण हो उसे द्रव्य कहते हैं । यह क्रयका लक्षण वैशेषिक, योग मानते हैं किन्तु इनका यह मानना मी ठीक नहीं हैं । क्योंकि वैशेषिक लोगोंने रक्षणका लक्षण अनाधारण धर्मं वचनं, असाधारण (विशेष) धर्मका जो कहना उसे लक्षण कहते हैं ऐसा माना है। और इस क्षण लक्षणानुसार उक्त क्रमका लक्षण वटित नहीं होता क्योंकि ये द्रव्यका रक्षण पृथिव्यादिकों नौ ही में जाता है अतः असाधारण नहीं कहा जा सकता । असाधारण एक ही जगह रहता है यदि असाधारण बहुत जगह रह निकले तो असाधारण की हानि होती है तथा ऐसे असाधारण और साधारण में कुछ भेद भी नहीं कहा जासकता जब कि श्राधारणत्व का नाश होनेसे असाधारण कुछ चोन ही सिद्ध नहीं होगा तो 'यह गो है सींगवाली होनेसे' ऐसे साधारण हो हेतु दिये जायेंगे और इस तरह साधारण हेतु देने से अतिव्याप्ति दोष आवेगा अतः किसी मी पदार्थकी उपवस्था नहीं बनेगी यदि यही दोष" जैनियोंके यहां भी दिया जाय यानी जैनियोंने जैसे 'सद्रव्यलक्षणं' ये पका लक्षण माना हैं और जीवादि द्रश्य में व उस द्रव्य लक्षणकी अनुवृति करते हैं अतः उनके यहां मी क्षण नहीं सकता ऐसा आरोप नहीं कर सकते क्योंकि जैन दर्शनानुसार लक्षणका लक्षण असाधारण धर्मे वचन नहीं है युक्ति वाधित होनेसे । लकड़ीके सम्बन्धसे मनुष्यको मी कमी २ लाड़ी कह दिया करते हैं लेकिन लकड़ी यह मनुष्यका असाधारण धर्म न होनेपर रक्षण' माना जाता है भतः जैन दार्शनिक भसाधारण धर्मको रक्षण नहीं मानते भतएव उक्त दोन उनके ऊपर नहीं आसकता बल्कि उन्हींके ऊपर आता है जो कि अताधारण धर्मको लक्षण मानते हैं । दूसरे, जैनियोंके द्वारा स्वीकृत द्रव्यका लक्षण जहां जहांर पाया. जाय वहां वहीं द्रव्यत्वका निश्चय कर देगा | तो · Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपक्षी (शडाकार )-जैनियों के यहां जैसे नहाँ २ द्रव्यका लक्षण रहेगा वहां वहां द्रव्यत्वका निश्चय करा देगा उसी तरह हमारा भी द्रव्य रक्षण जहां १ रहेगा द्रवका निश्चय करा देगा। (जैनी)-आप ऐसा नहीं रह सकते क्योंकि आप तो इसका लक्षण द्रपसे सर्वथा मिन्न मानते हैं, यदि अभिन्न मानेंगे तो स्वसिद्धान्त हानि होगी। (प्रतिपक्षी) द्रव्यत्वके योगसे हम 1 सिद्ध कर देंगे। (जैनी) ऐसा करनेसे तो उपचारसे ही पकी सिद्धि होगी क्योंकि-" मुख्याभावे सतिप्रयोगने उपचारः प्रवनवे " मुख्यके न रहनेपर और प्रयोजनके होनेपर उपचारकी प्रवृत्ति होती है। ___ मस्तु तुष्टतु दुर्ननः न्यायसे आपका द्रव्यलक्षण सिद्ध मी मान लिया नाय तथापि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, मनमें ही उपर्युक्त द्रव्य का लक्षण माता है । आकाश, काल, दिशा आत्मामें नहीं जाता मतः पक्षाव्यापक होनेसे द्रव्य रक्षण आदरणीय नहीं कहा जा सकता। (प्रतिपक्षी) आकाश, कल, दिशा, आत्मामें गुणवत समायिकारणं यह द्रव्यका लक्षण संघटित हो जायगा अतः हेतु पक्षा नहीं हुआ। .(जैनी) ऐसा कहने से दो लक्षण द्रव्य के सिद्ध हो गये एक "क्रपावत गुगवतसमायि कारण" दूसरा 'गुणात समवायिकारण। जब दो रक्षणं सिद्ध हो गये तो द्रव्य पदार्थों की इन दो लक्षणोंसे सिद्धि होनी चाहिये अतः पुनः द्रव्यका लक्षण निरि नहीं कहा जा सकता, निरसे कि पृथ्वो आदि नव दयोंकी सिद्धि हो सके और फिर-समवायसम्बन्धावच्छिन्न गन्धवावच्छिन्न धेश्ता. निरूपिताधिकरण तावत्वं गन्धवत्व" इत्यादि पृथ्वीका लक्षण नहीं बन सकता। क्योंकि लक्ष्य द्रव्यकी विना सिद्धि किये लक्षण नहीं बन सकता । , सांख्य अर्थ क्रिया कारित्व ही वस्तुका लक्षण मानते हैं इनका कहना मी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्तजीव नोर्म मलावरणसे सर्वथा मुक्त हो गये हैं उनके क्रियाक अगावसे अवस्तुताका प्रसंग भाता है। कोई कहे कि हम मुक्तोंमें भी क्रिया मान डंगे तो उसके गनमें मुक्त जीवको कर्माभावका ही उच्छेद हो जायगा क्योंकि समारी क्रियावान है सकर्मक ह'नेसे । जो जो सकर्मक होते हैं वे ही क्रियावाले होते हैं जैसे कि स्मापुरुष । इस अनुमानमें सकर्म और क्रियावान्मा आपसमें अविनाभाव सम्बन्ध बतलाया है । मुक्कोंमे सकर्मकत्व हेतु न रहनेसे क्रिया नहीं मानी जा सकती, यदि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कोई ऐसी न करे कि मरण पश्चात् जीव दूसरी गतिको जाता है उस समय इसके कोट नापि दुपरी गति far Tirरूप क्रिया करता ही कर्म नहीं होते हैं यह भी ठीक नहीं क्योंकि विग्रह गतिमें जीवके कार्माणका योग रहता ही है । क्रिया " ' क्षण अक्षेरण, आकुञ्च प्रसारण, गमन इ ताह पांच प्रकार बतलाई गई है । मुक्तोंमें उक्त पत्र क्रियाओं से कोई भी क्रिया नहीं देखी जाती गतः मुक्त सक्रिय नहीं हो सक्ते हैं और निष्क्रिय होने से अवस्तुताकी आपत्ति अती है अतः वास्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व भी नहीं मानना चाहिये । वैशेषिक 'वस्तुका लक्षण सत्तारूप है' ऐसा ही मानते हैं, उनका यह लक्षण मानना भी समुचित नहीं है क्योंकि सत्तासे : उनने महासत्ता मानी है और उस महत्ताको नित्य ही मानते हैं अतः सिद्ध नहीं हो सक्ती सम्व महोदय ! पूर्वोक कथनमें द्राणके लक्षणकी परीक्षा करने के लिए द्रव्यका लक्षण अच्छी तरह तर्क कसौटी पर चढ़ाया गया है । अब भगाड़ी मुझे आपके सामने यह और पेश करना है कि कितनी है और किस किसने कितनी मानी हैं । ६ : यह बात मली मांति विदित होगी कि पदार्थको प्रक्षगत करके ही तुलना की जाती है। उससे पदार्थका मिना विशदे ज्ञान होता है उतना अनुपाना दिसे नहीं होता हमें in far अवश्य मानना चाहिये क्योंकि तुना बिना पदान्त के नहीं होती, जैसे कि काले रूपक रहनेसे ही शुक्ल रूपकी महत्ता या अन्वकार के रहने से प्रकी"शी, रात्रि के होने से दिनकी, मूखसे विद्वानकी, तथैव द्र के मम्यक लक्षणकी मी द्रव्यक्षण मासे महत्ता है और द्रश्य ख्शकी महत्ता मी 'तमी प्रमाणत को प्राप्त होती है, जब कि द्रव्य संख्यामासः (झुठी दर की संख्या) हो अतः यहीं पर कति संख्याको लिखकर और उसका खण्डन बनके स्व चनी जैनियोंके द्वारा करात सरूपाके सिद्ध करने में यही तात्पर्य है जिस तरह दूसरोंके द्वारा स्वीकृत द्रव्यके लक्षण भिन्न २ होने पर भी सटकनाको नहीं प्रप्त होते हैं उसी तरह अन्य महाशयों द्वग निर्धारित द्रव्यकी संख्या भी ठीक २ प्रतीत नहीं होती । बिन्ही २ की मानी हुई संख्या किसी न किसी भेद कर रहित और किन्ही किन्हीने उस द्रव्यकी संख्या वृद्धि के लिए पुनरुक्तको यी दोष नहीं माना है । दुपाधि रणवृत्ति सत्ताभिन्न जातिमत्वं द्रव्यस्यैव रक्षण " इस द्रव्यक: लक्षणको स्वीकार करने वाले वैशे ष रु सात पदार्थ द्रव्यं, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अमाव मानते हैं। यहां उनका सिद्धान्त बना कर पुन: मैं जैनियोंके द्वारा “कल्पित संख्यांकी तुलना करता हुआ वैशे पेड़ों को अभिनय द्र्व्य संख्याकी निरर्थकता बतः ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानमा शक्ति वानुभूत नाम शक्तिको आठवां पर (11) वैशिषिक, संसारमें पदार्थ ठसे हम देखते हैं तो हमें सात पदार्थ ही ज्ञात होते हैं जो कि ऊपर वर्णित हैं। शङ्काकार-आप लेग शक्तिको आठ पदार्थ क्यों नहीं मानते यदि आप कहें कि शक्ति वातुभूत नहीं है तो परिक्षा पधनी हम आपके वचन मात्रसे यह नहीं 'मानसते, शतके साधक प्रमाण निषि और सबल हैं अतः शक्तिको आठनों पदार्थ मानना चाहिये / हम देखते हैं कि अग्निका प्रतिबन्ध कोई कारण नबतक नहीं समीप लाता मंगेबगर आना दहन करना कार्य जारी रखती है / प्रतिबन्धक मणि आदिके आनाने पर उपकी शक्ति विष्ट हो जाती है और फिर वइ दाह नहीं करती अरः यह बात सुक्ष्म या मान्य है, कि शक्ति पार्थान्तर है। यह शङ्काकारकी का मी अविचारित ही है, क्योंकि दाहकस्य कार्यके लिए अग्नि कारण है रेकिन काणान्तर रहित या किसके द्वारा वाधित सामर्थ काण कार्योत्ात्तिके लिए मजबूर नहीं किया जा सकना " / यहां जो मणके मद्भबसे अग्नि की दाहालका अपात्र हुआ सो यहां अमके दाहक कायके लिए उत्तेतकाभाव विशिष्ट मण्यमान कारण है जब कि मणिके द्रव होने पर उत्ते नकके अभावसे विशिष्ट मणि अमाव रूप कारण ही नहीं तो कार्य कैसे हो सकता है / अतः शक्ति कोई पदार्थान्तर नहीं है / (शङ्काकार) अस्तु, शक्ति पदार्थान्तर नहीं है ऐपा हम मी मानते हैं किन्तु आपने जो द्रव्यके पृथ्वी, अप (नल), तेन (अग्नि), वायु (इवा), आकाश, काल, दिशा. आत्मा, मन ये 9 भेद माने हैं उनमें झापको अन्धकार मी एक 10 वीं द्रव्य मानना चाहिये क्योंकि नीलं तमः चति' यहां पर अन्धकारमें आपकी द्रव्यका लक्षण अच्छी तरह घटित हो जाता है। आपने द्रव्यका लक्षण "क्रियावत गुणवत समवायि कारणं दव्य लक्षणं " ऐसा किया है / चलति ( चलता है) इस क्रियाका आधार होनेसे अन्धकारमें क्रियावत विशेषण रह ही जाता है तथा नीलं तमः (नीला अन्धकार -अन्धकारकी बहुसमुन्नतदशा) / ऐसा कहनेसे गुणवत् विशेषण मी घटित होही जाता है अतः अन्धकारको द्रव्य मानना ही चाहिये और उक 9 दायों में इसका अन्तर्भाव मी नहीं है / आकाश, कार, दिशा, आत्मा, मन, ये रूप रहित और अन्धकार सरूप हैं / अतः इनमें उसका ( अधकारका ) अंतर्भाव नहीं किया जासका। अन्धकार गन्ध रहित है अतः गन्धाली पृथ्वी में अन्तर्भावित नहीं होता तथा अन्धकार शीन गुण विशिष्ट भी नहीं है अतः नली, उगगुमसे मी रहित है अ ते नमें नहीं घट सका। अब ना कि अन्धकार उल नौ द्रव्योंमें अंतर मी नहीं होता, मौर Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य द्र० द्रव्यका लक्षण इसमें घट ही जाता है, फिर भी अन्धकारको द्रव्य न मानने में सिलाय तीव्र मोहके और कोई कारण नहीं कहा जासकता।" ', यह सब उक्त. शङ्काकारका वगनाल मात्र ही है। क्योंकि अन्धकार तेनके भभावके सिवाय कोई भावान्तर नहीं है। (शङ्काकार) यदि ऐसा ही है तो फिर अन्धकारका अभाव ही तेजः द्रव्य हो. जायगा / अन्धकार ही को मान लीजिए / तमकों तैनका अभाव होनेसे न मानना और तेनको तमका अमाव होने पर भी मानना यहां विद्वेषातिरिक्त क्या कारण कहा जा सका है। (उत्तर दाता) यदि तेज़ द्रव्यको अन्धकारका अभाव. मान लिया जाय तो अभावमें सर्वानुमृत उष्णत्व नहीं रह सक्ता, और फिर उस उष्णत्वकी आधारः रूप कोई अन्य द्रव्य माननी पड़ेगी।.... द्वितीय, उन्धकार चता है. यही द्रव्यका लक्षण मी संघटित नहीं होता। क्योंकि नील रूपको जो यहाँ प्रतीति होती है, वह भ्रांत रूप ही है / अतः द्रव्यः 9 ही माननी चाहिये न अधिक और न कम्। इस सबके सामनेवाले वैशेषिश्के मतमें द्रव्यको एकता सिद्ध नहीं हो सकी क्योंकि द्रा को 9 मेदनाला माना है और द्रव्यको एकता न बननेसे सात पदार्थों की सिद्धि नहीं हो. सती, क्योंकि स्वतंत्र नौ द्रयों को एक द्रव्य सिद्धि होनेपर द्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परियण, पृषकत्व, सयोग विभाग, परत्व, अपरन, गुरुत्व, द्रव्यत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और सकार 'इन 24 गुणोंमें ऐक्य सिद्ध होनेसे एक गुण, उक्षेपादिः पूर्वोक्त पांच क्रियाओं में .. एकता सिद्ध होने से एक क्रिया, पर-अपर दो सामान्योंमें तथा नित्य द्रव्यमें रहनेवाले .. अनन्त विशेषोंमें एकात्वं सिद्ध होने पर एक सामान्य व एक विशेष प्रागभव, प्रध्वसामाव, भत्यतामाद, अन्योन्यामाव इन चार अभावोंमें एकता सिद्ध होनेसे एक अमाव, एक समवाके समान सिद्ध होते तो सात पदार्थोकी सिद्ध होती लेकिन उक्त द्रव्य गुण कर्मादिकमि एकता सिद्ध नहीं हो सकती अतः पदार्थ सात हैं यह कहना श्रममात्र है। द्रव्यत्वके योगसे * “एक द्रव्य मानेगे तो उपचारसे ही एकता सिद्ध होगी परमार्थतः सिद्ध नहीं हो सकती। ... (शङ्काकार) द्रव्य एक पदकी सामर्थ द्रव्य ..सव भेद; "प्रभेद ग्रहण कर लिये जावेगे द्रव्यमें एकता और गुण कर्मादिमें भी इसी तरह एकता आनेसे सात ' पदार्थकी सिद्धि हो जायगी, उत्ताच- . :..:. . . . विस्तरणोपदिष्टानामर्थानां तत्वनिश्चय समासेनाभिधाने यत्सग्रह तं विषुधा अर्थ-वस्तारपूर्वक किन पदार्थों का तत्वनिश्चकक लिए उपदेश दिया जाता है . . . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका जो संक्षेपसे कहना है उसे संग्रह कहते हैं। अतः संग्रहनयकी अपेशाले एकता सिद्ध, हो जायगी अतः सात पदार्थ मानना चाहिये। उक्त कथन भी समुचित नहीं है क्योंकि एक पद पाच्य होनेसे एकता की ही प्रतीति होती है, ऐसा नियम नहीं है क्योंकि सेना वन आदि एक पद वाच्य अनेक पदार्थ देखे जाते हैं । यहाँ ऐसी शंका करना कि सेना बनादि एक पाद वाच्यसे संबंध विशेषयुक्त एक की ही प्रतीति होती है। वह सम्बंध संयुक्त संयोगाल्पीयस्त्व लक्षणवाला कहा जाता है। संयुक्तका जो नग्न्तर्य सम्बन्ध यानी संयुक्तका जो निकटवर्तिक सम्बन्ध उसे संयुक्त संयोगासीयस्त्व कहते हैं । यह कहना मी युक्ति सम्मत नहीं है। क्योंकि सेना वन आदि शब्दसे सबका ज्ञान मनुष्य घोड़ा आदिमें ही होता है । वन शब्दके कहनेसे प्रथक् । पेड़ोमें ही होता है । सम्बन्ध विशेषमें जो बाप ज्ञान बताते हैं सो नहीं होता अतः एक पद वाच्य होनेसे एकताकी सिद्धि नहीं होतकी । अन्यच्च एक पद वाच्य होनेसे यदि एकताकी सिद्धि की जाय तो एक गोके द्वारा वाच्य जो ११ श्ब्द हैं उन सभीकी एकता माननी चाहिये। . उक्तं च-वाचि, वारि, पशोभूमौ, दिशि, लोनि,पवौ, विवि विशिखे, दीधित्तो, दृष्टावेकादशसु गोमतः॥ . गोशब्द वचन, पानी, पशु, भूमि, दिशा, रोम, बन, आकाश, बाण, किरण और । किरण इन ११ अमिधेयों में हैं। एवं एक य शब्दके वाच्य त्याग, नियम, यम, वायु, धाता, पाता रक्षमा इन छहोंमें मी एकता होनी चाहिये। (शङ्काकार ) वचन पशु आदिका वाचक गोशब्द, त्याग, नियम, यम आदिका वाचक य शब्द मिन भिन्न ही हैं फिर एक पद धाच्यत्व ही यहां नहीं रहता तो एकता कैसे। (उत्तर ) यह भी आपका कहना ठीक नहीं, ऐसे हम मी वहमक्ते हैं कि पृथ्वी जल आदिका वाचक अलग अलग ही द्रव्य शब्द है अतः एक पर वाच्यता न होनेसे , एकता नहीं हो सकती। . . संग्रह किये जाय अनेक पदार्थ जिस शब्दसे ऐपा शब्दात्मक संग्रह और एक प्रत्ययसे अनेक पदार्थ ग्रहण किनाय ऐसा · प्रत्यात्मक संग्रह और अर्यामक इन तीनों संग्रहोंसे द्रव्यको एकता सिद्ध नहीं की जासको । द्रव्यको ९ संख्या मानना मो संख्यापास है क्योंकि इन ९ द्रव्यों का बीर पदलमें शान्ताव हो जाता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::: ..::. - . : Dhok F... .... ." - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, मनका पर्श, रस, गन्ध, रूपवालें होनेसे पटल में अन्तर्भाव हो जाता है क्योंकि जो जो पशः रूप रस गन्धवाले होते हैं. वे पौगलिक होते हैं जैसे अख / .. __ . - वायु और मनमें रूप न माननाः मी न्याः संगत नहीं है क्योंकि वायुरूप युक्तः है. स्पर्शवाली होनेसे / इस अनुमानसे वायुको रूपताः सिद्ध. ही है। वायुका रूप देखने में - नहीं आता अतः उसे मानना मी नहीं चाहिये, : यह कहना भी न्याय मान्य नहीं है क्योंकि जो जो देखने में नहीं आये उन उनका अभाव, यदि आप ऐश करेंगे तो तुम्हारे देखने में परमाणु नहीं आमकता अहः उपका मी अमान कहना चाहिये। या तुम्हारे देख नेमें अपने बाबा परवाना आदि भी देखने में नहीं आते अनः के हैं ही नहीं ऐसा. ही.. कहना चाहिये। (शङ्काकार)-परमाणु परवावा आदि यद्यपि प्रत्यक्ष नहीं है तथापि कार्यो कारणका अनुमान होता है / इस न्यायसिद्धांतानुसार कार्य जो मकान आदि उनसे कारण : परमाणु आदिका और पिता हैं अतः पाबावाका हम ज्ञानकरलेंगे। लेकिन वायुके रूपका कोई कार्य नहीं नितसे कि कारण स्वरूप रू का ज्ञान किया जाय। (उत्तर)-।। मी ही कहा के बयोंकि इतकी रूपरस्त्र के साथव्याप्ति ऽ.सिद्ध है अजीजहां पर्शवत्व होगा रूपवत वहाँ अवश्य मानना पड़ेगा। मन दो प्रकारका होता है / इयमन और भावमन / यमन अष्टकमजद में रहता है और तदाकार जो आत्माके प्रदेश हैं उसे भावमन कहते हैं / चक्षु की तरह ज्ञान और उपयोगका कारण होनेसे मन भी सादिवाला है, मावमलका अन्तर्माई आत्मामें हो जाता है। ........... ......... ..(शंका) आपने जो ज्ञानोपयोगवत्व हेतुसे मुर्तिमत्वकी सिद्धि की सो ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानोपयोगवस्थ हेतुं शब्दमें भी रहनाता है जो कि विपक्ष है। यानी मूर्तिपत्व साध्यसे विरुद्ध है अतः अनेकान्तिक दोषसे दुष्ट हेतु होने के कारण साध्य सिद्धि नहीं कर सकता। . :.. .. : (उत्तर ) यह आपकी शंका सर्वथा आपहीसे मान्य हो सकती है क्योंकि शब्दयो पौद्लक होनेसे हम मूर्तिमान मानते ही हैं। '..: (शङ्काकार ) यदि शब्द पौन लक होता तो अन्य 9 पद्रके समान दिख 'लाई देता लेकिन जन शब्द दिखलाई ही नहीं देता तो मूर्तिमान से सिद्ध हो सका है। यह शो भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि वक्ताके मुखके निष्ट देशी मनुष्य प्रायासे और दुर देश स्थित पुरुष अनुमान कर पानी मुख पर सई आदि हुस्की वस्तू ... Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन) प्रकृति करने वाली नहीं हो सकती, योगलेवाली न होनेसे । भो भो योगाली नहीं है वह करनेवाली भी नहीं है जैसे मुक्तात्मा कर्मके अमावसे कुछ भोगने वाले नहीं है . वे कर्ता मी नहीं हैं। प्रकृतिको मारने न भोगने वाला माना ही है अतः उसे कार्य बत भी नहीं माननी चाहिये व्योंकि भक्तृत्वके अभावकी वर्तृत्वक अभावक साथ व्याप्ति है ।।। . यहां काई मनचला भादमी यह कहे कि रसोइया का है लेकिन भोक्ता नहीं है, मेका मालिक है यह उसका कहना केवल हास्यके लिए ही हो रहा है क्योंकि पाचक जो कुछ प्रयत्न करता है उसका फल यानी भोग रुपया आदि लेकर अवश्य करता है।" अवैतनिक काम करनेवाले मी यश आदि सवा करके स्वकृत कार्यके फल मोग ही लिया करते हैं और यदि कर्ताको लोकासे सर्वधा मिन्न मानेंगे तो मुन धातुसे कर्नामें . प्रत्यय होकर नो मोक्ता शब्दकी सिद्धि होती है वह नहीं हो सकती। . हास्योत्पादक बात तो यह है कि प्रकृतिको तो सांख्याने मुक्तदाता माना है और इस उपकार के लिए पुरुषको मोक्ष इच्छुकः पूनते हैं । यह सिद्धान्त, इस वातकी सिद्धि के लिए पृष्ट साधक होगा कि ". मोनन अन्य ही करे और पेट दुःरेका ही मरे । अतः सांख्यके द्वारा स्वीकृत अर्थ संख्या भी ठीक नहीं है क्योंकि उनके स्वीकृत चौवीसों पदार्थो का भीर अजीवके अन्दर ही अन्तार हो जाता है..... .. .. अब कुछ बौद्धोंके विषयों और कहके मैं इस प्रकरणको समाप्त करता है। बौद्धके चार भेद हैं-१ माध्यमिक, २ योगाचार,, ३ सौत्रीतिक, ४ वैमाषिक, इन चारों . भेदोका प्रथक २ सिद्धांत बतला देनेसे. बौद्धमान्य पदार्थ संस्कार का ढांचा है यह अच्छी तरह समझमें आ जायगा ! मुख्यो माध्यमिको विवर्तिमखिलं शून्यस्य मेने जगत्। ... ..... योगाचारमते तु सन्ति मतया तासां विवोऽखिलाः ॥ अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वतावनुमिती बुद्धयति सौत्रान्तिका ...: प्रत्यक्ष क्षणभंगुरं च सकल वैभाषिको भाषते ॥ ..... माध्यमिक चेतन चेतन ही पदार्थः मानता अवशिष्ट संबको उसकी पर्याय मानता है। "केदला सविद स्वस्था मन्यन्ते मन्यमा पुन इति वचनात": माध्यामिक लोग केवल सचेतन सूक्ष्म पदार्थ मानते हैं। . योगाचार मतानुयायी ज्ञान ही ज्ञान मानते हैं. अन्य पदार्थ नहीं । अन्य सब पदार्थ ज्ञानकी पर्याय हैं ऐमा कहते हैं । " आकारसहिताबुद्धिः योगाचारस्य सम्मता आकार: महित बुद्धि पदार्थानान) को योगाचारके मतमें प्रमाणता है। सौत्रान्तिक बुद्धि यांनी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ... प्रत्यक्ष द्वारा अनुमित पदाथको ही. मानता है और वह पदार्थ क्षणस्विति शील (क्षणिक); है ऐसा कहता है। ... :सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्ष ग्राह्योऽर्थो न वहिर्मतः । सौत्रांतिका (मास्तिक) : केवल प्रत्यक्ष वस्तु ही को मानता है। , यद्यपि बौद्ध सामान्य पनेसे प्रत्यक्ष अनुमान दो प्रमाण मानते हैं किन्तु बौद्ध भेदान्तर्गत सौत्रान्तिक केवल प्रत्यक्ष पदार्थको ही मानता है। वैभाषिक संपूर्ण पदार्थीको प्रत्यक्ष और क्षणपङ्गुर मानते हैं। . : ..... ..... अर्थाज्ञानान्त्रित: वैभाषिकेण बहुमन्यते " वैमापि ज्ञानाधित पदार्थको बहु.. 'ज्ञान मानते हैं। यह सुक्ष्मतः बौद्धोंकी पदार्थ. कल्पना है। .... .... बौद्ध पदार्थको क्षणिक मानते हैं। वे कहते हैं कि " सर्व क्षणिक सत्वात् । सन .. पदार्थ.. क्षणविनश्वर हैं सत होनेसे। यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि सत्वरूप जो हेतु है उसे यदि भाप स्वभाव हेतु मानेंगे तथापि नहीं बन सकता । क्षणिकके विनेश्वर होनेसें हेतुकी ही प्रवृत्ति ही नहीं होती । क्योंकि प्रत्यक्षगोचर पदार्थमें ही हेतुकी प्रवृत्ति होती है । पदाकिा क्षणभंगुरता स्वभाष मी नहीं है। . . (शंडाकार सन ही पदार्थ एक क्षणतक रहनेवाले हैं। विनाशके लिए दूसरोंकी अपेक्षा न करनेसे, जैसे कि कार्योत्पादके ठीक एक समय पहिलेकी सामग्री कार्यात्यत्तिमें : किसीकी आवश्यकता नहीं रखती है। . . . . . . . . . . . . .. दुनिया में घटादिकका मुद्गगदिकसे नाश होता है, ऐसा कथन सिर्फ स्थूठ बुद्धिबालोंका ही है। पदार्थ स्वविनाशी हैं । मुद्गारादिक उसका विनात नहीं करते। .. कल्पना कानिए कि यदि मुद्गरने घरका विनाश किया तो घरसे मिन्न किया अमिन्न । यदि भिन्न कहेंगे तो घरकी स्थिति बनी ही रहनी चाहिये । . यदि अभिन्न नाश किया तो मुद्गरने घरको बना दिया। ..... सत्वरूप हेतुकी विपक्षवृत्ति नहीं है अतः साधु है, क्योंकि सत्व अर्थ क्रियासे . व्याप्त हैं, अर्थ, क्रियाक्रम योगपद्यसे व्याप्त है, नित्यमें कम योगपद्य नहीं रहते मतः अर्थ : क्रिया भी नहीं रहेगी और अर्थ क्रियाके न रहने से नित्यमें सत्व भी नहीं रह सकता अतः । निर्दोष सत्व हेतुं क्षणिक पदार्थकी सिद्धि करता. ही है। .......... यह.बौद्धोका कहना, मी शौमाको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि क्षणिक सिद्धि के लिए जो हेतु दिया था वह सर्वथा सदोष है । घटपटादि पदार्थ विनाशके लिए दूसरों की अपेक्षा रखते ही है और पदाथीको विनाश स्वभावता क्षणिक रूपसे नहीं मानी जासकी। उक्त . ..' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... . . .. . HI.... ...... समुदेति विलयमृच्छतिभावो नियमेन पर्ययनयस्थः। .. नो देति नो विनश्यति भावनया लिंङ्गितो नित्यम् ॥ . अर्थ-पदार्थ पर्यापनयकी अपेक्षासे उत्पाद विनाशको प्राप्त होता है । द्रव्यार्षिक 'नयकी अपेक्षा पदार्थ नित्य ही है। । दुसरे जो यह हेतु दिया था कि सत्य अर्थ क्रियासे आत. अर्थ क्रियाक्रम योगपद्यसे क्रम योगपद्य नित्यमें रहते नहीं अतः सत्य रूप. हेतु विपक्षमें न रहनेसे साधु हैं सो हम इसका उल्टा यी कह सकते हैं यानी सत्त्व अर्थ क्रियासे व्याप्त है, अर्थ क्रियाक्रम योगपद्यसे व्याप्त है और क्रमयोगपद्य क्षणिकमें रहता नहीं अतः विपक्षके समान पक्षों मी हेत. नहीं रहता । इस लिए हेसु मसिद्ध, दोषसे दुषित है क्योंकि मिसत्ता निश्चितोऽसिद्ध यानी जिसकी सत्ताका अमाव हो या. सत्ताका निश्चय न हो उसे प्रसिद्ध कहते हैं सो यहां सत्व हेतु पक्षमें न रहनेसे असिद्ध है। इस प्रकार वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, बौद्ध, इनकी पदार्थ संख्याका खंडन किया । अब जैनियों के स्वीकृत जीवादि ६ पदायों का क्या क्या सामान्य विशेष स्वरूप है और कैसे सिद्धि है यह बतलाते हैं ___ युगलात्मक संसारमें निरपेक्ष दृष्टिसे हम देखते हैं तो संसारका सार युरम. ही दिखलाई देता है। जहां देखते हैं युग्मकी ही भरमार है। गौण या मुख्य, स्त्री-पुरुष, पुत्र-पुत्री; लड़का-लड़की, सम्यक्त्म-मिथ्यात्वा एकान्तवादी–अनेकान्तबादी, उल्टा-सीधा, मला-बुरा, ऊंच-नीच नितं तरह इन युग्मोंका आधिपत्य है उसी तरह संसार दो ही पदार्थ दिखलाई : एक जीव है और दूसरा अनीव । इसे युग्ममें संसारके.समी युग्म आकर मिल जाते हैं। . .. . . .. ..... जीव शब्दकी व्युत्पत्ति जीवति-प्राण त् धारयति' नो प्राणों को धारण करें इस प्रकार की गई है । जिस तरह जीवदा संसारी मुक्तास्मा इन दो भेदवाला है, उसी तरह ...' भनीयके पांच भेद है-१. पुद्र, २. धर्म, ३ अधर्म, ४. आकाश, ५ काल. अब क्रमसे पहिले जीवकी सिद्धि करते हुए पुद्गलादिकी आवश्यकता और. - सिद्धिका निरूपण करेंगे." .- . : ... जीवद्रव्यको आवश्यक्ता और सिद्धिः । जीवके पूर्वोक्त दो भेदोंके अतिरिक्त और मी एकेन्द्री; दोइंद्री, तेहन्द्री, चौइन्द्री, पंचेंद्री ये पांच भेद हैं। एकेन्द्रीके पृथ्वीकाय, अप्लाय, वायुकाय, तेजकाय, वनसतिकाय ये पांच भेद हैं । चनस्पतिके दो भेद हैं-साधारणब०, प्रत्येकव०, प्रत्येकके संप्रतिष्ठित . . .. .. . ... .. . ' . .. . . .':. ". . ..... Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ... : - . . . . . - नरक, स्वर्ग, मोक्ष मानना युक्तिरहित्य होनेसें. मूर्खता द्योतक है। क्योंकि प्रत्यक्षसे न नर्क ही दिखता है और न स्वर्गादि ही; फिर भाच्चयकी बात है कि इस अध- परंपरा पर लोगोंका क्यों विश्वास होता आ रहा है। उक्तश्च.... अन्न चत्वारि भूतानि भूमिवर्धिनलानिला। ...... चतुर्व्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते ॥ ..... भूमि, वारि (जल), अनल ( अग्निः.), अनिल (वायुः ) ये ४ ही पदार्थ हैं, इनसे ही जीवका निर्माण होता है। किण्वादिभ्यः समेतभ्यो द्रव्येभ्यो मदः शक्तिवत् । . . . अहं स्थूला कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥ ___. “अर्थ:-जैसे किणु आदिक मदोत्पादक कारणों से मद शक्ति उत्पन्न होती है। उसी प्रकार चार भूतोसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है। देह और चैतन्य भेद मानना सर्वथा । मिथ्या है क्योंकि मनुष्य नो कुछ अधिक मोटा होता है, कहता है कि मैं मोटा है और इससे जो प्रतिपक्षी है यह अपने आपको कहता है कि मैं बहुत पतला है, यहां मैं२ इन: शब्दोंसे मोटा शरीर और पतला शरीर इसका ही ग्रहण होता है। देहके सिवाय किसी अन्यका ग्रहण नहीं होता जिससे अदृश्य जीवकी कल्पना की जाय। .... देह स्थौल्यादि योगाच स एक आत्मा न चापरः। . . मम देहोऽयमित्युक्ति सम्भवे दौपचारिकी ॥ .. .अर्थ:- मेरा यह देह है, मेरा शरीर स्थूल या कृप है इत्यादि भेद प्रतिपादक वचन उपचरित ही हैं क्योंकि देहको छोड़कर आत्मा कोई देही नहीं है। .. यावजीवं सुखं जीवेतू नास्ति मृत्योरगोचरः। .. भस्मीभूतस्य जीवस्य पुनरागमनं कुतः ॥ अर्थ-जबतक कि जीवन है आनन्दसे : जीना चाहिये क्योंकि सब हीका नाश अवश्यमावी हैं और नाश होनेके बाद पुनः. जीव आता नहीं जिससे कि फिर मुख.. ... भोग सकें। .... . ..... तथाः जीव स्वर्ग मोक्ष आदि आदि किसीकी मी सिद्धि नहीं होती.! पुनः जो ब्राह्मणादि जीवादिका उपदेश देते हैं वे अपने स्वार्थवश होकर ही देते हैं। ततश्च जीवनोपाय ब्राह्मणैः विहितस्त्विह। मृतानी मतकार्याणि न त्वन्धद्विद्याले कंचित .. ... ....... . .... . .. . . ... . . ... Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . अर्थात-धूर्त ब्राह्मण गणने अपने जीवनोपायके लिए नाना क्रियाओंका कथन . किया है। यह उनका कथन है कि मनुष्यके मरने के बाद प्रेतकार्य करने पड़ते हैं, क्योंकि । विना प्रेतकार्य किये मनुष्य स्वर्ग सुख कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है. .... यो वेदस्य कतारों भण्डधूर्त निशाचरा .. ..जरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृताम् ॥ अर्थ:-वेदके तीन ही मुख्य कर्ता है-मण्ड, धूर्त, राक्षस, क्योंकि जरीतुमरी 'भादि वचन धूर्त, मण्ड, राक्षम पण्डितोंके वचन ही हैं। इस तरह जब जीवकी ही सिद्धि. . नहीं होती तो फिर अजीव किस तरह सिद्ध होगा, क्योंकि जो नीव नहीं उसे अनीव कहते हैं । अनीव जीवका प्रतिषेध रूप है, . प्रतिषेध हमेशह. विधि पूर्वक होता है । जब कि मुख्य नीव भनीव ये पदार्थ ही सिद्ध नहीं होते तो जीव पुद्गलकी गति स्थितिक सहायक धर्म, अधर्म द्रव्य, अवगाह देनेवाला आकाश, तथा इनको वर्तानवाला काल ये कैसे सिद्ध हो सकते हैं । और जीव अजीवके बन्ध निर्जरा मोक्षादि कैसे सिद्ध होंगे। इस तरह जीव, धर्म, अधर्म, आकाशादि किसीके सिद्ध न होनेसे चार्वा कमत सिद्ध हो गया और उसीका. सब लोगोंको आश्रय लेना चाहिये । सांख्य मतानुयायी जीवको . मान करके मी कटस्य नित्य मानते हैं । मीमांक. अनिश्चितकर मानते हैं, नैयायिक . जीवको जड़ रूप मानते हैं, और बुद्धानुयायी ज्ञान सन्तान रूप ही मानते हैं। इत्यादि . सिद्धांत माननेवाले परमार्थतः सत्य सिद्धांतसे बहुत दूर पड़े हुए हैं। .... '. प्रथम चार्वाक मतका खण्डन किया जाता है-पृथ्वी, अप, वायु, और अग्निसे यदि जीव बनता होता तो पृथ्वी आदिके गुण उसमें अवश्य पाये जाने चाहिए क्योंकि कारणके धर्म कार्यमें अवश्य आया करते हैं, यदि ऐसा न हो तो मिष्ट गुणके द्वारा बनी . हुई चीज़ कहुई मी लगनी चाहिये । और विपके द्वारा मनुष्यको नशा मी नहीं आना पाहिये इत्यादि तथा ऐसा होनेसे पदार्थ व्यवस्थाका व्याघात हो जायगा । अतः कार्य में कारणके धर्म अवश्य आना चाहिये। . . .... ... ... ... जबकि पृथ्वीका गन्धवत्व काठिन्य गुणात्मकत्व आदि गुणं, नलका द्रव्यत्वादि । वायुका ईरणादि, अग्निका दाहकत्वादि गुण चैतन्यमें पाये ही नहीं आते तो कमी भी यह बात मान्य नहीं हो सकती कि जीव चार भूतोंसे बना है। अन्यच्च जैसे कि कारण धर्म कार्यमें अवश्य रहने चाहिये उसी तरह कार्यके धर्म भी उसके कारण मैं अवश्य रहने चाहिये । नहीं तो यह कार्य इन्हीं कारणोंका है इसका निश्चय कैसे हो सकेगा.! . . ... . चैतन्यका 'बी आदिमें कोई धर्म मी नहीं पाया जाता। मनुष्यको जो ज्ञान होता 1 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. सिद्ध ही है, कि ज्ञान अपने प्रकाशनके लिए अपने से भिन्न कारणान्तरों की अपेक्षासे रहित है । प्रत्यक्ष अर्थका गुण होते हुए अदृष्टका अनुयायिकरण होनेसे प्रदीपके समान जैसे दीप अपने भापको तथा दूसरे पदार्थोको प्रकाशित करता है। . . दूसरे यदि ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे वेद्य-मानोगे तो दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञानसे वेध मान. ना पड़ेगा । ज्ञान होने से इसी प्रकार तृतीयादि ज्ञान :अय अन्य ज्ञानोंके जानने में ही लगे ___ रहेंगे तो प्रचत पदार्थके जाननेसे वञ्चित ही रह जायंगे । - तृतीय दोष यह है कि परोक्षज्ञानके द्वारा पदार्थों का प्रकाशन भी नहीं हो सकता। यदि परोक्षज्ञानके द्वारा मी पदार्थों का प्रकाशन हुभा करे तो दूसरे व्यक्तिका ज्ञान मी हमारे लिए परोक्ष है अतः उस ज्ञानसे मी पदार्थोश ज्ञान होना चाहिये । अपने परोक्ष ज्ञानसे पदार्थोंका प्रकाशन होता क्योंकि वह ज्ञान समजाय सम्बन्धसे '. अपनी आत्मामें रहता है और दुसरेके परोक्ष ज्ञानसे पदार्थ प्रकाशन नहीं, होसकता है. क्योंकि वह ज्ञान अपनी आत्मामें नहीं रहता। यदि ऐमा कहेंगे तो यह आपका कहना मी विचारशून्य है क्योंकि आर ज्ञानको आत्मासे सर्वथा मिन्न मानते हैं। ____चार्वाक, तो उक्त कथन कदापि कर ही नहीं सकता क्योंकि वे आत्मा समवाय: मादि कुछ नहीं मानते हैं सिवाय पृथ्वी आदि । भूतोंको । ' उक्त सर्व कथनका सार यह है ज्ञान स्वसंवेदन मानना चाहिये और उस स्वस· वेदन ज्ञानसे नीवकी सिद्धि हो ही जाएगी। - और मी देखा जाता है कि उसी समयको उत्पन्न बालक विना किसीके उपदेशः से अपनी माताके स्तनसे दूध पी निकलता है । बाल के दूध पीने की अभिलाषा विता प्रत्यभिज्ञानके हो नहीं सकती और प्रत्यमिज्ञान विना स्मरणके नहीं होता, अतः पूर्वानुभव अवश्य ही मानना चाहिये। कोई२ भूत आदि हो जाते वे किसी न किसी आदमीके. • ऊपर आकर अवश्य होते हैं कि मैं पहिले वह था " अब वहां ई आदि तपा: कोई कोई बच्चा वृद्ध युवा पुरुष मी अपने पूर्व मश्की सब बातें बता दिया करता है। यदि ४ भूतसे. जीव बने होते तो शरीरके नष्ट होनेके साथ साथ ही नीव भी नष्ट हो जाता लेकिन दूसरे भद तक उसका सम्बन्ध जाता है तो ज्ञात होता है कि चार भूनसे जीव नहीं बना है। उक्तञ्च-.. तदहजनेस्तनेहातो रक्षोदृष्टेः भवस्मृतेः ।... ... भूतानन्वयानसिडः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ उसी दिनके उत्पन्न हुएबालकको स्तनमें स्वतःइच्छा होनेसे, राक्षक्ष रूप में किसीको देखनेसे, पूर्व भवको स्मृति होनेसे और पञ्चभूतों का अन्वयपन होने के कारण श्रीव अनादिसिद्ध मानना ही चाहिये। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च बहुतसे अनुमान जीवके साधक हैं । जैसे चक्षु आदि इन्दियां कर्ता नो जीव . उसके द्वारा योजित होकर काम करती हैं, क्योंकि वे (चक्षु आदि) करण होनेसें वसुंग के समान यांनी वसूम जैसे पढ़ईसे योजित होकर काम करता है उसी प्रकार इन्द्रियां मी "जीवके द्वारा प्रेरित हो कर कार्यमें लगती हैं। ___सांख्य जीवको माते हैं परन्तु कूटस्थ नित्य मानते हैं । यह उनका मानना मी , युक्तिवाधित है। क्योंकि जीवके सुख दुःखादिरूप पर्यायोंसे सदा विकृति होती रहती है। कमी सुख है तो कम दुःख, कमी ज्ञानता है तो कमी मनानता । जब नीवपर्यायोंसे विकृत होता रहता है तो उसे नित्य कैसे कहते हैं। . . , . (शा) आपने सुख दुःखादिरून पर्यायोंसे नीवको विकृन सिद्ध करके नित्यताको खंडन किया है सो ठीक नहीं है क्योंकि सुख दुःख आदि सब पर्याय नीवसे भिन्न रहती हैं। यदि अभि नमानोगे तो मोक्षक जीवको भी सुखी व दुःखी मानना चाहिये।। यह मी विना विचारे मुखमस्तीति वक्तव्य का अनुकरण करना है। क्योंकि यदि जीवसे सुखदुःख आदि भिन्न मानेंगे तो यह इस जीवके मुखदुःख हैं यह कैसे माना जा . सकता है । और नित्य अनुपकारी होता है अतः वहां सुखादिका समवाय मी नहीं मानसकते। .. - और यदि जीवका उपकार भी मानेंगे तो आप उसे जीवसे मिन्न मानेगे तो फिर वह प्रश्न जो कि सुखशावके प्रथक माननेपर उठा था उठेगा। और यदि भभिन्न उपकार मानेगे तो फिर विकृत होनेसे नित्यता नहीं बनसकी और नो, आपने मुक्त जीवको भी सुखी वा दुःखी होने का प्रसंग दिया था सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सुखदुःख अ.दि जीवसे भभिन्न हैं इसका जो आपने अर्थ निकाला सो आपकी बुद्धिकी हारी है । अमिन्न वह- . नेसे आपने सर्वथा अमिन्नका पक्ष ग्रहण करलिया। • अब हम आपसे पूछते हैं कि सुखदुःखसे आप क्या लेते हैं ? शारीरिक सुख या आत्मीय सुख जिनको कि दुसरे शब्दों में ऐहिक और पारलौकिक सुख. मी कह सक्ते हैं। यदि सुखदुःखसे शरीरके द्वारा होनेवाले सुखदुःख देते हैं जो कि आत्माको शरीरकी ब. स्थामें ही अनुभून होते हैं तो कारणके विनाश होनेपर कार्य विनष्ट होजाग है अतः शरीरसे होनेवाला मुखदुःख मी अपने कारण साता और अताताके अलग होनेपर अलग हो जायगा । अतः मोक्षमें रहनेवाले जीवको सुखी या दुःखीपनेका प्रसंग नहीं मासक्ता । माता वेदनीयका प्रमच गुणतक बन्ध होता है तथा साताका वध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। माता साता दोनों का ही १४ वें के कुछ भागोंतक उदय रहता है, अन्तके मागोंमें साता असातामें से एकका मी उदय नहीं रहता तथा साता भसाता दोनों का सत्र Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ (२६) मी १४. वे गुणस्धान्तक रहता है । मन्तके विचरममें सातको म्युञ्छिति हो जाती है और अत :मयमें साताकी मी सान्य व्युच्छित्ति हो जानी है। - मुक्त जीव जब गुणप्यानातीत यानी गुणास्थानसे रहित हैं तो जब कि साता माताको बन्ध, उदय, रुसका मात्र गुणायनों में ही पाया जाता है, सिद्ध अवस्था में किसी भी कर्म का बयादि कुछ भी नहीं पाया जाता तो वहां: सुखदुःखकी कल्पना किसीतरह सी नहीं हो सकती। . ... . .. ........ . . अब यदि आप द्वितीय पक्ष आरमीय सुखका लेंगे तो निरपेक्ष दृष्टिसे आत्मीय सुखका कारण ज्ञान है वह ज्ञान मुक्त अवस्था में सर्वथा निगवरण हो जाता है अनः वहां अनन्त : सुख हो जाता है । दुःखका कोई कारण वहां उपलब्ध नहीं है जिससे कि सुखकी तरह दुःख भी माना जाय । उक्त युक्ति सुख दुःखका मोक्ष मी प्रसंग देकर अपना मनोरथ : सिद्ध नहीं कर सक्ते अतः जीको सर्वथा नित्य मान्ना सर्वथा श्रम मात्र है। सांख्य लोग भी जीव मानते हैं लेकिन अकिंचिकर मानते हैं यह उनका मानना भी युक्तिसमत नहीं है क्योंकि संसारी अवस्था में नीव कर्मका बन्ध करता ही है और नत्र कर्मका बन्ध करता है तो उसका फल भी अनेक प्रकार से भोगता ही है तथा सारूप जो . प्रकृतिको कर्ता और पुरुषको मोना मानता है वह पहिले दिखाया जा चुका है। ... अतः सांख्य सिद्धान्त मी मान्य नहीं कहा जा सका। .. अब कोई नो नोएको सन्तानको ही जीव मानते हैं उन्हे विचारना चाहिये कि. संतान विना सन्तानों के नहीं रहती अनः सन्तानी सदश्य मानना चाहिये । सन्तानीसे. सन्तानको प्रथक् मानेंगे तो बहुतसे दोष आवेगे। आत्माको जो व्यापक मानते हैं उनकाः • मत मी परीक्षाप्तह नहीं है। .' (शङ्काकार) व्यापक आत्माको सिद्ध करने के लिए यह अनुमान जन निर्दोष है. तो आत्माको न्यापक क्यों नहीं. मानना चाहिये । आत्मा व्यापक है.। द्रव्य होते हुए अमूर्त: होनेसे, जो जो द्रव्य होते हुए अमृत है. वह व्यापक है जैसे आकाश द्रव्य होनेपर अमूर्त : . आत्मा है अतः व्यापक मानना चाहिये, यह अनुमान भी ठीक नहीं है क्योंकि अमृत होनेसे यहाँपर अमृतका क्या अर्थ है। रूपादि नितमें हो उसे मूर्त, और तद्विरुद्ध अमूर्त । यदि यह समृका अर्थ ३रोंगे तो मनमें यी हेतु चंचा जायगा क्योंकि मन द्रव्य होकर रूपादि रहित है ही अतः मनको भी: व्यापकता मानना चाहिये अतः उक्त हेतु अनेका तिक होनेसे अदाणी रही है। यदि आप सब जगह न रहना सूर्त और सन जगह रहना । .. अमुर्त मानते हैं तो हेतु मी व्यापकतार्थक है. और सोध्य मी. व्यापकतार्यक है. अंतर साध्यान होनेसे पुनः मी हेत. मान्य नहीं कहा जा सकता. व्यापकताका बहुत खइन् । ...:.:. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८). अनादि सिद्ध है. तनुकरण मुवनादिक बनाने का निमित्त होनेसे, तनुकरण मुवनादि ईश्वर हेतुक हैं कार्य होनेसे, इस अनुमान मालासे वे. आत्माको सदा मुक्त सिद्ध करते हैं लेकिन जिप्त तरह मकानकी कमजोर नीव खुद ही नहीं गिरती है, बल्कि और अपने उपरके मकानको भी लेकर गिरती है. उसी तरह कार्यत्व हेतु असिद्ध होकर आत्माके कर्मरहितत्वका पतन करा देता है क्योंकि कार्यत्वका आपको क्या अर्थ अमीष्ट । १ स्वकारण सत्ता समवाय, २ अभूत्वामावित्व, ३ भक्रियादर्शिनोऽपिकृतबुद्धयुत्पादकत्व, ४ कारणान्तरानुविधायिन्य, इन चार विकल्पोंके और मी उत्तरविकल्प बहुतसे होते हैं। विशतया प्रमेयकमलमार्तण्डमें खण्डन किया है। यहां. लेख वृद्धिके भय से नहीं दिखा जाता है अतः प्रामाको अकर्मकतांकी सिद्धि नहीं होती। सांरूप मुक्तात्माको मुख रहित मानते हैं । पहिले इसका खंडन किया जा चुका है इसीलिए आचार्यने शुद्ध जीवके लक्षण प्रतिपादन करते समय शीतीभृत विशेषण दिया है। मस्करी मुक्त जीवका पुनः . आगमन मानते. इसीका निषेध करने के लिए आचार्यने निरञ्जन विशेषण दिया है । बुद्धः व योगानुमती आत्मको क्षणिक तथा निर्गुग मानता है इसीको निषेध करने के लिए आचार्य, नित्य विशेषण दिया है । ईश्वरवादी ईश्वरको कर्तृत्व मानते हैं इसके निषेत्र के लिए कृतकृत्य विशेषण दिया है। मण्डली : मतदाले भीवक्री हमेशह ऊर्ध्वगति ही मानते हैं इसके निषेवके लिए माचार्यने कोकान निवासी ऐसा विशेषण दिया है। . . ___ इस उक्त प्रकरणमें जीवकी सिद्धि परमतानुयायियोंके असत्य कसित कक्षणके खण्डन पूर्वक की गई है और आवश्यकता. मी बतलाई है। ... . M पुद्गलकी आवश्यकता और सिद्धिः भर अजीवका वर्णन क्रमप्राप्त हैं अतः उसका वर्णन करना चाहिये । . .. मजीवके पांच भेद हैं-१ पद्छ, २. धर्म, ३ अधर्म, आकाश, ९. काल | अब प्रत्येकका वर्णन कहते हैं। इन पांच भेदोंका. प्रथक् प्रयक, वर्णन करना ही अजीवका वर्णन होगा क्योंकि अवयवके वर्णनसे अवयवीका वर्णन हो जाता है. असे तना, शाखा, टहनी पत्ता आदि वृक्ष सम्बन्धी अवयों का वर्णन करना ही वृक्षका वर्णन है। ::.. पुदर देव्यका लक्षणः “स्पर्शरसगत्वर्णवन्तः पद्गलाः" ऐसा किया है। जो स्पर्श रस, गन्ध, वर्णसे सहित हो उसे पद्नच कहते हैं। .... . पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गलाः यह पुदन शनकी निरुक्ति है। सादिकी निरुक्तिं निम्न प्रकार है । स्पृश्यते स्पर्शः, यानी जो छा जाय. उसी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार स्स्यते रसनमात्रं वा रसः, गन्ध्यते गन्मात्रं वा गन्धा, वय॑ते वर्णनमात्र वा वर्णः"की निरुक्तियां हैं। . प्रगल द्रव्य अनन्तगुण समुह स्वरूर है। यहां भी जीव द्रव्यकी तरहे उत्पाद व्यय श्रोन्यकी सिद्धि होनेसे द्रव्यका लक्षण अच्छी तरह घटित होता है। जीव तथा दल द्रव्यका अनादिकालसे आपसमें सम्बन्ध होता चला आ रहा है जैसे कि सुवर्ण जो कि खानसे तुरन्त निकाला जाता है, किदिमा कालिमा अंतरङ्ग मलसे लिप्त होता है और अग्नि आदिक संसर्गसे वह मैल दूर कर दिया जाता है उसी प्रकार जब इस जीवके पूर्वोपात्त कर्मोंकी निरा होने लगती है और संवरके बलसे आनेवाले कर्मों का आना रुक जाता है तब सम्पूर्ण कर्मका क्षय होमानेसे जीवकी मुक्ति होनाती है तो संसारी अवस्थामें जीवकी पूर्वपर्यायका विनाश होनेसे व्यय, नवीन पर्यायके उत्पन्न होने उत्पाद और जीवत्र सदा ही रहता है अतः भोव्य, ये तीनों ही गुण जीव द्रव्यमें मच्छी ताहसे घटित हो जाता है अतः द्रश्यका लक्षण जीव द्रव्यमें सिद्ध होता है। (शङ्काकार) जनःकि कोके अमाव होनेसे मुक्त श्रीवोंके शरीर रहता हो नहीं है तर फिर मुक्त जीवमें उत्पादादि कसे होंगे। ___ यह भी ठीक कहीं है क्योंकि मुक्त जीवोंके अगुरुन्धु गुणके द्वारा षट् धान पतित हानि वृद्धिसे उत्पादादि बन जायेंगे। संसारी जीवोंमें इस तरह मी उत्पाद व्यय प्रौव्य बन सक्ते हैं। प्रगलों में पूर्वपर्यायके विनाशसे और उत्तर पर्यायके प्रादुर्भावसे ऊगद व्यय बन जाते हैं। कभी मी पदलका सर्वथा विनाश नहीं होता अतः धौव्यता मी रहती ही है। . दूसरे जो पहलमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुण पाये जाते हैं वे सर्वथा एकसे नहीं रहते, पर्श कमी कोमलता, कभी कठिनता, उष्णता, शीतता, रघुना, गुरुना, स्निग्धता, रूक्षता .इन आठ तरहसे परिणत होता रहता है। इसमें चिरपरा, 'डुआ, खट्टा, मीठा, कषायला ये. पांन भेद हैं तथा गन्धमें दुन्धि सुगन्ध इस तरह दो। वर्गमें नोल, पीत, श्वेन, श्याम, डाल ये पांच भेद हैं। इन वीस भेदोंके सिवाय विस्तारसे . उत्तर भेद संख्यात' असंख्यात अनन्त भी हो सकते हैं। (शंका) ना कि लोक असंख्यातप्रदेशी है तो उसमें अनन्त प्रदेशवाला पद्न स्कंध कसे भा सस्ता है। . __ • ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि एक एक आकाशके प्रदेशमें मी सुक्ष्म परिमाणसे परिणत अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध आ सकता है ऐमा आगममें कहा है। पुद्गल द्रव्यकी शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, मेद, तप, छाया, 'आतप, उयोत ये १० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य पर्णप हैं। मापात्मक और 'अमाषात्मक इस तरह शब्दादो तरहके होते हैं। भाषात्मक' भी दो मेद वाला १ अक्षरात्मक दुसरा अनक्षरात्मका अक्षरात्मक प्रकृत संस्कृत देशभापा मादि अनेक मेद हैं । अनसरात्मक मापा द्वीन्द्रियादिकोंमें और महन्त देवकी दिव्यध्वनिमें पाई जाती है। मापात्मकके समी भेद परके प्रयोगसे होते है अतः प्रायोगिक है। अभाषात्मक शब्द दो, प्रकार के होते हैं। एक प्रायोगिक दूनरे स्वाभाविक । मेवादिककी अनि स्वभाविक होती है और प्रायोगिक १ तत २ वितत ३ वन ४ शौपिर ये चार भेद हैं। विस्तृत चर्मक शब्दकोत्त, सितार, सारङ्गी आदिकी आवाजको वितत, घंश आदिकी ध्वनिको घन, और हवासे नो शंख आदिककी आवाज़ होती है उसे शौपिर कहते हैं। ___बन्ध दो प्रकारका है-एक स्वाभाविक दूभरा प्रायोगिक । सुक्ष्मवा मी दो तरहकी होती है- एक अनन्त दुमरी आपेक्षिक । स्थू बताके भी यही दो भेद संपझना । सल्यान (अ कृति) नियत स्वरूप, भनियन स्वरूपसे दो मे वाला है । भेद प्रथक भावको कहते हैं . और वह उस्करपूर्णादि भेरसे ६ प्रकारका है। तम अन्धकारको करते हैं । क्षाया आवरणको : कहते। जिसकी उष्ण प्रमा हो उसे आता कहते हैं और यह सूर्य या अग्निसे उत्पन्न होता है। जिसकी प्रमा उष्म नहीं होती है उसे उद्यत कहते हैं, यह चन्द्रसे उत्पन्न होती है। कहा भी है कि-" आदायो होदि उपह सहियपहा । , "उण्हूण वहाहु उज्जो ओ" मर्थात उष्णभा सहित सातप और उष्णप्रमा रहित उद्योत होता है, ये पुनरके पुलके इस प्रकारले मी , भेद किये मासक्ते हैं। मूमें पुद्गल दो प्रकारको है-एक स्कंध दूसरा अणु । निमें उठाना रखना आदि क्रियाओं का व्यवहार हो और स्थूल हो उसे स्कंध कहते। . दुशणुक आदिमें दिके वशसे रक्षण विना घटित होते हुए मी स्वता मानी गई है। जो सिर्फ एक प्रशवाचा हो उसे अणु कहते हैं.। यह अणु अस्मदादि प्रत्यक्षगोचर नहीं है। सर्वज्ञ भगवान ही इसे जानते हैं। प्रत्येक अणु छ कोण वाला है और भाकाशके एक प्रदेश में रहनेवाला है। इसमें अत्यन्त सूक्ष्मता होनेसे आदि चत मध्यकी व्यवस्था नहीं की जा सकती क्योंकि नो ही हमका आदि है वही मध्य और अन्त है जैसे कि किसी के एक पुत्र हो तो उससे पूछा जाय कि तुम्हारा सबसे बड़ा पुत्र कौन है तो वह उसे हो , पड़ा छोड़ और मध्यम पुत्र बतलावेगा । पृद्गर द्रव्यकी सिद्धि के लिए सर्वतः प्रपप यह उचित है कि . 'अणकी सिद्धि र ली जाय । अणु की सिद्धि हो जाने पर फिर बड़ासे. बड़ा मो.न्ध । सिद्ध किया मा. साता है । मणु यद्यपि प्रत्यक्षसे नहीं दिखाई देता तथापि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..." सशे ये दो गुण मानते हैं और लक्षण उष्णस्पर्शमत्तेनऐसा मानते हैं । वायुमै रूप भी नहीं मानते सके समर्श ही गुण मानते है और पा रहित पशवान' वायु ऐपा. वायुका लक्षण कहते हैं । यह इनका माननी अविवारित ही है क्योंकि पृथ्वी आदि अलग पन्द्रकसे मिन्न पदार्थ नहीं है। हम देखते हैं कि पृथ्वी रूप जो काट हैवह जलकर अग्नि रूप. हो. जाता है तथा बारूद दियासलाई आदिमें अग्निका उष्ण स्पर्शदत् लक्षण नहीं भी हैं तथापि ये जलकर अग्नि रूप ही हो जाते हैं और अग्नि चल चुकने के बादमें फिर पृथ्वी रूप हो जाती है। स्वाति नामक नक्षत्र विशेषमें वर्षा होते समय यदि जल विन्दु सीपमें पड़ जाय तो वही पार्थिव रूप मोती बन जाती है। जिस आहार जातको हम ग्रहण करते हैं वहीं : पित्तरूप (उदाग्नि) परिणत हो जाती हैं. अतः पृथ्वी आदि स्वतंत्र पदार्थ नहीं माना: ...सकते तथा जो अपने पृथ्वीमें स्पादि चारों ही, जलमें गन्ध विना तीन, अनिमें रूपस्पर्श और वायुमें केवल स्पर्श माना था सो. यह मी तुम्हारा मानना न्याय नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिनमें परम्पर, अविनामाव सम्बन्ध है वे एक दूसरे के विना कमी नहीं रह सक्ते, इतका . अविनापराव किस तरहसे हैं और पृथ्वी आदिका जीव पद्गादि किस किसमें अन्तभाव होता है यह हम पदायाँको व्यवस्था नहीं निर्णय की है। वहाँ लिखे आये हैं अतः यहाँ पुनरुक्ति, लेख वृद्धि, समयाभाव, और निरर्थक होनेसे नहीं लिखते हैं । बाशा है कि इस प्रकरणके जिज्ञासु जहाँ यह विषय लिखा गया है उन पत्रों में देखनेका कष्ट उठावेंगे। परमाणुकी तरह स्कन्धौ पूर्व अपर अवस्था विनाश उत्पाद होने द्रव्यंका लक्षण अच्छी तरह घटित हो जाता है । प्रौव्यता इनके सर्वथा नाश न होने सदा बनी ही रहती है। पृथ्वी आदि पदलत्यकी अपेक्षा आदि रहित हैं । उत्पत्तिको अपेक्षा तो अनादि नहीं कह सक्ते क्योंकि उत्पत्तिकाला साद ही होती, इस तरह पुल द्रव्यको मावश्यकता : • और सिद्धिका विषय समाप्त किया । . ......... . सारांश-प्रदल द्रव्य यदि नहीं होगी तो संसारकी प्राणभूत पदार्थ व्यवस्था नहीं बन सक्ते अतः पद्धल द्रव्पकी आवश्यकता है। परमाणुके सिद्ध होनेसे पद्न द्रव्यकी .. सिद्धि है ही। अतः जीवद्रव्यवत पद द्रव्यको भी मानना चाहिये। .. . .. ....... . . ... . Sh.." - - . धर्म अधर्मका निरूपण तथा आवश्यक्ता । :: उक्त कयनमें पुद्गलकी अच्छी तरहसे सिद्धि की गई है। यहाँ धर्म अधर्म के विषय में, - लिखते हैं. प्रथम धर्मद्रव्यका लक्षण श्री कुन्दकुंदाचार्यने इस प्रकार किया है धमाथि कायमरस अवण्णगंध असहमण्कास। लोगोगाद पुद विदुलमसंखादि य पदेस ॥ १ ॥ H , ... '.. .. : ".. .. " Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुरुगलघुरोहिं सपा ते हि अणते हि परिणदं णिच।। गदिकिरिया जुत्ताण कारणभू संयमकन्न ॥ २ ॥ उदयं जद मच्छाणं गमणागहगर हवदिलोये । तहजीव पुरंगलाणं धम्म दव्यं वियांणे हि ॥३॥ .: मावार्थ-धर्मास्तिकाय स्पर्श रसं गन्ध वर्ण और शब्दो रहित हैं, अतएव अमूर्त. पाच लोकशाशमें पा है, मजण्ड विस्तृन और अमरुगात प्रवेशी हैं, पम्मान " पतित वृद्धिहानि द्वारा भगुरुज्य गुगके कारण अविभाग प्रतिच्छेदोंकी हीनाधिकतासे उमाद व्यर महर है । स्वासे कदापि च्युन न होने के कारण नित्य है । गति विक्रिया युक्त भी पदलों के गमनमें महायक हैं ! आप किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है अतः भकार्य । जन मयादिकोंक गमनमें स्वयं न मलवार जमे महकारी है उसी प्रकार जीव पद्गलोके . साप स्वयं न गमन करता हुषा उनके ( जीव दलके ) गगनमें सहकारी . मात्र है। यहां ६. यह लक्ष्य रखना चाहिये कि धर्म अधर्म शब्द का उपयोग हष्ट स्वयमें भी आता है। लोकमें ग्य पापको भी धर्म अधर्म कहते हैं जिसमें कि घातीति धर्मः न धर्मः असर ये व्युरित्तियां है। ये धर्म अधर्म शब्द गुणवाचक है लेकिन इस कथनगत धर्म मर्म शब्द दायवाची हैं। धर्म पका स्वरूप संक्षेपसे यह है कि नीव प्रगलोंको गमनमें महकारी मात्र हो वह धर्म, और जो उहराने में जीव पृट्टालोंको सहकारी हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । मिम साह पवन, पताका उड़ाता है पायकी नानको चलाती है. या मोटर मनुष्यको स्थानान्तरपर पहुंचाती है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य नीर पुदलोके गमनमें सहकारी नहीं है क्योंकि । निक याणि । इस सूत्रसे धर्मादि द्रयों को निष्क्रिय पाया है। जो स्वयं क्रियायुक्त, नहीं, यह : मरीकी क्रिया नहीं करा सक्ती किन्तु धर्म द्रय उदासीन निमित्त कारण है। इसी तरह .. अधर्म द्रध्यकी भारतमी समझना चाहिये। अधर्मको पी जीव पदोंकी स्थिति में उसासीन : निमित्त कारणता है। ... .: शंका- किधर्म अधर्म द्रव्य और आक्षाशा क्रिया अहित हैं तो उनगद नही होना चाहिये, उत्पादनहीं होगा तो व्यय यी नहीं होगा क्योंक्ति जो २. उत्पादपाले.. है वही व्ययवाले देखे गये हैं। घटादिक नो व्ययवाद. नहीं हैं ये उत्गदेवाले भी नहीं हैं. से कि आमा । ... .... अन्यध, उत्पादन होनी ही व्यय के अभाव का सुक हैं क्योंकि । कार्योत्पादः क्षय हेतु कार्यका उत्पाद है, वही क्षणका कारण है । उत्पाद व्यय न होनेसे इनमें : लक्षण घटित नहीं हो सकता। यह रहना भी युक्त संगत नहीं है। यद्यपि क्रिया निमित्त नित्पाद यहीवर नहीं भी । तपापि वपर निर्मित उत्पाद यशापर अच्छी तरह घटित हो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जाता है । एवं निमित्त उत्पाद व्मय अगुरु उघुः पूर्व ं षड्रूप गुण हानिसे होता है पर निमित्त उत्पाद व्यय अश्वादिको गति स्थिति अवगाह देनेसे होता है। धर्म अधर्मका सा उनके कार्य द्वारा किया जाता है क्योंकि कार्यके में कारणका सद्भाव अवश्यंभावी है जैसे किं घूमके सद्भावमै अनिका होना अवश्य है। जब कि जीप पलों में गति स्थिति देखते हैं तो उस गति स्थिति का कोई न कोई कारण अवश्य होगा और वह धर्म ही है यानी गतिका कारण धर्म और स्थितिका कारण अधर्म है । कारण अभी शंका- न कि गत स्थितिका कारण पृथ्वी भी हो सक्ती हैं तो अदृष्य वर्मा धर्मकी कल्पना नहीं करना चाहिये। ऐसा भी नहीं कहलके, क्योंकि पृथ्वी जळ आदि आश्रय रूप है अतः गति स्थिति हेतुकं विशेष कारण धर्म अधर्म मानना ही चाहिये . शंका - आकाश द्रव्य सर्व व्यापक है अतः काश ही गति स्थिति में साधारण * निमित्त कारण हो सक्ता हैं । धर्म अधर्म मानेकी पुनरपि भवश्यक्ता नहीं है, ऐसा नहीं कह सके क्योंकि आकाशका अनगाहन उपकार है अन्यका याना धर्मका उपगृह अन्य 'यानी आकाशका नहीं हो सक्ता अन्यथा किसी मी पदार्थकी सुव्यवस्थिति न हो सकेगी । अन्यच्च यदि आकाशको गति हेतु का कारण मानोगे, आकाश अलोकाकाशमें मी है । वहां पर भी इसको गति स्थिति हेतु ग प्राप्त होकर जीव पृढलोंका गमन हों, जायेगा तथा च लोकालोकका दिमाग नहीं हो सकेगा । अतः मानना चाहिये कि धर्म अधर्म द्रव्य हैं । लोकालोक विभागकी धर्म अधर्मके विना उत्पत्ति न होनेसे यहाँ लोकालोक विभाग रूप हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि लोसलोक विम गका अनुपावक हेत्वन्तर उपस्थित है । लोक अछोकका विभाग है क्योंकि लोक मान्त है और अलोकाकाश "अनन्त रूप कोई ऐसा वहें कि लो थ तरूप नहीं है सो मी ठीक नहीं है क्योंकि लोक सान्तः “सान्त विशेष होने से मकानादिककी तरह 1 1 1 इस तरह लोककी सान्वता सिद्ध हुई। सारांश यह है कि धर्म धर्मकी सिद्धिके लिये लोकालोक विभागात्यय नुपपत्तिह्ना हेतु है । लोकालोक विभागके लोकस्य सान्तता और लोककी सान्तता सिद्ध करने के लिये स्वता विशिष्ठत्व हेतु है । स्वता विशिष्टत्व प्रत्यक्षागम्य ही है क्योंकि जो २ स्वता विशेष विशिष्ट हैं वे ९ सान्त हैं और मो सान्त हैं वे २ विभग युक्त हैं । जबकि विभाग सिद्ध हो गया तो इस अनुमान से धम है। लोलोकको अन्यथा ( धर्म अधमके अपानमें उत्पत्ति न होनेसे ) धर्म अधमकी सिद्धि हो ही जाती है । अतः धर्म अधर्मका सद्भाव स्वीकार करना ही चाहिये । आकाश द्रव्यको आवश्यक्ता और सिद्धि: । आकाशका लक्षण जोवादिक तत्वोंको अवगाहन देना है अर्थात् जो ण्डित और सबको अवकाश देनेकी सामथ्य वाला है उसे भाकाश Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्ते धर्माधर्मद्रयाण्यमासौ छोकः : यांनी जिनमें जीवादि पदार्थ देखें नांप उसे लोक कहते नहीं है वहां के आकाशको अलोकाकाश कहते हैं। 1 हैं। महांपर शंका- जिस तरह आप धर्माधमनीवादि द्रव्यका आधार आकाश मानते हैं तो आकाशका मी आधारान्ता ( अन्य आधार ) मानना चाहिये या आकाश के सजीवादिकको मीस प्रतिष्ठित मानिये, ऐसी शध नहीं कर सक्ते । क्योंकि आकाशः सर्वतो अनन्त है अतः उसको कोई आधारान्तर कल्पित नहीं किया जा सक्ता । + 3 शंका- आधार घेगमात्र पूर्व उत्तर धर्मियोंका होता है तो जन धर्मादिका आका - शर्मे माधार मधेय मात्र है तो पूर्वोत्तर भाव भी गया जाना चाहिये और ऐसा मानने से ' योंकी अनादिना खंड़न होता हैं. ऐप शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि पूर्वोत्तर officer ही आपार माय पाव होना, यह कोई नियम नहीं है | भल्पामै ज्ञान दर्शनादि या में रूप रादिक इन समममवालों में मी आवार आधेय भाव देखा जाता है। नाकाशमैः" रुक्षणं". " गुणपर्यं ६ यं " आदि तीनों ही पके लक्षण सम्यक् . 'रीत्या संघटित होते हैं और वह कैसे सो अंगाडी दिखायेंगे । :46 * शंका - आकाशम जो अंशाह देव लक्षण किया सो भक्तिप्राप्तिदोर दुषित है क्योंकि श्यावच्छेदकावच्छ प्रतियोगिताकमेदसामानाधि *1 ". करणं अतिव्याप्तिः " जिस धर्मसे सहित लक्ष्य होता हैं, उस aint camaraedes नापसे कहते हैं और attaावच्छेदकसे अवच्छिन्न है उसे लक्ष्य कहते हैं। यहां रक्ष्तावच्छेदक आकाशत्व है तथा लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन 'unta है और Friarsः सप्रतियोगिः इस नियमके अनुसार आकाशका प्रतियोगि ( प्रतिपक्षी ) मकान धर्म अधर्मादि भी जीव पहलोंको अवगाह देते हैं फिर आकाश हीका यह रक्षण कैसे हो सकता । " उक्त शक नहीं करनी नाहिये । प्रथम तो आपने जो अति व्याप्तिका लक्षण बताया. वही ठीक नहीं है क्योंकि मानकीजिए आंध्र (घोड़े का हमने सास्त्रादिमत्व यह लक्षण किया तो आपका उक्त अतिशतका लक्षण यहां घट ही जाता है यानी रक्ष्यतावच्छेदका हुआ उसका जो प्रतियोगी गौ उसमें सानादिमन्त्र रह गया लेकिन अवका सानामि क्षण करना यह असंभव दोष कहा है क्योंकि "दक्ष्यतावच्छेदक व्यापकी भूतामाद प्रतियोगित्वं" ऐसा असम्भवका दक्षण किया है। अश्व का सास्त्रादिमान् लक्षण करने परक्ष्यतावच्छेदक . अधःत्र व्यापकीभूत (यांनी अश्धाव जिनमें रहे) हुए रूप प्रतियोगित्य हो सो सास्त्रादिमत्यका अभाव है अतः सत्र संघ, उनमें जिस" का साथ मात्र लक्षण है वह जिस धर्मको लेकर अतिव्याप्ति दोषसे भतिव्याप्त उसी " * Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मका अवलम्बन करके असंभव दोपसे भी दुष्ट है अतः आपको अपने उक्त मति माप्तिके लक्षणमे रक्ष्यतावच्छेदक. सामानाधिकरण्ये सति इतना विशेषण मौर मिलाना चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेसे अति व्याप्ति और असम्मत्रमें ऐक्य नहीं भातक्ता । उक्त उदाहरण में ही जिसमें कि अश्वका सानादिमत्व लक्षण कहा निदर्शित अति व्याप्तिका लक्षण बनालेने से लक्षण ही नहीं जाता क्योंकि लक्ष्यतावच्छेदकका समानाधिकरण जो लक्ष्य उसमें रह कर फिर जो लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्नं प्रतियोगिरें जो लक्षण रहना है उसे. अतिव्याप्ति कहते हैं। लक्ष्यतावच्छेदक अश्वस्य इमका सानाधिकरणी को अश्व उसमें सानादिमत्व रहकर फिर पतावच्छेदक समानाधिक करण प्रतियोगि गायमें रहता तो सानादिमत्व अतिव्याप्त होता लेकिन रहता ही नहीं हैं अतः यहां असम्भव दोष ही आवेगा। • और जब कि आपसे अतिव्याप्तिके लक्षगमें ही गल्ती होती है तो आप आकाशके भवगाहित्व लक्षग कैसे अतिव्याप्त सिद्ध करेंगे। (शङ्काकार )-अस्तु, हमने आपके द्वारा स्मृत कराया ही अति व्याप्तिका लक्षण स्वीकार किया किन्तु महाशयनी का अति व्याप्तिके विमरणसे अशुद्ध लिखे हुए लक्षणको ही शुद्ध करके अति व्याप्ति दोषका निरावरण करना चाहते हैं। इस सबसे तो केवल एक रक्षण ही शुद्ध किया गश, अति व्याप्तिका निराकरण तो हुभा ही नहीं। भाकक्षका अवगाहित्व लक्षण मकान धर्म अधर्ममें मी पाया जाता है इसलिए भति ज्यात है। भौर. दोष दुष्ट लक्षणसे कमी भी लक्ष्यकी सिद्धि नहीं हो सकी। . जैनी-मापका उक्त कटाक्ष भी आपकी आत्मदौर्बल्यका प्रदर्शक है । आकाशका अवगाहित्व पक्षण प्रधान है। पृथ्वो धर्म मर्मादिक अन्य अन्य लक्षण हैं जैसे पृथ्वी स्पर्श रस 'गन्ध वर्णवत्व, धर्मका गति हेतुत्न, अधर्मका स्थिति हेतुत्व ।। - अतः अवगाह देना लक्षण भाकाशका ही है। धर्म, अधर्म, पृथ्वी आदि समीको भवगाह नहीं देते । दुसरे भवगाह देना इनका लक्षण मी नहीं है अतः आकाशके भवगाहित्व लक्षणमें शंका नहीं करना चाहिये । यदि भाकाशका लक्षण अवगाह देना ही है तो भोकाकाशमें तो अन्य द्रव्योंका भमान है अतः वहां अलोकाकाश किसीको भी अवगाह नहीं देता अतः आकाशके लक्षगमें अगानि दोप माता है क्योंकि लक्ष्यतावच्छेदक लमानाधिकरणात्यन्तामावप्रतियोगित्वं ऐसा भव्याप्तिका लक्षण माना है सो · यहां अच्छी तरहसे घटित होता है। यहां लक्ष्यता: वच्छेदक भाकाशत्व है तथा आकाशत्वका समानाधिकरणी हुआ आकाश, उसके अत्यतामावका प्रतियोगि ( पानी का कुछ भाग में लक्षणके रहनेसे अन्याप्ति दोष भाता है सो यहाँ आकाशके कुंछ माग यानी लोकाकाशमें तो यह द्रव्पका लक्षण जाता है, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलोकाकाशमें नहीं जाना अतः अध्याप्ति दोष दुष्ट होनसे द्रव्धका लक्षण लोकाकाशमें द्रव्यत्व नहीं सिद्ध करसका।::....................... ऐसी शंका मी नहीं करना चाहिये क्योंकि अलोकाकोशमें अन्य दम ही नहीं, है गितको कि आकाश अवगाह दे। यदि किसी बड़ेमें पानी न रखा जाय तो घटका जल्ल. धारण धर्म नष्ट नहीं हो सकता इसी प्रकार यह दोष. माकाशका नहीं है ..... .... (शंका) जमकि अलोकाकाशमें कात्र द्रव्य ही. नहीं है, तो वहां वर्तना नहीं हो सकी । वर्तनाके बिना उत्पाद व्ययका व्यवहार नहीं हो सक्ता और न. 'नित्यताका ही व्यवहार हो सका है अतः वहा द्रव्यका लक्षण ही. संवटित नहीं होता. भतः पातो भोकाकाशको द्रव्य श्रेणीसे अलग कर देना चाहिये नहीं तो द्रव्यका लक्षण अध्याप्ति दोष दुट मानना चाहिये । अलोकाकाश व्यकी श्रेणीसे अलग तो किया नहीं, ना सक्ती क्योंकि भाकाशका विशेष, भेद है। विशेष विना सामान्य रह नहीं सका। यदि अलोकाका:: शको दायिकी श्रेणी से अल कर देंगे तो आशका मी अमाव हो जायगा, आकाशके अपाव होनेपर अवगाह देने की शक्ति युक्तद्रव्य का अभाव होगा फिर धर्म अधर्म आदिकहार ठहरेंगी । तथा च सात नरक धनादविलय के ऊपर हैं। वनोदधि वलय, धनमात-- बलय पर है और धनमातवलय आकाशके ऊपर है और आकाश स्वयं प्रतिष्ठित है। इस समका अन्य कारण आकाश ही है फिर आकाशका अमार होने से यह, सन. व्यय स्या कैसे बनेंगी। ......: ऐसी शंका नहीं करना चाहिये । ऐकि शाकाशमें व्यका लक्षण सुघटित ही. है. असे एक बड़े वांसके सिरेपर कुछ आघात करनेसे सन वासमें उसको आवानसें किया हो भाती है। वासके एक होनेसे तथैव आकाशमें भी कपश्चिन एकत्व है अतः वहाँ मी एक देशीय आकाशमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य हो नायगा यानी बोकाकाशके भःकाशमें काल द्वारा वर्तना है अतः उत्रादादि भी होंगे । उसी उत्पादादिका संबंध अलोकाशके आकाशमें मी हो जायगा । द्रव्य मणके सुघटित होनेसे आकाशमें द्रव्यता सिद्ध हो गई: अतः उक्त कोई दोष नहीं आसक्ता, आकाशके सरायका विनिधायक यही प्रमाण है. कि सभी शब्दों : बाध्य अवश्य हुवा करते हैं। अतः आकाश शब्द नन प्रसिद्ध है तो उसका अभिव्येय : अवश्य मानना चाहिये। . शंका-क्या जो २ शंन्द हैं उन समीके कुछ न कुछ यांच्या अश्य हा करते हैं। यदि ऐसा है तो वक्ष्या पुत्र खरविषाण इनका मी कुछ न कुछ वाच्य होना.. ही चाहिये, ये कहना मी. ठीक नहीं है क्योंकि पन्ध्या पुत्र इतना समस्त कोई पद नहीं. पक और पक २ अमिध्येयों की उपलब्धि मी होती है। अब...कोई : ऐसी शका को किभाकाश : तो सर्वव्यापक है. उसमें उत्पाद . व्यय प्रोग्य कैसे होंगे :.. : ...... . . .. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) यह . कहना मी अविचारीतरम्य .ही . है क्योंकि आकाश नब नित्य है तो ध्रौव्यता तो उसमें सदा बनी ही रहेगी । उत्पाद व्यय अगुरुग्घुगुणकी अपेक्षासे हो जायगे। द्रों में उत्पाद व्यय दो प्रकारसे होते हैं। एक स्त्र प्रत्यय और दूसरे पर प्रत्यय। मनन्त अगुरु लंबु गुणों के द्वारा पट स्थान पतित वृद्धि हानिसे पूर्व अवस्थाके अमाव होना. नेको स्वद्रव्य व्यय कहते हैं और पहिलेकी तरह मागेकी पर्यायका माविर्भाव होनेपर सस प्रत्यय व्यय कहते हैं पर प्रत्यय उत्पाद व्यय तो सुलम ही हैं। यानी शाकाश बहुतसी. 'आकाश रूर परिणत बहुतसे जीवादिकोंको अवकाश देता है जब कि द्रव्य जिनका कि आकाशमें अवगाह होता है अनेक रूप हैं तो बाकाश मी अपनी प्रथक र शक्तियों द्वारा उन भनेक रूपनीवादिकोंको अवकाश देता है अतः अनेक रूपता आकाशको सिद्ध ही हैं। कोई २" शब्द गुणकमीकाशं " यानी शब्द है गुण जिप्तका ऐसा आताश है, ये आकाशका लक्षण मा-ते हैं। नैयायिक लोग शब्दको गुण मानते हैं। अपने । चोवीस (२४) गुणों की संख्याके उन्नर शब्द नामक एक गुण है जिपका कि लक्षण "श्रोत्र अाह्यों गुणः " "श्रोत्र ग्राह्यत्वेन गुणवत्वं शब्दस्य लक्षण" श्रोत्र ग्राह्यत्व विशेषण • देते तो रूपरसादि गुण हैं अतः यहां अलक्ष्य, शब्दका लाग जानेले अति व्याप्त दोष होता । और यदि मोच ग्राह्यन्त्र मात्र कहते तो शब्दत्व मी श्रोत्रं प्राय है किन्तु गुण न होनेसे शब्द नहीं कहा जासकता । इस ताह शब्दका लक्षण मानकर नैयायिक शब्दगुणवाला आकाश है ऐसा कहते. हैं किन्तु शब्द पौगलिक है यह हम पहिले सिद्ध कर आये हैं। - अतः जब कि शब्दको पदलता है तो उसे गुण नहीं कह सकते । यदि द्रव्य मी गुग कहेंगे तो द्रव्य गुणमें संकर हो जायगा । इस लिए शब्द गुणवाला आकाश नहीं होतक्ता अतः नैनियोंका माना हुमा आकाशका लक्षण स्वीकार करना चाहिये सर्वत्र निर्विषाद होनेसे। · सारांश-वाच्यसे वाचककी सिद्धि होती है अतः आकाश वाच्यते आकाश वाचक ' की सिद्धि हो ही जायगी और उपयोगीता उसकी. अवगाह दानसे सिद्ध होती है। यदि भाकांश माना जाय तो समी दयोको निराश्रयताका प्रसङ्ग हो जायगा अतः आकाशको मानना ही चाहिये। . . अब कालकी सिद्धि और आवश्यक्ता बतलाते हैं। , ‘काल व्यका स्वरूप पूर्णचार्योने यह दिखाया है कि जो सन द्रव्योंक वर्तनामें उदासीन कारण हो उसे काल द्रव्य कहते हैं। जैसे धर्म और अधर्म द्रव्य पदलों और नीयोंकी • गति स्थितिमें बलात्प्रयोनक नहीं हैं उसी तरह काल- मी बलात्कारसे किसी द्रव्यमें वर्तना Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . . . (परिणमन ) नहीं करती नैसे कि गाडीके नीचे लगे हुवे पहिये स्वयं गाडीको नहीं खीच ले नाते बल्कि गाड़ी वैल आदिकोसे खींची जाती है तो पहिले गाडीके चलनेमें उदासीन कारण हो जाते हैं। उसी प्रकार कालके वर्तनाकी दशा है। लोकाकाशके एक२ प्रदेशके ऊपर रत्नकी राशिके समान एकर काका अणु स्थित है। ... उक्त च-लोशयास पदेखें इलेके जे ठियाहु इकोका। . .रयणाणं ससीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ॥१॥... द्रयके जो दो या तीन लक्षण पहिले कहे थे वे दोनों ही काल द्रनमें अच्छी तरह बटित हो जाते हैं । कान द्रा, भगुरु मधु गुणकी अपेक्षा षट् स्थान पतितं और हानि पृद्धिसे उत्पाद और तय होते हैं । समय र के अनन्तर कालमें मृत भविष्यत् वर्तमानका. व्यवहार होता है। कुछ समयके वीत नानेसे ( विनाश हो जानेसे ) भूत काल का व्यवहार होता है । और तात्कालिक उत्राद होनेसे वर्तमानका व्यवहार होता है और. अन्नागतकी अपेक्षा भविष्यका व्यवहार होता है। इस तरह उत्पाद व्यय हो जाते है और कालपनेका सभी कालोंमें व्यवहार : होता है : जतः धौषता है ही. इसलिये सद् द्रव्य लक्षणं घटित हो ही जाता है। कालके साधारण गुण चेतनस्य सुक्ष्मत्वं :आदि हैं और असाधारण वर्तना हेतुत्व है। भूतं वर्तमान आदि ये सब कालेकी पर्याय हैं अतः द्वितीय द्वन्यका लक्षण गुणपर्ययवद्रव्यं । यह मी सुघटित. ही है। कालमें भूत भविष्यत आदिका व्यवहार होता है अंतः कालको अप्रदेशी और अनन्त समयवाला माना है। ... ...... .: शंकाकार-जब कि आप वर्तना कराता कालका लक्षण मानते हैं तो कालको सक्रिय मानना चाहिये यह उनका कहना मी ठीक नहीं है। क्योंकि यहां निमित्त मात्रमें हेतुकताका बहार है जैसे चश्मा मुझे दिखलाता है, या कण्डेकी अमिन मुझे पढ़ाती हैं,... इत्यादिमें कालका बहार होता है । संसारमें भी मुखका समय मध्याह्न (दोपहर का .. समय बाल्य समय ऐक्यप्रैसका समय पैतिगरका समय इत्यादि जो व्यवहार होता है वह . कालके समाधमें ही. मुख्यतया होता है । दुसरेके द्वारा अवगतया दुसरेको ज्ञान कराने वाली. जो क्रिया विशेष उसको काल कहते हैं । निः२. में कालका लक्षण जायः उसे ३.... द्रव्य मानना चाहिये इसलिये अनायास कालको 'द्रव्यता सिद्ध ही है। नैयायिकोंने कालका : अक्षण ":अतीतादि व्यवहार हेतुः कालः " ऐसा माना है। .... . शंकाकार-भंतीतादिका व्यवहार करानेवाला आकाश मी है अतः आकांशको भी:: कालका लक्षण मानना चाहिये। क्योंकि आकाशके बिना अतीतादि शब्द नहीं वोलें. जा. क्ति अतः उक्तःकाल द्रव्यका लक्षण अति व्याप्ति दोष दुष्ट होनेसे प्रमाणीक नहीं माना। ना सक्ताः ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये । व्यवहार हेतु:शब्दको अर्थ निमित्त मात्र लेना वाहिये । कण्ठ ताल्ल आदि जो क्षतीत आदि शब्दोंके भमिन्य नक हैं उनसे भी अविध्याति ___ . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ." .... .:. . . · नहीं दे सक्ते क्योंकि यहां अतीतादि व्यवहार हेतु शब्दका अ निमित्त मात्र ही , कालकी • सिद्धिमें और भी बहुतसे प्रमाण दिये जा सक्त हैं। यह कालकी ही महिमा है कि नियंत समयमें प्रकृतिका नियत कार्य होता है। क्षेत्र वैशाख ज्येष्ठमें ही आम आते हैं। मका सीमन मादोंमें ही पकती हैं आदि । . यदि समय कुछ भी चीन न होती तो नो चीन मन चाहे उपज आती । समय नः होता तो १० ही माह बाद बीके बालक नहीं पैदा होना चाहिये । वर्षा भी नियत समय पर नहीं होनी चाहिये तथा.. जो. आम्र, निच केला, जामुन, सेव, वेर मोदि फल उत्पत्ति समय में जैसे होते हैं. उसी तरह हमेशह रहना चाहिये । बच्चा. मी जैसा उत्पत्ति समयमें होता है वैसा ही रहना चाहिये तथा वृक्ष आदि नितनी भी वस्तुयें. : उत्पत्ति अवस्थासे आगे २ वृद्धिको प्राप्त होती है वे सब पूर्व अवस्थामें ही रहनी चाहिये अतः ऐसी स्थिति होनेपर संसारके बहु मागका आघात हो जायगा इसलिये काले द्रव्य अवश्य मानना चाहिये। यह काल द्रव्यका व्यवहार सुर्य चन्द्र आदिकी गति हेतुका है। सूत्रकारनी ने भी कहा हैं । तत्कृतःकाल विमागः यांनी सूर्य नक्षत्र आदिकी गतिसे कालका विभाग होता है । संसारकी स्थिति जो प्रथम कालमें पी वह इस पंचम कालमें नहीं है और भो इस काठमें है या होगी वह षष्ठम कालमें नहीं होगी अतः इन सबमें भेद विनि... श्रायक कालकी सिद्धि होती है। कालके दो भेद हैं व्यवहार काल और परमार्थ काल । व्यवहार कालके भूत वर्तमान मविष्य इस तरह तीन भेद होते हैं इस तरह कालकी प्रमाणता और सिद्धि जानना चाहिये। इस निन्धके निर्माणका यही तात्पर्य है कि सम्यक पदार्थ व्यव स्था :सदाही स्थिति को प्राप्त है। , इस प्रकार इप लेख निम्न रूपसे. पदार्थ व्यवस्थाका निरूपण किया है। प्रथम २. दूसरों के द्रव्य लक्षणको सुचारुता अप्रमाणीक सिद्ध करके आहेतमतानुयायियोंके द्रव्य लक्ष की सिद्धि की है। इसके पश्चास्पर स्वीकृत द्रव्य संख्याकी न्यूनाधिकता होनेसे संख्यामास बताकर भनियों द्वारा स्वीकृत संस्थाको प्रमाणता सिद्ध की है तदनन्तर अन्यमतानुयायियोंकी : द्रव्यों का लक्षण सदोष सिद्धकर त्याद्वादियोंके इङ्गित जीवादि पदव्योंका विषद निरूपण किया है। ... यदि समानका कुछ भी इस लेखसे उपकार हुभा तो मैं अपना श्रम सफल समझंगा। श्री-सारसान अगार स्वामी बीनती हमरी यहीं। शुभ ज्ञान हमको दीजिये अरु शान्तिमय कीजे मही। कर्तव्य में निष्टा सभीकी होय श्रीमन् सर्वदा । अन्याय अत्याचारका उत्पाद नहिं होवे कंदा ॥२॥ शान्तिका साम्राज्य हो अरु नाश अत्याचारका। सबके दिलों में भाव हो संत नीति धर्म प्रचारका | -. 1 . ... . .. . . .. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्यका आवश्यक्ता और उनकी सिद्धि। . . जैन साहित्य समां लखनऊमा लेख नं०२।। (लेखक:-पं० समितकुमार शास्त्री-मुंबई) TERRHEATREविधिको नशाया, संग्रामा ता भी मिटाया Freeो पदबार ताने, मेरो प्रभो ! दुसन सा ॥ पिपपर सजन समाम ! TH HIT महासागर है निके गाव नलने मान नाना प्रकारके भनेक भन्नु की क्षारतासे, बयानलकी ती उष्णतासे तथा पारस्परिक कलहकी वेदनासे एवं मयावह महाकाटोलों संग अETA पीडाको सहन करते हुए, इधरउधर भटक रहे हैं किन्तु उस अपार पारावारकी शांतिदायिनी भूमिको न पानसे मी दुःखमारमें दुबे. हुए और भी अधिक रपटा रहे हैं। अपना यह जगत एक महाउपान है जिसमें चेनन दमा अतन दो प्रकार के वृक्ष को हुए हैं। मिल प्रकार अनंतन पौधे अनेक प्रकारके हैं नव चेतन वृक्ष भी विविध प्रकार लगे हप हैं। कोई महा उता है, कोई लघु आकारके हैं । एवं कोई रमणीय मनोहर और कोई महा असुन्दर हैं। atines है कि यह कार एक विशाळ आशयमगत या भगायघर है. . महत पर अनेक मुकार समक्ष एकति दिये गये हैं। आतु । ___ म विना विषय पर करना है कि शिको समी हो। जगत कह रहे हैं। या भारत ETA: 1पा है ? और सरिता मारके पथ विद्यमान है। EिR HAT ाममनों हम पाइन सरित करते हैं उस समय हमको - पारों ओर एक ही सा मिल जाता है कि "यमान तथा अनेक प्रकारसे • शापमान नाना पायीका समाय ही जाता है पिस उत्ताके विशेष विशेष अशोमें - पारस्परिक विवाद है किन्तु सामान्य उसा समस्त पुरुपोंका समान ही है । भानु । पनि समय नितीश उपस्थित किया जाता है उस समय हमको अनेक उता नाना प्रकारसे न होते हैं। इस कारण इस विषयका पता लगनाता है कि इन ...समी उत्तरोंमें मनायो मी पंताय यथार्ण नहीं है किंतु यदि ठीक होगा भी तो ... एक मनस्य ही फ होगा। शेष सभी मत भयर्थ (ग) होंगे । अस्तु । . . .. श्रान हम अपना अल्प मा इमी परीक्षा में व्यतीत करते हैं जिसका एक एका मनोहारी फ निकालेंगे जो कि हमको ापूर्व, अनुपम तथा महा आनंद प्रमोद प्रदान करेगा भिप कि हमारे समी मल्यता हमको अपूत्यता भेट करेगी। . . . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सबसे प्रथम .इस विषय पर ध्यान देते हैं कि जिन द्रव्योंके भेदोंकाः हमें निश्चय करना है उनका सामान्य स्वरूप. तथा रक्षणं क्या है ? तदनन्तर हम परीक्षक चनेकर सारासारका विचार कर सकेंगे। ... :... ...बहुत अनुसंधान करनेपर इन उपर्युक्त शकाको दूर करने के लिये हमको सारभृतः द्रव्यका लक्षण यह प्राप्त हुआ है कि जो गुण तथा पर्याय स्वरूप हो. वही द्रव्य है" य नी गुण और पायका जो आश्रय है वही द्रव्य है। यहां पर यह ध्यान में रखना. चाहिये कि गुण और पर्याय ऐसे नहीं हैं कि द्रव्यसे पृथक् रहकर उसमें फिर आ मिले ही किन्तु जैसे वृक्षमें शाखाएं हैं शरीरमें अंग तथा उपांग हैं तथैव द्रव्यमें गुणे और पर्याय हैं । अथवा गुण, पर्यायके अतिरिक्त द्रव्य कोई मिन्न वस्तु नहीं है जैसे कि शाखा, पत्ते, फूल, फल आदिके विना वृक्ष कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । इनमें से "द्रव्यको समी अवस्था ओंमें रहनेवाला और अन्य द्रयोंसे भेद दिखलानेवाला गुण, है और उसी गुणकी नवीन २ जो दशाएं हैं वे 'पर्याय' कहलाती हैं। जैसे चेतन द्रव्यमें यदि ज्ञानगुण हैं तो. वहं ज्ञान बाल्या, यौवन, प्रौढ तथा कौमार आदि सभी दशाओं में रहेगा किन्तु उस ज्ञानकी पर्याय प्रतिसमय नवीन नवीन ही होंगी यानी किसी समय पुस्तकरूप वह ज्ञान है अन्य समय घटरूप है तदनन्तर जलरूप है । आदि । यानी ज्ञानगुण जिप्तः जित नवीन हालतमें, होगा उसकी पर्याय मी उसी रूपमें होगी। इसी लिये सारांश यह निकला कि गुण द्रव्यके साथ सर्वज्ञ रहता है और पर्याय: केवल एक ही समय तक रहती है। ..: : यहां पर यह कह देना आवश्यक होगा कि प्रत्येक द्रव्यमें बहुतसे गुण रहते हैं. जिनको किसी प्रकार से गिन नहीं सकते हैं. अतएव उनकी संख्या अनंत शब्दसे ही कहेंगे। पर्शयोंकी संख्या भी द्रवपमें ऐसी ही हैं। अब इस प्रकार द्रव्यकी. परिभाषा हो गई: कि "अनेन गुर्गोवा समुदाय एवं भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानकाल संबंधी पर्यायों का समूह . ही द्रव्य है." क्योंकि एक समयो एक गुणको एक पर्याय और दूसरे समयमें उसी 'गुणकी दुमरी पर्याय हो जाती है। किन्तु, यह बात मान रहे कि गुणोंकी यद्यपि अनेक : होलते होंगी परन्तु उनका स्वरूप नहीं बदलेगा। जैसे मनुष्यको यद्यपि बालक, युवा आदि ...अनेक दशा होगी परन्तु वह उन सभी दशाओं में मनुष्य ही रहेगा अन्य नहीं होगा। हम इसीसें पता लगा सक्त हैं कि द्रव्य क्या वस्तु है और गुणः क्या है? ... ... ...:: - इसी म्पका यदि अन्य प्रकारसे लक्ष बनाया जाय तो इस प्रकार बनता है किं. नों उत्पाद, व्ययः तथा प्रौव्य रूप हैं वही द्रव्य है । अर्थात उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य जिसमें मिल वह व्य है Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) है, गुणोंकी अपेक्षा ध्रुव ( अविनाशी ) है। वे महाशय अपनी समझमें भूल करते हैं। क्योंकि द्रव्योंकी पर्यायें जैसे किसी कारण अनित्य अथवा उत्पाद व्ययवाली है उसी प्रकार वे प्रोपवाली मी - किसी अपेक्षासे हैं । और द्रयोंके गुण जिस प्रकार ध्रौव्यात्मक यानो नित्य मालुम होते हैं। वे ही गुण किसी तरह अनित्य मी दीखते हैं अवा इसको इस तरह कहना चाहिये कि उत्पादमें व्यय और प्रौव्य निवास करते हैं। और व्ययमें भी उत्पाद उत्पाद तथा प्रौव्य रहते हैं एवं ध्रौव्यमें भी उत्साद, व्यय अवश्य पाये माते हैं। यह बात इस तरह सिद्ध होती है कि यदि पर्यायमें कुछ मी नित्यता न हो तो वह क्षणभर मी न ठहर सकेगी और इस प्रकारसे पर्याय ही न रह सकेगी। पर्यायमें कुछ न कुछ नित्यता या स्थिरपन है तभी तो आम कभी हरा और कमी पीला दिखाई देता है। मनुष्य कमी बच्चा और कमी युवा दृष्टिगोचर होता है । . अन्यथा किसी भी रूप में न दीखेगा । इसी प्रकार गुण मी यद्यपि किसी अपेक्षासे श्रौव्यागक है परन्तु किसी अपेक्षासे उत्पादन्यय स्वरूप परिणामी मी है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो गुणोंकी सदा एकसी ही हालत दीखनी चाहिये उसमें किसी भी प्रकार हेरफेर न होनी चाहिये। आमका रूपगुण सर्वदा हरा या पीला ही रहना चाहिये, बदलना न चाहिये, रस मी खट्टर या मीठा ही सर्वदा रहना चाहिये किंतु ऐसा होना प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है। अतएर गुण जिस प्रकार सामान्यतया अपरिणामी (नित्य ) हैं । विशेषतयों वे. ही परिणामी मी अवश्य हैं। इस समी जंजालका यही सारांश है कि 'अनंत गुण तथा अनंत पर्यायवाली द्रव्य होती है । इसीको दूसरे ढंगसे ऐसा कह सके हैं कि उत्पत्ति, नाश तथा स्थिर दशको धारण करनेवाला ही द्रव्य है।। अत्र द्रव्यका लक्षण तो पूर्णतया प्रमाणरूपी कांटेपर तुल चुका जिससे कि हमको प्रकृत विषयपर विचार करनेका मलसर मिल गया । हमको प्रकरणानुसार प्रथम ही यह विचारना है कि वे द्रव्य कितनी हैं। और कैसे हैं ? । तत्पश्चात उसी प्रकरणकी अन्य शंका उपास्थित करके उनका निराकरण करेंगे। जिस समय हम उपयुक्त प्रश्नको हल करनेके लिये अपनी प्रतिमाको काममें लेते । हैं, उस समय हमको ज्ञात हो जाता है कि इस विशाल संसारस्थलमें दो प्रकारके द्रव्य र ही उलग होते हैं । अर्थात् संसार में जितने भी अनंत पदार्थ हैं वे दो- जातिके हैं-एक तो चेतन हैं दुसरे अचेतन । जिन पदार्थों में जानने देखनेकी शक्ति है उनको चैतन्यदशासे सहित होनेके' करण चेतन कहते हैं इनकी हो 'जीव' शनसे पुकारते हैं । और जिनमें मानने, देखने, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखदुःखके अनुभव आदि चतन्य शक्तिका विकाश नहीं है वे पदार्थ अचेतन हैं.. जिनको भड़ या अनीव मी कहते हैं । अस्तु । इन दो प्रकारोंको छोड़कर पदार्थोकी तीसरी और .. कोई नाति नहीं है । सभी पदार्थ इन्हीं दोनोंके अन्तर्भूत हैं। . . । किन्तु पदार्थोंकी ये जातियां भी जड़वादके इस मध्याहाकालमें कहना असमवस्त ' हो जाता है क्योंकि इस समय मनुष्योंका बहु माग इस सिद्धान्तको अटल तथा वास्तविक मान बैठा है कि "संसारमें केवल एक अनीव द्रव्य ही है। जिसको हम लोग जीव कहते वहमी जड़ द्रव्यकी पर्याय है" इसको सिद्ध करने के लिये वे प्रत्यक्ष, परोक्ष कई प्रकारके प्रमाण त्या दृष्टान्त उपस्थित करते हैं । अस्तु । ... कुछ मी हो । यहाँपर यह निश्चय नहीं किया जा संक्ता है कि विचारक व्यक्तियोकी अधिक संख्या नित मंतव्यको निश्चित करे वही मता यथार्थ होगा और सिद्धान्त भी यही हो सकेगा। क्योंकि संभव है कि वे सब भूलपर होवे और भेड़ियाघसानमें आकर उन मनुष्योकी संख्या बढ़ गई हो । और उसके विरूद्ध कहनेवाला थोड़े मनुष्यों का समुदाय ही लोक मार्गपर हो । क्योंकि परीक्षकों का मार्ग यद्यपि आनकल चौड़ा हो गया है किन्तु कपाय और पक्षपातका भाव अभी तक मनुष्योंके हृदयसे विदा नहीं हुआ है। अन्यथा आर्यसमान सरीखा कुतर्की जनसमुदाय मी 'सृष्टिकर्तृत्व' सरीखे स्थूल विषयपर न. उलझा रहता । अस्तु । इसलिये जब हमने अपना अनुपम तथा अमूल्य समय विचारने के लिये प्रदान कर दिया. है तब हमारा प्राथमिक कर्तव्य है कि हम इस कंटकको भी अलग कर दें अन्यथा आवागमनके प्रारम्ममें ही मक्षिका छींक देगी जिससे एक पैर मी. आगे न चल सकेंगे। ..... .: मड़वादको माननेवाले महाशय अपना सिद्धान्त इस प्रकार .जमाते हैं कि संसामें केवल जड़. द्रव्य ही है । जीव मी इन्हीं अचेतन द्रव्योंके संगसे उत्पन्न हो जाता है। .जगतमें पृथ्वी, जल, अग्नि, तथा वायु इन चार द्रव्योंके चार प्रकारके परमाणु मरे हुए हैं। उन्हीं परमाणुओंके परस्पर.मिल जानेपर जल, पृथ्वी भादि अनेक प्रकारके :पदार्थ बन जाते , है। जिस प्रकार गुड़, महुवा, धतूरा मांदिके मिलापसे गहरा नशा या वेहोशी लानेवाली ... मदिरा बन जाती है, उसी प्रकार पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन चार भूतके संयोग ..(मिनाप.) होनेसे चेतन शक्ति उत्पन्न हो जाती है निसको जीव कहते हैं। वास्तवमें जीव नामकं कोई पदार्थ अलग स्वतंत्र नहीं है.. इसलिये. संसार केवल जड़ पदार्थसे ही भरा है। " ये लोग इसी कारण ऐसा कहते हैं कि परलोक कोई वस्तु नहीं है। अस्तु । इस मतको युक्तिशून्य, असत्य सिद्ध करने के प्रथम उससे संबन्ध रखनेवाला कुछ विषय "कह देना आवश्यक होगा जो कि इस प्रकार है। ... . . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिस प्रकारका कारण होता हैं कार्य भी उससे वैसा ही होता है । अर्थात उपादान कारण जिप्स जातिका होगा कार्य भी. उससे उसी जातिका उत्पन्न होगा । जैसे मनुष्यसे मनुः ज्य ही उत्पन्न होता है और घोड़ेसे घोडेकी ही उत्पति होगी । तथैव चनेका वीन चनेका वृक्ष ही उत्पन्न करेगा और आमके पेड़पर आमका फल ही लगेगा उसपर केश कमी नहीं लगेगा । क्योंकि उप्त फलंका कारण दूसरा ही है। इसलिये यह नियम बन गया कि चनेको ' चाहे जैसी भूमिमें बोदें और उसमें च.हे. जैसा ख़ाद दें किन्तु उससे गेहूं कमी नहीं होगा; उससे चना ही होगा । आमके वृक्षार हनारों प्रयत्न करने पर मी केला उत्पन्न न हो सकेगा। ... इससे हमको यह सार मिल गया कि जिप्त जातिका कारण होगा कार्य मी उससे ___ उसी जातिका उत्पन्न होगा । अन्यथा नहीं । ... . : :: अब हम अपने प्रकरणपर आते हैं। जड़वादियोंका जो यह कहना है कि "शुइ धतूरे आदिके मिलापसे जिस तरह शराब बन जाती है जोव मी उसी प्रकार पृथ्वी जलादिक चार भूनोंक : मिल मानेपर बन जाता है । यह कोई अलग नया पदार्थ नहीं हैं। आदि। इस विषयमें हमको । • प्रथम ही यह देखना है कि शराबमें नो मादक ( नशा ) शक्ति है वह उसके कारणोंमें : है या नहीं है ? । क्योंकि उसके कारणों में ही यदि वह शक्ति होगी तवे तो कोई आ.. श्चर्यकी बात नहीं कि शराबसे बहुत गहरा नशा आता है क्योंकि यह नशा उसके कारणों में पहलेसे ही था । यदि उन कारणों में वह नशा नहीं होगा तो अवश्य ही एक आश्चर्यको बात ठहरेगी ।... . .. शराब बननेके उपादानकारण महुआ, धतूंग, गुड़ तथा एक मादक फलका चून आदिः हैं। इन वस्तुओंको यदि प्रपा प्रथकू ही कोई मनुष्य खावे तो उसको थोड़ा बहुत अवश्य . • नशा आ जाता है । शिरकी पीडा, बुद्धिका बिगड़ जाना; स्वस्थ दशा न रहना ये सभी बातें केवल एक एक पदार्थको मक्षण करनेसे ही होनाती है। यदि इन सबको मिलाकर 5 कोई पाक तयार किया जाय तब तो वह नशा और भी बढ़ जायगा क्योंकि वे सब एक । स्थानपर मिझ गये हैं। बस यही शराबकी हालत है । जो चीने प्रथक २: कम नशा लाती.. ..थी उन्होंको मिलाकर-शरान बना लेनेपर: उन वस्तुओं का मद तीत्र हो जाता है । और इसके सिवाय और कोई नवीन बात नहीं होती है। इससे यह सिद्ध हो गया कि शराबके कार" ण ही मादक हैं, उसमें यदि मादक शक्ति आगई तो कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि नशीले कारणोंसे जो पदार्थ उत्पन्न होगा वह नशीला अवश्य होगा। अस्तु । .: इसलिये जड़वादियों द्वारा दिया हुआ मदिराका दृष्टान्त तो टुंद गया। कान प्रधान .. विषयपर प्रकाश डालते हैं | पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतोंके द्वारा जीव उत्पन्न होता है। अर्थात् ..:::: Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ..... .. .... . ...... . . . ...... . ... : .... . .... ... . किंतु ऐसा नहीं है। जल, पृथ्वी यादिमें अन मी ज्ञानशक्ति नहीं मालूम होती है। फिर, *. उनसे बने हुए जीवमें वह शक्ति कहाँसे आ सकती है। आवेगी मी कहाँसें ! ये सब . कारण तो अचेतन हैं। इस लिये यह सिद्ध हो गया कि ये चारों भूत जीवके सजातीयः . . नहीं है किंतु विजातीय हैं। और यह नियम ही है कि जिस नातिका कारण होगा, · कार्य भी उससे उसी जातिका उत्पन्न होगा। इस लिये यह सिद्ध हो गया कि अचेतन भूतोसे चेतन जीव कमी उत्पन्न न हो ..: सकेगा अन्यया पृथ्वीसे जलं. और जलसे. अग्नि मी पैदा हो सकेगी जिससे भूत चार प्रकारके ही हैं उनसे पदार्थ मी उसी नातिके उत्पन्न होते हैं, यह उनका सिद्धान्त विगहें . ". जायगा । किन्तु होता ऐसा मी है, पार्थिव लकड़ीले भरिन, जलसे पार्थिवः ओला और : दीपककी अग्निसे पार्थिव कागल बन जाता है। - यहां यदि यह कहा जाय कि उन चार प्रकार के पदार्थोसे शरीर बन जाता है ... और शरीरमें चेतनशक्ति अपने आप आनाती है अर्थात चेतन शक्ति शरीरको ही गुण है। .. यह कहना मी पर्याप्त न होगा क्योंकि यदि ज्ञान शरीरका ही गुण होता तो ____शरीरके अनुसार ही उसमें कमी देशी होती किन्तु ऐसा है नहीं, शरीर वैसा ही बना · रहता है किन्तु जीवमें बहुत से विकार हो जाते हैं। शरीर कमी मोटा हो जाता है की "पतळा । किन्तु ज्ञान उतना ही बना रहता है। मृतकका शरीर जैसेका तैसा बना रहता है. : किन्तु उसमें से चेतनशक्ति निकल जाती है । इसके अतिरिक्त जीव यदि शरीरका ही गुण“स्वरूप होता तो शरीरके अनेक खंड कर देने पर सबमें पृथक पृथक जीव मिलना चाहिये। जैसे कि घड़ेके अनेक खंड कर देनेपर सबमें मिट्टी तथा उसका गुण अवश्य मिलता है। शरीरके खड़ों में ऐसी बात मिलती नहीं हैं। - इसलिये अनेक पृष्ट प्रमाणों से अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि जीव. शरीरा ... दिक जड पदार्थोंसे मिन्न एक निराला ही पदार्थ है जिससे कि संसारमें केवल जीव तथा : अजीव दो ही द्रव्य हैं यह अनायास सिद्ध हो गया। यहां पर इतना कह देना आवश्यक होगा कि जीव द्रव्यका संक्षिप्तः वर्णन मी अधिक समय तथा स्थान चाहता है अतएव उसको यहीं छोड़ देते हैं। इसके सिवाय - उसके भेद अभेदं भी असख्यान तथा अनंत है। उनको मो. हम यहां बताने में सर्वथा : : असमर्थ हैं। अस्तु । किन्तु इतना ध्यान में रखना चाहिये कि सर्व जीवोंमें गुण तथा शक्तियां समान विद्यमान हैं यह दूसरा विषय है। किसी विशेष कारणवश किन्हीं जीवों में कोई गुण : थोड़े व्यक्त है और कुछ जीवोंमें अधिक प्रगट हैं । सामान्यतया समी जीव समान हैं। ... S . .. . . : hor: . ........ ...... Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : अब अजीव द्रव्य शेष रहा जिसका व्याख्यान आवश्यक तथा अनिवार्य है.। मस्तु । जीव द्रम्पको छोड़कर शेष नो मी नव्य हैं वे सपी अनीव द्रय हैं क्योंकि उन समीमें चेतनराहित्य अथवा, अनीवम माव विद्यमान है । अतएव सामान्यतया उन सभीको में एक जातिका कह दिया जाय तो मी अनुचित न होगा। किन्तु उनको विशेष विशेष,.. अनिवार्य भेदोंके कारण विभक्त करना ही चाहिये । अर अपना मानसिक वल इसी पर लगाते हैं कि अनीव द्रव्य. कितने प्रकारों में विमत है अथवा हो सका है। . . . तब सबसे प्रथम नीव दग्यको छोड़ देनेपर जितना मो कुछ दिखलाई देता है वह मी पद्दल द्रव्य, ही दृष्टिगोचर होता है जिसको कि मूर्तिक द्रव्य भी कहते हैं। संसारमें धर्मचक्षुओंसे तथा इतर द्रव्येन्द्रिय ज्ञानेन्द्रियोंसे जो कुछ उपलब्ध होता है समी पहल द्रव्य है । यहांतक कि यदि सूक्ष्म विचार न किया जाय तो दल द्रव्यको छोड़कर नीव द्रव्य मी सिद्ध नहीं होता है । अस्तु । . पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि जितने मी पदार्थ हैं समी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है। यहां तक कि जीवद्रव्य जिस घर में निवास करता है वह शरीर मी पुनलमय है । इसलिये इस पदले द्रव्यको सिद्ध करनेका परिश्रम नहीं करना पड़ेगा क्योंकि नमान्य पुरुष भी अपने ज्ञाननेत्रोंसे अथवा अन्य इन्द्रियोंसे सहन में ही इस दन्यसे पूर्ण परिचय हो जाता है । हाँ! एक बात अवश्य कहना है जो कि प्रायः असष्ट तथा विवादास्पद है। “वह यह है कि जिस प्रकार पद्मे रूप गुण है और वह पूर्णतया नष्ट है उसी प्रकार उसके अविनाम वो या साप साध रहनेवाले तीन गुण और मी हैं । निनका ज्ञान नेत्रे न्द्रय के सिवाय अन्य इद्रियोंसे होता है। वे गुण रस, गंध तथा स्पर्श हैं जो कि प्रत्येक प्रदान पदार्थमें अवश्य विद्यमान हैं। .... इसलिये पुद्गल द्रव्यमा यह रक्षण वनगया कि, "जिप्समें रूप, रस, गंध तथा मर्श ये चार गुण पाये जाय वह पृद्दल है" । इन चारों गुणों से किसी :पदार्थमें चारों गुण ही व्यक्त हैं और कुछ पदार्थों में कोई गुण . ही व्यक्त है शेष अव्यक्त रूपसे रहते हैं। किन्तु यह नियम है कि जहां इन चारों से कोई एक गुण होगा वहींपर शेषके तीन गुंग भी अवश्य मिलेंगे। यह नियम हमको उन अनेक प्रकारके नाना पदार्थों के अनुमवसें ज्ञात. हो जाता है। जैसे आपको खानेसे उसका मीठा रस -मालुप हुआ, सूंघनेपर सुगंध मी उपलब्ध हुई । कोमल, ठंडा, मारी, चिकण, स्पर्श भी पाया गया। इसी प्रकार. गुलाबके इनमें जैसे सुगंधि उपलब्ध होती है उसका रंग तथा स्पर्श मी उसी प्रकार मिलता है और स्वाद लेनेपर उसमें किसी न किसी प्रकारका रस मी: पालम होता है। हमको ना कि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (96) ऐसा नियम या इन गुणका साहचर्य प्रायः सभी अनुभूत पदार्थोंमें मिलता है तब इसी .. कांटेसे हम सभी लीय पदार्थोंका स्वभाव बेरोकटोक यथार्थ जान सक्ते हैं । अतएव कोई महाशय जो ऐसे सिद्धांत बनाते हैं कि " जलमें स्पर्श रस तथा रूप है, अग्निमें स्पर्श तथा रूप है। तथा वायुमें केवल स्पर्शगुण ही विद्यमान है। उनका यह सिद्धान्त स्वयमेत्र फिसलकर वराशायी हो जाएगा । क्योंकि जलमें जब कि रस रूप स्पर्श पाये जाते हैं तब उसका अविनाभावी गघ उसमें अवश्य रहेगा । अग्निमें कोई न कोई गंध तथा कोई न कोई रस अवश्य है क्योंकि उसमें स्पर्श तथा रूप मिलता है इसी प्रकार वायु में भी जब कि शीत या उष्ण स्पर्श एवं बजन पाया जाता है तो उसमें गंध, रूप तथा रस भी अवश्य होने चाहिये । जैसे आपका फळे । 14 " बात केवल यही है कि इन पदार्थोंमें कोई कोई गुण मुख्य तथा व्यक्त हैं शेषके गुग उतने तीन नहीं हैं किंतु हैं अवश्य। जैसे हींगमें वेलाके तेलमें केवल गंध गुणकी तीन है किन्तु उसमें रस भी अवश्य रहता है, यही दशा उपयुक्त पदार्थोंकी मी हैं । इस लिये भले प्रकार यह सिद्ध हो गया कि प्रत्येक पौलिक पदार्थमें स्पर्श, रस गध तथा रूप ये चारों गुण अवश्य पाये जाते हैं । अतएव प्रत्येक स्पट में इन गुणों में से किसी एक गुण रहने पर अवशिष्टके, इतर गुण भी अवश्य रहेंगे । इस पल द्रव्यका भी व्याख्यान शक्तिसे हि भूत है। अतएव इसके विशेष परिचयसे विराम देते हैं । . S .. " भजीव द्रव्यमें एक प्रकारको द्रव्य तो सिद्ध हो गई जो कि पुद्गल है । अब उसी अजीब नृपको इतर प्रकार भी खोजना चाहिये । ; यह विषय समीसे सुपरिचित है कि कार्यको देखकर उसके कारणका अनुमान होता है । जैसे वृक्षको देखकर जान देते हैं कि इसको उत्पन्न करनेवाला प्रथम ही चीज अवश्य होगा। मिट्टीकी छटो डली को देखकर पता लगा लेते हैं. कि इसको बनानेवा सुक्ष्म पृदळ परमाणु हैं । भादि । इसके प्रथम ही यह बात मी ध्यानमें रहे कि प्रत्येक कर्यको उत्पन्न करनेके लिये जिस प्रकार उपदान कारणका उपस्थित होना आवश्यक है उसी तरह निमित्त कारणका होना मी अनिवार्य है । क्योंकि सून रक्खा भी रहे किन्तु जुलाहा तथा करवा उपस्थित होगा तो वस्त्र कभी न बन सकेगा । अस्तु । संवर्ती जीव तथा पौलिक सभी पदार्थोंका एक साथ " गमन होना किसी बाह्य निमित्त कारण से ही हो सक्ता है अन्यथा नहीं । जैसे तालाब में एक साथ इधर उधर घुमनेवाले मछली, मेंढक आदि हजारों जलमंतु ओंके आवागमन में जल निमित्त कारण c उसके बिना उनका गमन नहीं हो सक्ता है । तथैव अनेक जीव पुद्गलों का ठहरना भी 'किसी निमित्त विना नहीं हो सक्ता है । इसलिये उस निमित्त कारणका होना भी अनि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : .: (निवास) देनेवाला । सवैयापक यदि कोई पदार्थ न हो तो ये वायु पृथ्वी आदि विशाल परिमाणधारी पदार्थ : कहाँ समावेगे । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि पक्षी जिप्त समय पृथ्वीसे तथा वृक्ष परसे उड़कर दूसरे स्थान पर जाता है उस समय वह किप्त आधार पर गमन कर रहा है ?। इसको विचारमें से यह पता अव.. श्य लग जायगा। उस समय वहां पर उसके लिये कोई पदार्थ आधार है । यदि इसके लिये वायुको ही उसका आधार बताया जाय तो वही प्रश्न. पुनः उपस्थित होगा कि वह वायु' कहां मरी हुई है ? | मनुष्योंके चलते समय पैर जिस प्रकार पृथ्वीपर स्थिर हैं उसी तरह उनके शरीरका ऊपरी भाग. किस स्थानमें ठहरा हुआ है । इन शंकाओंको निराकरण करने के लिये आकाशद्रव्यको अवश्य मानना पड़ेगा। यहीं आकाश सर्व द्रव्योंको अवकाश देता है और वह स्वयं स्वप्रतिष्ठित है । क्यों कि आकाशद्रव्यको भी अवकाश देनेवाला उससे बड़ा अन्य कोई द्रव्य नहीं है । अतएर यह सर्वव्यापक है। ऐसा कोई स्थान नहीं. जहां आकाश न हो । जसं पोल दिखाई देती है। वह मी. आकाश. ही है। यह बात नों कही जाती है कि !" इस जगतमें भी पदार्थ भरे हुए हैं."। यह भी आकाशके लिये ही है। क्योंकि जगत सर्व द्रव्यों का समूह ही कहलाता है अतएव सर्व पदार्थोका निवास : आकाशमें ही हो सकता है । यद्यपि यह असंख्यात प्रदेशी है किन्तु अनगाहन शक्तिके: कारण अनन्त जीव तथा :अनंत पुग्छ एवं धर्म, अधर्म, द्रव्य इसमें समा जाते हैं । जैसे जलसे पूर्ण मरे हुए कलशमें यदि एक सेर, शकर और डाल दी जाय तो वह भी उसमें समा नायगी । फिर मी यदि सौ. सुइयां और उसमें डाल दे तो वे भी उसमें आ जायगी। इस लिये सम्पूर्ण द्रव्योंको भवकाश देनेवाला सर्वव्यापक आकाशद्रव्य अवश्य है और उसमें.. जहां तक: धर्म, अधर्म, पुद्गलांदि द्रव्ये प्राप्त होती हैं वहीं तक, जगत है जिसको दूसरेः. शब्दोंमें कोक या लोकाकाश कहते हैं उसके बाद अलोकाकांश: है । यहः सप्रमाण युक्ति योंके द्वारा सिद्ध हो गया । . इस तरह जीवद्रव्य तथा चीर मनोवंद्य प्रमाणोंसे सिद्ध हो गई। अस्तु । ..अब हमको यह और अनुसंधान करना है कि आकाशद्रव्य जिप्त प्रकार द्रयों के लिये अवकाश देता है। जिससे कि उनकी सुगवस्थिति है तथैव पत्येक पदार्थको : परिवर्तन करानेवाला मी कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिये । क्योंकि यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि एक वस्त्र यदिः किती सुरक्षित स्थानमें मी. रखदे तो भी वह कुछ दिन पश्चात अपने प जीर्णशीर्ण होकर भस्म हो जाता है । वृक्षपर लगा हुआ हरा आमका फल कुछ दिन : पश्चात क्यों पीला हो जाता है । छोटा बच्चा कुछ दिनोंके अनन्तर क्यों बड़ा हो जाता है. भादिः । .:... ... . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव सर्व पदार्थाका परिगमन कराने वाला एक कोई द्रव्यान्तर अवश्य है यह निश्रय हो गया । उसका नाम 'काल' नियत किया है । अस्तु । .... . पदायोंकी नवीन दशासे जीर्ण दशा करते रहना काल द्रयका प्रधान कार्य है। . अर्थात् स्वयं परिणमन करनेवाले पदार्थका निमित्तकारण काल है। इसके लिये यदि कोई . महाशय समाधान उपस्थित करें कि "पदार्थोंको नवीनसे पुराना बनानमें घडी, घंटा, दिन आदि कारण हैं कालको एक और दम्पान्तर स्वीकार करना व्यर्थ है" । तो विचारके सम्मुख उनकी यह शंका भी नहीं ठहरती है। क्योंकि बही, र, दिन, बर्ष मादिमी स्याहार है। क्योंकि जिस प्रकार "एक मनमें चालीस सेर होता है। यह एक शावहारिक बात ही है क्योंकि कार्य चलाने के लिये पैसा मान लिया है तथैव व्यवहार के लिये ऐसा मान ससा है कि सूर्य पूर्व से पश्चिममें जबतक पहुँच उतने समयको दिन कहां हैं और उसमें बारह घंटे होते हैं । एक घंटे में साठ मिनट या घाई घडी होती हैं। मदिरा क्योंकि यदि कार्य नहाने के लिये हम घंटेको पैंतालीस मिनटका निश्चय कर मेसा कि प्रायः स्लों में किया जाता है तब भी वह घंटा ही रहेगा। पौन घंटान होगा। इस कारण यह समी महार काल है । अतएव वास्तविक कार ए मवश्य विद्यमान है। क्योंकि जो व्यवहार के लिये पाषाणमूर्तिको सिंह जभी फहसके हैं जबकि सिंह नाम । यथार्थ कोई पदार्थ अवश्य हो । इसी प्रकार बंश, बड़ी, समय आदि तभी कहा जाता है जबकि कोई भी कार पदार्थ है। उसी से कार्य चलाने के लिये अनेक प्रकारके भनेक सफेन बना लिये हैं। यह व्यवहारकाल पदाकि पपीय बदलनेसे, सूर्य, चन्द्रादिकी गमन आदि किसानोति, समयानुसार पदायाँक छोटेपन और बड़ेपनसे जाना जाता है। और निश्चय या यमार्य अपवा वास्तविक काल द्रश्यके बिना यह व्यवहारका सिद्ध नहीं हो सत्ता है। इसके अतिरिका एक यह भी समाधान है कि जगतमें ऐसी कोई मी एकाझी ( अना) या सप्तमात ( सगास रहित ) शब्द नहीं है जो कि किसी पदार्थका पाचक न हो अति संसारमें जितने भी शब्द उपलब्ध होते हैं समीके पाच्य पदार्थ अवश्य . विद्यमान है।भसे वरविषाण, या भाकाशप ये शब्द पद्यपि किसी पदार्थक वाचक नहीं है। किन्तु इनके प्रथा पर अवश्य ही किसी पदार्थ के कहनेवाले हैं। क्योंकि आकाश मी जगतमें एक पदार्थ है ही। और पुष्प भी वृक्षोंपर विधमान ही है। इसी प्रकार संसारमें 'काल' शमपी मिटता है तब इसका भी कोई न कोई पाच्य अवश्य है यह नियमानुसार . मीकार करना पड़ेगा। इसी. कालकी सबसे छोटी पर्याय समय कहलाती है । इसी समय के अनुसार प्रत्येक पदार्थका सूक्ष्म परिणमन होता रहता है । कालं द्रव्य के अणु (सबसे छोटे खंड) कोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर प्रयक मथक स्थित हैं इसी कारण कालद्रव्य अन्य Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . द्रव्योंकी तरह कायशला नहीं है। क्योंकि आकाश द्रय अखंड है। इसीलिये लोकाकाशमें विद्यमान काल द्रव्य के द्वारा अलोकाकाशका भी परिणमन .. होता रहता है। जिस तरह आकाशं द्रव्य स्वप्रतिष्ठित है तथैव कालद्रव्य के परिणणन में भी अन्य द्रव्य सहकारी नहीं है। इस प्रकार प्रमाणिक युक्तियों के बलसे काल द्रव्य सिद्ध हो गया जो कि द्रव्योंकी: द्रव्यतामें प्रधान कारण हैं। अस्तु । '' इस तरह अजीव द्रव्यकी पांच जातियां सिद्ध हो गई अधिक नहीं। क्योंकि उनके लक्षण तथा प्रधान गुण भिन्न भिन्न हैं । किन्तु जीव द्रव्यकी अन्य कोई जाति नहीं है । कारण यही है कि समस्त जीवोंके लक्षण, गुण, स्वभाव सामान्यतया समान ही है.. अतः कहना पड़ेगा कि द्रव्य ६ छह हैं। समस्त जग जनाल : इन्हीं छह विभागोंमें विभक्त है। अतएव द्रव्यं न तो सात, आठ आदि- अधिक हैं और न छहसे कम ही हैं इसका कारण यह है कि इन छह द्रव्योंके सिवाय अन्य कोई पदार्थ शेष नहीं रहा. इस लिये तो अधिक मानना व्यर्थ है । और यदि इन छहसे कम स्वीकार करें तो संपूर्ण पदार्थ न आ सकेंगे । अतएव जगतमें द्रव्य छह ही हैं। . . .... .. . ___ माननीय महाशयों ! यद्यपि षट् द्रव्यकी आवश्यक्ता तथा सिद्धि, संक्षिप्त रूपसे. भी बहुत संकुचित है क्योंकि यह विषय समुद्र के समान गंभीर तथा, घुमेरुके समान उन्नत अथवा आकाशके समान विस्तृत है । किन्तु आपके समयानुसार यही पर्याप्त होगा। क्योंकि विज्ञ महोदयोंके लिये सारांश ही प्रमोददायक होता है। अतएव लेखनीका पर्यटन इसी स्थलपर समाप्ति भूमिको प्राप्त करके कृतकृत्य होता है। ... ... आवेदक-अजितकुमार शास्त्री, बबई । ... सिद्धांत ग्रंथ श्री गोम्मटसारजीकी बडीटीका । . श्रीमन्नेमिचंद्रनी सिद्धांतचक्रवर्ती कृत मूल प्राऊन गाथा व संस्कृत...छाया . दो बड़ी टीकाओं सहित व स्व० ० टोडरमलजी कृत बड़ी हिन्दी टीका सहित यह ग्रंथराज छह खंडोंमें विभक्त किया गया है। पहला दुसरा खंड जीवकांड १७) तीसराचौथा, पांचमा कर्मकांड २४).रुऔर छठवा लब्धिप्तार क्षपणसार : १२) अब ग्रंय पूर्ण हो गया ... है. अतः जिन. २ महाशोंने १ या २ या ३ खंड मंगाये हैं उन्हें ४-५-६ खंड मंगाकर अपना ग्रंथ अवश्य पूर्ण कर लेना चाहिये । अधूरे ग्रंथसे कुछ लाम नहीं। यह ग्रंथ प्रत्येक ____ मंदिर, पाठशाला व ग्रहस्यके घर में रहना चाहिये । छह खंड है साथ मंगानेवाओं को ५१)में - रु० दे दिया जायगा । पृ० संख्या ४.१:०० व श्लोक संख्या अनुमान १,२९०००के हैं। मैनेजर दि जैन पुस्तकालय -सूरत। . ... ... : Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... .. . .... . . ... धर्म जानते हुए भी संपूर्णतया न कह सके उन अनंत गुणात्मक द्रव्योंका कथन करनेक हेतु मैं तुच्छमति होकर भी लेखनी ग्रहण करता हूं यह देख विद्वान लोग मुझे पागल कहेंगे और वास्तवमें ही मेरा प्रयत्न उस दालकके समान है. जो दोनों हाथ फैला कर समुद्रका माप बतलाता है कि इतना बड़ा है । पर हां ! जो कुछ कहूंगा सो गुरूगम और अनुभवसे कहूंगा । कहीं चूकू तो छल नहीं समझना और न गुरूका दोषे समझना । (१) एक कटोरेमें दही रखिये। उसे नेत्र इन्द्रियसे देखिये तो उसमें रंग है, नाकसे सुधिये तो उसमें गंध प्रतीत होती है, जीभसे चलिये तो उसमें स्वाद जाना जाता हैं, दहीको हाथमें लीजिये तो उसमें चिकनाहट नरमता और वजनका बोध होता है : सारांश ! दही इन्द्रिय गोचर है । अब कुछ दही कटोरेमें ही रक्खो सौर कुछ दही कटो: रेमेंसे हाथमें लेओ तो मालूम हो जावेगा कि दहीके खड़ होसक्ते हैं । अब हाथमेंका दही कटोरेमें ही छोड़ देओ तो वह फिर मिल जावेगा । इससे यह भी प्रतीत होता है कि दहीमें इन्द्रिय गोचरताके सिवाय मिलने विठुरनेका गुण है इसलिये । पुरयति गले. यंति पुद्गलाः" की नीतिसे दहीको पुदगल कहना चाहिये । दह के समान अन्य वस्तुएं भी जो इंद्रिय गोचर हैं वे सब पुदगल हैं जैसे छड़ी, घड़ी, धोती टोपी, कागज * कलम, ताला, तलवार, टंका, पैसा आदि । . पुदगलोंके ये रूप, रस, गंध, स्पर्श, गुण सदा स्थिर नहीं रहते, सदा बदलते रहते हैं। अर्थात् वर्णसे वर्णान्तर, रससे रतान्तर, गंधसे गंधान्तर और स्पर्शसे स्पर्शान्तर हुआ करते हैं । जैसे जिस आम्रके फलको हमने कल हरा देखा था वह आज.मिष्ठं पीला दिखता है और थोड़े कालके बाद लाल दिखने लगता है । जिस फलको हगने कल सट्टा देखा थ वह आन मिष्ट देखने हैं और थोडी देरमें विरस हो जाता है । इन गुणोंके गुणशिःभी सद बदलते रहते हैं जैसे जिस ककडीको हमने कल बहुत हरी देखा था: आज इसमें कर हरियाली देखते हैं और कुछ कालमें वह पीली दिखने लगती है। ये गुणांश ऋभी कम इतने हीन प्रगट रहते हैं कि इन्द्रिय गोचर भी नहीं होते जैसे कि अग्निकी गंध, वायुक . रंग इत्यादि । परन्तु यह :पष्ट है कि वर्ण ५ रस ५.गध र स्पर्श इन २० मेसे जह .१ भी धर्म पाया नावे उसे पुदगल जानो ! पुदगलोंकी हालतें सदा बदलती रहती है . . जैसे पानीसे भाप, कुहरा, ओस बादल होते रहते हैं । अथवा अन्न, पानी, हवासे शरी हड्डी चमडा खून मांस, वीर्य आदि हुआ करते हैं। जब वे पुदगल आपसमें टकरा हैं तो दायु मंडलकी हमाको धक्का लगता है, फिर वह हवा एक दूसरे वायु कणोंको धक्क देती है यहां तक कि कानकी झिल्लि तक धक्का पहुंचता है और आवाज सुनाई देती है. इस चित्रमें देखो एक लकड़ीमें सूतसे बंधी हुई गोलियां लटक रहे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं अब एक गोलीको धक्का देओ तो वह दूसरेको और दूसरी तीसरी .. आदिको धक्का देगी ऐसा ही शब्दमें होता है । शब्द: भीत ऑदिसें. bodob रुक जाता है और कभी उलटकर पुनः सुनाई देती है उसे प्रतिध्वनि ..... कहते हैं । इससे स्पष्ट है कि शब्द. मूर्तीक है और मूर्तीक पुदगलोंसे उत्पन्न है । परन्तु शब्दको पुदगला गुण नहीं कह सकते : क्योंकि वह पुद्गलमें. सदा नहीं रहता और: गुण वही होता है जो पदार्थमें सदा रहता है. अतः शब्द पुद्गल की पर्याय याने हालत है। बहुतसे मतान्तर वादी शब्दकों णाकाशका गुण बतलाते हैं उन्हें हम सम्बोधन करते हैं कि अरूपी अाकाशसे मुर्तीक शब्द नहीं निस्पन्न हो सक्ता अगर शब्द आकाशका गुण होता तो लोक अलोक सदा एकसा शब्दायमान रहता और यह घंटेकी आवाज, यह बांसुरीकी तान और यह वीनकी ध्वनि है ऐसा वोव नहीं होता। इतने थोड़ेही वक्तव्यसे आप लोग समझ गये होंगे कि जो कुछ इन्द्रिय, गोचर है वह पुदंगल है इस लिये. अँधेरा, धूप, छाया, प्रकाश, शरीर, वचन, जल, वायु, अग्नि, पहाड, स्वास निस्वास, आदि सब पुद्गल हैं। विनली, टेलीफोन, रेल, तार आदि सब पुदलके चमत्कार हैं। कई मतान्तर वादी कहते हैं कि जो कुछ हम देखते. सुंचते.. सुनते हैं यह सबै मिथ्या अर्थात् असत् है । इसका निराकरण हम केवल इतनेमें ही करके आगे चलेंगे कि जो वे यह कहते हैं " कि जगत मिथ्या है भ्रांति है । सो उनका ऐसा कहना भी भ्रांति हुआ अतः उनका मिथ्या भ्रांति रूप वचन भी प्रमाण नहीं हैं। . अब एक चाक मिट्टीका टुकड़ा लेओ उसमेंका एक खसखससे भी छोटा टुकड़ा स्लेट पर रक्खो । उस छोटेसे कणके चाकूसे जितने बन सके खंड करो। उन खंडोंमेसे सबसे छोटे खडके फिर खंड करो, यदि साधारण प्रकाशसे काम नहीं चले तो धूपमेंसे . खंड करो और सबसे छोटे खडके पुनः खंड करो, यदि साधारण आखोंकी दृष्टि काम न देवे तो चश्मेसे काम , लेओ और खंड करो। फिर चश्मा काम नं देवे तो माइक्रांसकोपसे देखके खंड करो । नत्र माइक्रासकोपसे भी निरुपाय होते देखो तो बहुत बढ़ियां सुक्ष्म दर्शक यंत्रसे देखकर खंड करो । और जब सूक्ष्मदर्शक यंत्र भी व्यर्थ होने लगे तो .. ज्ञानसे खंड विचारौ । बस सबसे छोटेमें छोटे पुद्गल अणुको निसका फिर खंड नहीं हो : सके उसे बुद्धिसे विचारो उसीका नाम परमाणु है। ऐसे परमाणु भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण : वंत रहते हैं क्योंकि किसी वस्तु के गुण कभी नष्ट नहीं हो सक्ते । जब कि इन परमाणु में स्निग्धता रुक्षता सदा स्वाभाविक रहती है तो वे एक दूसरे मिला करते हैं और दो .. तीन चार संख्यात असंख्यात अनंतकी संख्यामें भी मिल जाते हैं ऐसी बन्ध रूप दशामें : उन्हें स्कंध कहते हैं । अब आप सोच सक्ते हैं कि परमाणु ही असली पुद्गल है जिसकी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८ ) ' ईंट, पत्थर, कागज, कलम आदि हालते हैं । पुद्गल वस्तुका अस्तित्व वर्तमान में तो स्पष्ट ही सिद्ध है और पूर्वकालमें उसका अस्तित्व हमारी स्मृति सिद्ध करती है कि कल परसों: और उसके पूर्वकालमें हमने पुदगलोंको देखा सुना अनुभवन किया था । इतिहास और पुरानी कथाओं से अनंत मृतकालके दलोंका अस्तित्व प्रतीत होता है। अब आगामी कालमें भी पुद्गल पदार्थोंका अस्तित्व रहेगा इसमें कोई सन्देह कर सक्ते हैं अतः प्रधानतयां इसी पर विचार करना है। पदार्थोंमें गुण होते हैं और गुण वही हैं जो पदार्थोंसे कभी अलहदा नहीं होते सदा सहभावी रहते हैं । धनके कारण मनुष्य धनवान् कहलाता.. है, ऊंटके पास रहने से ऊटवान और गाड़ीका स्वामी होनेसे गाड़ीवान कहलाता है, ऐसा. गुणों और वस्तुओं अर्थात गुण गुणीका संयोगी सम्बन्ध नहीं है क्योंकि धनवान जुदी वस्तु है और धन जुदी वस्तु है । अतः अनिका उप्णताके साथ, जीवका ज्ञानके साथ जैसा सम्बन्ध है वैसा ही गुण गुणीका सम्बन्ध है, कभी ऐसा नहीं हो सक्ता कि अत्रिकी उष्णता तो आप रखने और अनिको मैं अपने पास रखख । इसी प्रकार यह भी नहीं हो सक्ता कि आपका ज्ञान मेरी थैली में रक्खा रहे और आप घर पर बैठे रहें । बस ! इसी प्रकार स्पर्श रस आदि गुणोंका पुढउसे सम्बन्ध हैं- श्री स्वामी कुंदकुन्द मुनिंद्रने कहा है कि दव्वेण विणा पण गुणाः गुणेहि दव्वं विणा णः संभवदि अन्वदिरित्तो भावो दव्य गुणाणं हवदि तहमा ॥ 24 भावार्थ - द्रव्यके विना गुण नहीं होते और गुणोंके विना द्रव्य नहीं होते इस लिये द्रव्य और गुणका 'अव्यतिरिक्त भाव है। कहने का अभिप्राय यह है कि पुलके स्पर्श रस आदि गुण कभी नष्ट नहीं हो सके इससे उसका आगामी कालमें कायम रहना स्पष्ट तथा सिद्ध होता है । सारांश ! पुद्गल ये हैं और रहेंगे। इसी कारण पुद्गल पदार्थ सत् है, सतुका कभी विनाश नहीं होता और कभी असत्का उत्पाद नहीं होता यही वस्तुका वस्तुत्व है । सूत्रजी में कहा है कि सत- उत्पाद, व्यय, ध्रुव युक्त होता है. अर्थात वस्तुकी हालतें बदलती रहती हैं पर वस्तु कायम रहती है । . : जिस प्रकार पुद्गलमें स्पर्शादि गुण हैं वैसे ही थाली लोटा आदि पर्यायें भी हैं । भेद इतना है कि गुण तो साथ रहते हैं अर्थात सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमशः होती हैं अर्थात क्रमभावी होती हैं । भाव यह कि एक द्रव्यमें एक कालमें एक ही पर्याय होती है पश्चात् दुसरी, पश्चात् दूसरी, पश्चात् दुसरी, पश्चात् दूसरी, वस । यही उसका उत्पाद व्यय है अर्थात् एक पर्यायका लय हो जाना और दूसरीका प्रगट होना फिर उसका ..... भी उसीमें लय हो जाना और तीसरीका प्रगट होना । *... Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने हाथमें आटेकी लोई लीनिये वह गेंदके समानं गोल है उसे दया कर बाटी बनाइये अब वाटी पर्याय. प्रगट होगई और लोई. पर्याय: कहां गई ? उसीमें समा .गई। अव वाटीको और बढ़ाइये तो रोटी पर्याय प्रगट होगई और वाटी पर्याय उसीमें समा गई । पर लोई, वाटी, रोटी आदि सब हालतोंमें आटा वस्तु. मौजूद है । इस.. . थोडेसे ही कथंनसे आप समझ सक्ते हैं कि पुद्गलं पदार्थोंमें गुण हैं और पयायें हैं इस लिये । गुणपर्यायवद्रव्यं " की नीतिसे पुदगलोंको' द्रव्य कहना चाहिये । और द्रव्य, · वस्तु, पदार्थ, तत्व आदि प्रायः एकार्थवाची हैं । समयसारनीमें कहा भी है-.. ... दोहा-भाव पदारथ समय धन, तत्व वित्तं वसु दर्व। ... . . .. द्रवनि अर्थ इत्यादि बह, नाम वस्तके सर्वः ॥: :.. .:. . यह बात भी प्रत्यक्ष सिद्ध है कि पुदगल परमाणु अनंतानंत हैं जो नाना अव : : स्थाओंको प्राप्त हुआ करते हैं और कभी भी सर्वथा नष्ट नहीं होते । यदि पुदगल पदार्थ न होता तो न पानी होता, न हवा होती, न सभा होती न, सभा मंडप होता, न. शरीरधारी सभापति होते, न सभासद होते और न व्याख्यान होते । सारांश ! जो कुछ हम देखते सुनते हैं कुछ मी न होता । स्मरण रहे कि पुदगल अपने स्वरूपसे ज्ञान हीन और वे जान है इस लिये वह अजीव है । साइंसके विद्वानोंने जो अब तक ६६।६७ तत्व खोजे हैं और भी खोन रहे हैं वे सब पुद्गल विज्ञानी बा जड़. विज्ञानी हैं । परन्तु - हम अपने पाठकोंको आत्म विज्ञानकी ओर झुकाया चाहते हैं। . . . . : (२) भाप अपने एक हाथसे, दूसरे हाथमें चीमटी लीजिये और कुछ नादा. दवाइये। तो स्पर्श, रस,गंध, वर्णवंत शरीरके सिवाय एक और विलक्षण पदार्थ ज्ञात होगा निसे यह बोध होता है कि हमें दुःख हुभा, हमें दवायां है, हमने दबाया है, हम पकड़े. गये, हमने जाना, हमने देखा। यह जानने वाला शरीरके लक्षणोंसे भिन्न लक्षणोंवाला . है बसें । यही ज्ञायक लक्षण आत्मा है और वास्तवमें यही तुम हो, तुम शरीर नहीं हो आत्मा हों जीव हो । जीवके रहते नड़ शरीरको लोग जीवित कहते हैं। मुख्यतया हमें नीव पदार्थको ही समझना और समझाना है क्योंकि अहिंसा और आत्म बलका . सम्बंध नींव पदार्थ ही से है । यह आत्मा शरीरसे इतना तन्मय रहता है कि शरीरको पकड़ो तो मात्मा भी पकड़ा जाता है । शरीरको पीटो. तो. मात्माः पिट जाता है। क्या झाड़ क्या चिंटी क्या हाथी सबके शरीरमें मात्मा रहता है: । इन्द्रियोंके व्यापार और .. कायकी चेष्टासे उसका अस्तित्व प्रतीत होता है । परंतु शरीरकी अचेतन परणखिसे जीव . की चैतन्य परणति जुदी देखनेमें माती है। जिसे लोग : मरजाना कहते हैं उससे जीव : पुद्गलकी पृथकता स्पष्टता सिद्ध है । गृत प्रेत, पूर्वभव स्मरण आदिक दृष्टांत जगह जगह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलते हैं । मथुराके एक नामांकित श्रीमान्के यहां पुत्र था जो अपने पूर्व भवका हा पूरा पूरा और काविलं यकीन बतलाता था। इससे यह भी स्पष्ट सिंड होता है किं. जी .. पहिले शरीरमें था और एक शरीर छोड़ने पर उसने दूसरा शरीर धारण किया । अर्था • जीव था, है, और रहेगा। क्योंकि शरीरकी स्थितिकी अवधि सिद्ध है और जीवन स्थितिकी अवधि नहीं है । वह अपरिमित कालसे है और पूर्ववत अपरिमित काल त रहेगा । शरीरका छोड़ना और ग्रहण करना कपड़े बदलने के समान है । अज्ञानसें जै . हम कपड़ों के संयोग वियोग, नवीन प्राचीन पनेमें हर्ष विषाद करते हैं वैसी ही शरीर मिथ्या अहं बुद्धि करनेसे राग द्वेष होता है । परन्तु शरीर-पुद्गल है . जड़ है जीवसे प है। आत्मा चैत्यन्य है ज्ञाता है और स्व है तथा अचेतन परणतिसे निराला है । यर्या वह रंग, रस, गंध रहित होनेसे इन्द्रिय गोचर नहीं है तथापि स्वानुमवं गोचर अवश्य है इसीका नाम भेद विज्ञान हैं और यही सम्यक् दर्शनका कारण है। :: भाधुनिक आन्दोलनकी सफलताके हेतु ऐसे विज्ञानकी अतीव आवश्यकता है। जिन्हें इस प्रकारका दृढ़ विज्ञान है वे ही शांति और सत्याग्रह धारणकर सक्ते हैं. वे ही सच्चे स्वयम् सेवक वन सक्ते हैं और उनके ऊपर दमन नीतिका वल नहीं चलता वे दमनको भी अमन समझते हैं और और अंतमें दमन ही का शमन होता है। . सुवर्णकी घाऊको जन हम देखते हैं तब धाऊमें वनन आदिसे सोनेका अस्तित प्रतीत होता है पर सुवर्णका असली रूप प्रगट नहीं दिखतां । यदि घाऊको विवेक पूर्व भट्टीमें तपावें तो उज्वल. सुवर्ण जुदा हो जाता है और किट्टिमा जुदी रह जाती है इस तरह जब जीवात्मा तपकी अग्निसे. तपाया जाता है तब वह उज्वल होकर शरीरसे अलं हंदा हो जाता है ऐसा अशरीरी आत्मा पापके बोझसे रीता होकर ऊपरको गमन करता और लोकाग्रमें नाके टिकता है (लोकायका स्वरूप धर्म द्रव्यके कथनमें स्पष्ट हो सकेगा। यह. अशरीरी आत्मा सब : पदार्थोमें सारभूत, शुद्ध, बुह, निरविकल्प, आनन्द कन्द चिञ्चमत्कार, विज्ञानधन, परमदेव होता है। यही हमारी आत्माका वास्तविक स्वरूप है और हमें उपादेय है । ऐसे ही आत्मा पूर्ण आत्मबल सम्पन्न और सच महिंसक हैं । यहां · नौकर शाहीकी. हुकूमत नहीं पहुंचती और न पर राष्ट्र उनका रक्त चूस सक्ती है। ये सचे स्वराज्यको प्राप्त हैं । गुलामगीरी उनके स्वभावमें नहीं है उनके पूर्ण ज्ञानका चरखा सदा वनित रहता है और पूर्ण आनन्दका एकसा. सूत निपजाता है कभी तागा टूट नहीं सक्ताः । अभिप्राय यह हैं कि जिस प्रकार साबुनसे धोनेपर गंदे और मलिन कपड़े निर्मल होजाते. हैं उसी प्रकार पराधीन और इन्द्रियोंके विषयोंकी गुलामगीरीमें सुख माननेवाले हमारे माप ' जैसे गर्दै आत्सा पंड् द्रव्य विज्ञान के साबुनसे उज्वलं हो जाते हैं। नीसमयसारजीसें कहा है Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... : दोहा.-भेदज्ञान सावू सरस, सम रस निर्मल, नीर । ..' घोवी अंतर आत्मा, धोबै निज गुण चीर ॥ ...... बस ! पढ़ द्रव्य ज्ञान और जैन धर्मका यही महत्व और फक्र है कि चिंटी आदिके शरीरमें रहनेवाला और जलियाना वागसे भी भयंकर यातना भोगनेवाला परतंत्र आत्मा उन्नति करते करते त्रैलोक्यका शिखामणि होता है जिसकी सच्ची स्वतंत्रता कल्प .. • काल तक क्या कभी भी नष्ट नहीं होती। .. . मन तो विल्कुल स्पष्ट सिद्ध हो गया कि नीव पदार्थ सदाकालसे था है. और . रहेगा । विशेष यह कोई जीव तो गंदे कपड़े जैसी संसारी दशामें रहते हैं और कोई : उज्जल कपडे जैसी सिद्ध दशामें हैं जहां फिर मलिनता नहीं पहुंचती। श्री गोमहसार आदि महाशास्त्रोंमें जीवोंकी गंदी और उज्ज्वलताकी अवस्थाओं तथा उनके कारणोंका ..वर्णन है जिसका यहां उल्लेख करना गागरमें सागर भरनेके समान नितान्त कठिन है। केई मतांतर वादी कहते हैं कि मोक्ष होनेपर आत्मा शून्य हो जाता है कोई कहते हैं, परमात्मामें लय हो जाते हैं, कोई कहते हैं कि चिरागके समान बुझ जाता है, कोई कहते हैं कि जड हो जाता है इत्यादि अनेक कल्पना करते हैं । परन्तु हम पूर्वमें स्पष्ट कर आये हैं कि किसी पदार्थके गुण कमी नष्ट नहीं हो सक्ते अतः चेतियता चेतना चेतता था चेतता है और चेतता रहेगा। - जिस तरह एक छाया पर दृगरी तीसरी मादि करोड़ों छाया समाया करती. है उसी प्रकार । । ... एक माहों एक राजें एक मार्टि अनेकनो। .:. .... इक अनेकाकी नहीं संख्या, नमो सिद्ध निरंजनो॥ .. ::... - मनुप्यके आकारकी मेनकी एक पुतली बनाइये उसे कारीगरी के साथ लोहेसे - मैंड दीजिये। फिर उसे तीक्ष्ण नांच दिखाइये तो मैनकी खाक भी नहीं बचेगी सब 'उड़, जावेगा । यदि छत्तके. ऊपर बड़ा चुम्बक लगाया जावे तो वह. पुतली ऊपर जा: .: 'लटकेंगी। अब उस लोह पुतलीके अंदर जो पोल है वह सिद्धात्माकी आकृतिकाः दृष्टांत है। भेदं यही है कि वह: पोल अनीव है और शुद्धात्मा चैतन्य मूर्ति आनंदकंद है । बहुसे मनुष्य मोक्षमें ना टिकनेको एक कैदखाना कहने लगते हैं सो उनका कहना उन स्वराज्य' द्रोहियोंके समान है जिन्हें गुलामगीरीकी वंद-आदते बहुत कालसें पड़गई है। उन्हें स्वराज्यकी प्राप्तिमें दुख ही दुख दिखता है वे स्वराज्य नहीं वांछते, दासता ही के टुकडोंमें प्रसन्न हैं। . .......... Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४). कि जबसे पदार्थ हैं और जब तक पदार्थ रहेंगे तब तक बराबर परिवर्तनकी रीति चालू 15 . रहेगी अर्थात् अनंत भूतकालसे यह पद्धति चालू है और अनन्त भविष्यत काळतक रहेगी। ऐसा क्यों होता है ? यह विचारें तो अवस्थासे अवस्थांतर होनेका असली . अर्थात उदान कारण वे ही पदार्थ हैं जो अवस्थान्तर हुए हैं। यदि दूधमें दही बननेका खासा न होता तो किसकी मजाल थी कि दूषसे दही बना देता । पर विना बाह्य कारण के भी काम नहीं हो सक्ता 1 विना रई घुमाये अर्थात् मथन किये बिना मक्खन नहीं मिल सक्ता है । दूसरा दृष्टांत लीजिये कि जो कुंभकारका चक्र घूमता है उसका उपादान कारण चक्र स्वयम् ही है कुंभकार दंडा आदि प्रेरक कारण हैं परंतु यदि वह खूंटी जिस पर चक्र घूमता है वह न हो तो भी चक्र न घूम सकेगा ऐसे कारणोंको उदासीन निमित्त कारण कहते हैं। • बस ! सब पदार्थोके अवस्थान्तर होने में खुंटीके समान जो उदासीन निमित्त कारण है वही काल हैं। जीव पुद्गलों आदिकी हाकतें बदलने में वह प्रेरक नहीं, निमित्त रूप है । वह मूर्ती पुग्देलोंसे भिन्न लक्षणोंवाला अर्थात् अमूर्तक, और नीवके चैतन्य धर्मसे विलक्षण अर्थात अचेतन ही होना चाहिये । मिनिट, घंटा, पहर, वर्ष आदिको लोग व्यवहार में काल कहते हैं पर वह पुद्गलों की परणति से प्रगट होता है अर्थात् घड़ीकी बड़ी सुई जब बारा नंबरोंपर चक्कर लगा देती है तब लोग कहते हैं कि एक घंटा हो गया । : स्वामी कुन्दकुन्दने कहा है कि " तझा कालो पहुच भवो " अर्थात् व्यवहार काल पुदगलाश्रित है परन्तु इस व्यवहार कालसे वास्तविक काल जो पदार्थोको अवस्थान्तर कराता है निराला है वह जीव द्रव्यके समान अमूर्तीक वस्तु है भेद इतना है कि जीव माप में वड़ा है। और कालका प्रत्येक कण परमाणुके बराबर है । परन्तु परमाणु मूर्तीक है और काला अमूर्तीक है | चांदीकी एक पाट लेओ जो लाखों परमाणुओं के बराबर है यह जीव पदार्थका दृष्टान्त है । अव चांदी की एक रेतनका एक बहुत ही छोटा कण लेओ यह कालाणुका दृष्टान्त है । ऐसे कालाणु सब लोकमें भरे हुए हैं । यह स्मरण अवश्य रहे कि चान्दीकी रेतन पुदगल है उसमें स्निग्धता रुक्षता है जो मिलकर पाट बन जाती है पर कालके दाने में स्निग्धता रूक्षता नहीं है इससे कालके दाने एक दूसरेसे कभी नहीं घ सक्ते हैं । इसी कारण वे अकाय हैं । : - जिस तरह जीव दूसरोंको जानता और अपनेको भी जानता है उसी तरह काल पदार्थ दूसरोंको वार्ताता और अपने को भी वर्ताता है । जब कि वह स्वयम् वर्तता है तो उसमें पर्यायें उपजतीं और लय होती हैं । ये अरूपी पर्यायें षट् गुण पतित हानि वृद्धिका स्वरूप समझने से बुद्धिमें आ सक्ती हैं परन्तु यह विषय सक्ष्म है यहां लिखने से लेख Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुल्यता होगी। सारांश कालमें गुण और पर्यायें होती हैं अतः वह द्रव्य सिद्ध होता है। . यदि काल पदार्थ न होता तो निमित्तके बिना पदार्थोंकी हालत न बदलती उनमें उत्पाद व्यय नहीं होता । जो पदार्थ जैसा है वैसा ही रहता जो आम हरा है वह हरा . ही रहता पीला न होता न सड़ता और न छोटा बड़ा होता। - हमारे श्वेताम्बर बंधु इस अतीव आवश्यक द्रव्यका अस्तित्व नहीं मानते । परन्तु नव वे गति स्थिति स्थानके हेतु, निमित्त भूत धर्म अधर्म आकाशको वांछते हैं तो कालके . बिना भी काम नहीं चल सक्ता परिवर्तनाके हेतु भी निमित्त होना ही चाहिये। ... ब्राह्मण धर्म शास्त्रों में भी कालका उल्लेख है । और कहा है- .. चौपाई.-सिरजत काल सकल संसारा। करत काल तिहुँ लोक सँहारा॥ - सब सोवत जागत है सोऊ । काल समान बली नहिं कोजा . यह कथन जैन मतके स्याद्वादसे सम्यक् सिद्ध होता है। अर्थात् काल पदार्थ संसारकी नवीन पर्यायों को उत्पन्न कराता है और प्राचीन पर्यायोंको लय कराता है। परन्तु यदि कोई यह समझ जावे कि काल ही उत्पन्न करता है, काल ही नष्ट करता है तो यह . "ही" लगानेसे एकान्तवाद हो जाता है और वह दूषित है ॥ कहा भी है___ . द्रोहा-पद स्वभाव पूरव करम, निच्चय उद्यम काल । पक्षपात मिथ्यात सब, सर्वाङ्गी शिवचाल ॥१॥ कालके संबंधमें एक बड़ी भारी शंका यह होती है कि काल पदार्थ जब लोक मात्रमें है तो वह भलोकाकाशको क्यों कर परिवर्तित करता है । इसका समाधान कुन्द... कुन्द स्वामीने बड़ी कड़ी युक्तियोंसे किया है उनमेंसे एक मोटीसी यह है कि जिस प्रकार शरीरके मध्य भागमें मैयुन होता है और उसका अनुभव सर्वांग होता है । उसी प्रकार - काल भी आकाशके मध्यमें रहके संपूर्ण आकाशको वर्ताता है। . हमारे ऋपियोंकी कथन शैली ऐसी सुन्दर है कि वार वार द्रव्यानुयोगके शास्त्रों का कथन चितवन करनेसे मरूपी काल द्रव्य भी स्पष्टतया समझमें आने लगता है। . . . ४-अब-हम चौथे पदार्थ पर माप लोगोंका चित्त झुकाया चाहते हैं । आप देखिये पुस्तक टेबिल पर रक्खी है, टेबिल प्लेटफार्म पर है, प्लैटफार्म पृथ्वीपर है, अर्थात् पदार्थोंमें - आधार आधेय वा क्षेत्र क्षेत्रिय भाव है। : . . : .. नित प्रकार जीव पदार्थ अपनेको और सकल पदार्थोंको जाननेवाला 'ज्ञान' इस परमधर्मसे सिद्ध है । अपनेको और दूसरोंको वर्तानेवाला काल पदार्थ 'वर्तना' इस परम धर्मसे सिद्ध है। '. उसी प्रकार अपनेको और दूसरे समस्त पदार्थोंको क्षेत्र देनेवाला. अवगाहना परमधर्मवाला Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . .. .... पदार्थ होना ही चाहिये । उसके विना द्रव्योंकी सिद्धि नहीं हो सक्ती । बस ! उसीका नाम आकाश हैं । जो सबको क्षेत्र देनेवाला है, सबका क्षेत्रिय है, सबका आधार है। सारांश ! आकाश और सबै पदार्थोंमें आधार आधेय सम्बन्ध है । जिस प्रकार जीवके एक प्रदेशमें भी अपनेको और अनंत पुद्गलों, जीवों, काल मादिको जाननेका सामर्थ्य है, कालके एक प्रदेशमें अपनेको और अनंत जीव 'पुद्गलों आदिको वर्तानेकी सामर्थ्य है। उसी प्रकार आकाशके प्रत्येक प्रदेशमें जो परमाणुके बराबर होता है. अपनेको अनंत जीबो, पुद्गलों और काल मादिको स्थान देनेका सामर्थ्य है । पं० प्रवर दौलत रामजी • साहबने कहा भी है "सकल द्रव्यको बास जाधुमें सो आकाश पिछानो" । ____ऊपर आसमानमें जो नीला सा हद्दे नजर दिखता है अथवा जो लाल पीले रंगः बदलते रहते हैं उसे बहुतसे लोग आकाश समझ जाते हैं । परन्तु रंग पद्गलों में होता है आकाशमें नहीं हो सका । आकाश अरूपी वस्तु है। . जब कि आकाश सबका क्षेत्रिय है तो नहां जहां जीवादि पदार्थ है नहीं वहां आकाशका अस्तित्व सिद्ध ही है । लोकमें तो आकाश हैं ही । परन्तु उससे आंगे, क्या है इस प्रश्नका उत्तर यही मिलेंगा कि उससे आगे आकाश है, फिर उससे मागे, आकाश फिर उससे आगे ? माकाश ! लोकसे आगे भी आकाश है तो वहां जीवादि पदार्थ-क्यों नहीं पहुंच जाते और लोकको. और भी विस्तृत क्यों नहीं कर लेते ? इसका समाधान . धर्म द्रव्यके कथनसे हो सकेगा। आकाशमें स्थान दान आदि गुण हैं और कालं द्रव्यके समान मरूपी पर्याय हैं: अतः माकाशको द्रव्य कहना चाहिये । यदि आकाश न होता, तो पदार्थ ही न रह सक्ते। इस लिये लोककी सिद्धिके हेतु आकाशका अस्तित्व मानना ही चाहिये। ५-६-पाठक ! जीव, प्रकृति, काल और आकाश तो संसारमें प्रायः प्रचलितः हैं । अब हम उन भरूपी सुक्ष्म वस्तुओंकी और आपकी दृष्टि डालना चाहते हैं जो जैन, शासन सिवाय अन्यत्र अप्रसिद्ध ही हैं। जिन्हें स्वामी दयानन्दजी जैसे प्रसिद्ध आर्य • विद्वान् न समझ सके और धर्म अधर्म द्रव्यको जीव प्रकृति आदि पदार्थोके धर्म अधर्म : ‘मर्थात स्वभाव विभाव समझ बैठे और पवित्र जैन धर्मका खंडन अपने सत्यार्थ प्रकाशमें - कर गये। . : यह देखिये झाड़से एक फलं गिरा और धरती पर ठहर गया। लड़केकी पतंग उड़ते उड़ते कुएमें पडगई । अभिप्राय यह कि जीव पुद्गलोंमें गमनं स्थिति क्रिया देखते हैं। इसका कारण सोचिये तो अतरंग कारण तो वे ही गमन स्थिर होनेवाले पदार्थ हैं... ..... . ..... ....... ... . ...... . .. .........' - " .. . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय स्याद्वाद वारिधि पुन्य पं० गोपालदासनी बरैयाने श्री जैनसिद्धांतदर्पणमें एक तक निकाला है कि गति स्थितिके हेतु जुदे जुदे दो पदार्थ माननेकी क्या आवश्यक्ता है ? इसका समाधान भी उस प्रातः स्मरणीय विद्वान्ने किया है कि परस्पर विरोधी धर्म एक ही धर्मीमें नहीं हो सक्ते इस लिये जो पदार्थ चलानेवाला है वह ठहरानेवाला नहीं होसक्ता और जो ठहरानेवाला है वह चलानेवाला नहीं हो सका अतः दोनों पदार्थ प्रथक् प्रथक् सिद्ध हैं । और दोनोंकी ही आवश्यक्ता प्रतीत होती है। अब आप लोगोंकी समझमें आया होगा कि धर्म अधर्म पदार्थ हैं अर्थात धर्मी हैं और गति स्थिति सहायकता दोनों के क्रमशः धर्म हैं। जिस प्रकार साइंसवालोंने लिखा है कि यदि माद्याकार्षण न होता तो सूर्य चन्द्र अपने मार्गपर न रहते न जाने कहां जाते, यदि परमाणु आकर्षण न होता तो सब चीजें धूलकी दशामें रहतीं। उसी प्रकार जैन ऋषियोंका कहना है कि यदि धर्म द्रव्य नहीं होता. वो जो पदार्थ जहां था वहां ही रहता कोई भी पदार्थ नहीं चलते न कोई मोक्ष नाता न कोई देशान्तर जाता । न चरखा चलता, न सुत कतता, न सभा होती, और न आप लोग अपने घरसे आ सक्ते । और यदि अधर्म द्रव्य न होता चलती हुई कोई भी वस्तु न ठहरती। गिरलीको दंडा मारनेसे वह चली ही जाती फिर न ठहरती । छतरी जो हवामें उड़ पड़ी थी उड़ती ही जाती । और सिद्ध आत्मा जो ऊपरको गमन किये थे चले ही जाते कभी भी विश्राम नहीं पाते । यहां तक कि इन दो द्रव्योंके विना लोक अलोकका भी भेद न होता । यह चित्र देखिये छहों द्रव्योंसे भरे हुए लोकका आकार है। छहों द्रव्य अपने अपने गुण पर्यायोंमें परणमते हैं कोई भी द्रव्य अपने गुणस्वभाव नहीं छोड़ते और न अन्यके .. गुण स्वभाव ग्रहण करते हैं। हां! जीव पुद्गल, स्वभाव विभावरूप होते हैं । विभाव परणति निबंधका विषय नहीं है होता तो हम उसका • कथन करते । पर इतना अवश्य कहेंगे कि एक दुसरेके निमित्त नैमित्तक, होनेसे द्रव्योंकी परगति सिद्ध होती है । अतः लोकका वा द्रव्योंका कोई करता, हरता विधाता सिद्ध नहीं हो सक्ता इस लिये सभी द्रव्य स्वयम् सिद्ध हैं। द्रव्योंका 'समुदाय रूप, लोक, किसके जलसे अधर खड़ा । - mprovernaman Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) है यह कहे विना; हम निबंध पूरा नहीं कर सकते । एक साइसके विद्वान्ने एक मनुष्यको निलकुल निराधार खड़ा कर दिया था। और उसे हमने स्वयम् देखा है। बुद्धिसे सोचा जावे तो यह जीव अनीव ही की करामात है कहनेका अभिप्राय यह कि इतना बड़ा लोक जीव अनोव ही की विलक्षण विद्युतसे जिसे मायाकरषण कह सक्ते हैं अपर खड़ा है। परमार्थ दृष्टिसे सब द्रव्यों के आधार स्वरूप भाकाशके आधारपर लोक है और आकाश अपने परमधर्म आधारके आधार है। ... लह द्रव्यों के संबंधमें नीचे लिखा छेद स्मरण योग्य है। सवैया मात्रिक"जीव धरम अधरम नभ पुगदल, काल सहित षट् द्रव्य प्रमान ।' चेतन एक अचेतन पाचों, रहैं सदा गुण पर्जयवान ॥ केवल पुगदल रूपवान है, पाचौं शेष अरूपी जान । ' काल द्रव्य विन पंच द्रव्यको, अस्तिकाय कहते युधिवान ॥ १॥ : ::, . उपसंहारमें हमें यह कहना है कि निबंधमें कई जगह मतान्तर वादीको लक्ष्य बनाकर संबोधन किया है तो किसीकी निन्दा वा विरोधकी इच्छासे नहीं किया है । अब ऐसा कीनिये कि एक घड़ी भरको आपही वादी बन जाइये और कहिये लोककी सिद्धिके वास्ते जीव द्रव्यको आवश्यक्ता नहीं है और न उसका अस्तित्व सिंह है। तो मैं कहता हूं कि माप कौन हैं ! ....: अम आप कहिये-हम पुदिल हैं शरीर हैं । शरीरमें शराब कैसा नशा कुछ काल रहने से लोग सीब नीव चिल्लाने लगे हैं। . . . मैं कहता हूं-कि शराबका नशा भी जीव ही को होता है । नहीं तो शराबंकी बोतलें भी उछलती कूदती फिरती इससे जीवका मस्तित्व सिद्ध है। " ... अब आप कहिये--कि पुद्गल नहीं हैं। . ........ तो मैं कहता हूं कि यह रंग बिरंगे पदार्थ देखते हैं सो क्या हैं ? अब आप कहिये-संसारमें आकाश नहीं है। : : तो मैं कहता हूं-जीव. पुगदल आदि कहां रहते हैं ? .... आप कहिये-हमं कालकी कुछ आवश्यक्ता नहीं समझते । ....' Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) " तो मैं कहता हूं-क्या विना निमित्तके भी कार्य हो सकता है. संसारमें सभी लोग निमित्तको बलवान मानते हैं। .. भाप कहिये-लोककी हद माननेकी जरूरत नहीं। वह अनंत है। मैं कहता हूं-जब सब चीजोंकी हद्द है तो लोंक भी हद्द सिद्ध है। आप कहिये-धर्म अधर्म द्रव्यका अस्तित्व मानना मनावश्यक है। 'मैं कहता हूं-लोककी हहसे धर्म अधर्म द्रव्योंका अस्तित्वं स्पष्ट सिद्ध है। आप कहिये-इन द्रव्योंका जानने कथन करनेवाला ईश्वर नहीं हैं। .. मैं कहता हूं कि यहां और इस समय ईश्वर नहीं है कि सर्व काल और सर्व क्षेत्रमें ईश्वर नहीं है। ...... ...... आप कहिये-कि कभी भी और कहीं भी ईश्वर नहीं हैं। ............ . मैं कहता हूं-अगर आप सर्व काल और सर्व क्षेत्रकी जानते हैं तो आप ही ईश्वर हौ। आप कहिये-कि यदि ईश्वर है तो वह इन द्रव्योंका वा नगतका कर्ता अवश्य है। मैं कहता हूं कि आप ईश्वरको “ निरीह ईश्वर विभु मानते हैं या नहीं ? आप कहिये-सब ही ईश्वरवादी प्रभुको निरीह मानते हैं। वो मैं कहता हूं-कि इच्छा रहित प्रभु इस प्रपंचमें क्यों पड़ने चला ?.... आप कहिये-तो सुख दुख कौन देवा है। ......... मैं कहता हूं-जड़ चेतनं अनादि संयोगी । आप हि कर्ता भाप ही भोगी। अथवा दोहा-को सुख को दुख देत है, कौन करै झक झोर । ___ उरझत सुरझत आपही, ध्वजा. पवनके जोर ॥ : अब आप कहिये कि लोककी सिद्धिके हेतु छह ही द्रव्योंकी क्यों आवश्यक्ता है ? कुछ कमती मानो! मैं कहता हूं कि छहमेंसे किसको छोड़ है । जिसके बिना पदार्थोकी सिद्धि . होती जावे और बाधा न पड़े उसे छोड़ दूं।... . ..... माप कहिये-कि छहसे ज्यादा द्रव्य मानिये। : Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) मैं कहता हूं कि सातवां आठवां द्रव्य सिद्ध कीजिये । 'अस्तु | अधिक कहने से क्या ? लोककी सिद्धिके हेतु छह ही द्रव्योंकी आवश्यक्ता: है और वे स्वयम् सिद्ध हैं । • बहुत लोग रुपये पैसेको द्रव्य कहते हैं । जब मैं विद्यार्थी था तब मैंने द्रव्य * " संग्रह ग्रंथ इस लिये मंगाया था कि उसमें रुपये कमाने की युक्तियां होंगी । लोग रुपया पैसा स्वरूप द्रव्यकी उपासना किया करते हैं सो वह भी द्रव्य ही है पर पुद्गल द्रव्य : है उसमें जानंदका लेश भी नहीं । सदा अपने आत्म द्रव्यका आनंद लेना चाहिये | छहों द्रव्यों में आत्म द्रव्य सारभूत और उपादेय हैं। हे जीव ! तुम आत्मा हो, मात्मा तुम्हारा है, तुम आत्मा हौ । उसे तुम भले प्रकार जानौ, उसका श्रद्धान करौ और 'उसीमें स्थिर रहो | आत्मा ही तुम्हारा सर्वस्व है, उसी पर अर्थात् अपने 'स्व' के ऊपरराज्य करो यहीं स्व- राज है । ज्यों ही तुम स्वरूपसे चिगते हौ त्यों ही परराष्ट्र अर्थात कर्म दक तुम्हारे ऊपर कवजा कर लेता है या नौकरशाही रूप इंद्रियोंकी हुकूमत में तुम्हें रहना पड़ता है- जो तुम्हारे ज्ञान घनका शोषण करती और नाना नाच नचाती हैं . तथा तुमसे पूरी पूरी गुलामगारी कराती हैं । वे भांति की चटपटक और चकाचौंध भरी विदेशी बस्तुएं दिखाकर तुम्हें मुलायम और मोहित बना देती हैं और पराधीनताकी जंजीरसे कप्त देती हैं। फिर तुम इतने मोहताज हो जाते हो कि यदि विदेशी लोग तुम्हारे कपड़े सीने के लिये सुई भी न देवें तो तुम्हें फजीहत होना पड़े । इसलिये उनसे असहयोग करदों:- जो तुम्हारा असली रक्त चूसते हैं । तुम सच्चे स्वदेशी बनो एक क्षण● को भी अपने स्वदेश और देशबंधुओंका हित मत भूलो। दमन नीतिसे मत डरो पूर्वक सत्याग्रह ग्रहण करके स्वात्मबल बढ़ाओ । अंत में यह कहते हुए निबंध समाप्त करता हूं कि - सप मित्र पवित्र चरित्र घरौ, अरु शिक्षित पुत्र कलन करौ । पुनि कौशल काव्य- कला विधिसे, 'लजदो दल भारतको निधिले ॥ और : समाज सेवी बुद्धिलाल श्राव -लाडनूं (जोधपुर) • Page #71 --------------------------------------------------------------------------  Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन काव्योंका महत्व । ( जैन साहित्य सभा लखनऊका लेख नं० ४ ) ருக்ககக்கதைக்கருக்கத்தக்கது ( लेखक - पं० बनवारीलालजी स्याद्वादी - मोरेनां । ) 'वन्दारुवृन्दपरिघटविलोलिताक्ष वृन्दारकेश्वरकिरीटतटावकीणैः । मन्दारपुष्पनिकरैर्विहितोपकारं चन्दामहे जिनपतेः पदपद्मयुग्मं ॥ 'मुकुरविमलगण्डं चन्द्रसंकाशतुंडं गजकर भुजदण्डं कामदाहात्रिकुण्डं । विनुतमुनिपपण्डं गोमटेशप्रचण्डं गुणनिचहकरण्डं नौमि नाभेपपिण्डं | eae श्री स्याद्वादविद्यापतये नमोऽस्तु । D ११८७९० आध्यात्मिकजननी, अहिंसाधर्मप्राणा, साहित्यसुन्दरी, परोपकारशीला, विज्ञाननयना भारतवर्षीयार्यजातिके पूर्वेतिहास पर दृष्टि दृष्टि करनेपर यह जाति चारित्रोन्नता, अक्षयज्ञानरत्नोंकी प्रसवित्री सुष्टुतया प्रतीत होती है, किन्तु निरपेक्ष हम यह भी कहेंगे, · कि तत्सामयिक कुछ विपयलम्पटियों एवं च स्वधर्मोन्मत्तगणोंने प्रज्वलित- द्वेषाग्निसे द कर इस व्यार्यजातिके सर्वोत्तम पूर्वेतिहासको कलंक -- कालिमामय बना दिया है । इस प्रज्व लित विशेषामि हीके कारण गगनस्पर्शी उत्तंगशृङ्गसमन्धित हिमधवल पर्वतमाला, एवं मीतिजनक नीलवर्णसलिलरशिपूर्ण समुद्रमरीखे प्राकृतिक आत्मरक्षकों के उपस्थित रहने पर भी . सुसभ्य ज्ञानालोकसे प्रकाशित अत्यंत वलिष्ट धार्मिकवसुन्धरा भारत पर विवर्मी और - विजातीय नीच वैदेशिकदस्युदलके पुनः पुनः आक्रमणोंसे भारतवर्ष विध्वस्त विपर्यस्त और परपदानत होकर अपनी अतुलधनराशि विद्या, प्राचीन सभ्यतासम्पत्ति, ऐश्वर्य, आत्मगौरवको पश्चिमीय सागर में समाधिस्थ कर आज मुट्ठीभर पश्चिमीय जनों की तंत्रता (परतंत्र-: ता) के चुंगल में फँसा हुआ अपने जीवनमरणके प्रश्न हल करवाने की अवस्था में उपस्थित ह गया है । प्रिय पाठकवृंद ! यहांपर ही मेरे अनुप्रपात होकर समाप्त नहीं हो जाते। किंतु " इस विद्वेपानि तथा च स्वधर्मोन्मत्तता ही के सबसे श्री अहिंसाकांतायुक्त,. मान्यक्षमामाणिक्य, मार्दवचन्द्र, आजीवाचार्य, शौच्यतीर्थभूमि, सत्यरत्नविभूषित, संयम: 'परिखावेष्टित, तपोभूमि, त्यागमननि, आकिंचन्य मूलसे शोभायमान, विश्वप्रेमचन्द्र की ज्योत्स्ना"का प्रकाशक, ऐसे जैनधर्मका सार्वभौमिक प्रसार न चढ़नेके हेतु, विपक्षियोंने जैनधर्मके प्रचा कोको निःसीम कष्ट प्रदानके साथ साथ सहस्रों जिनमन्दिरों को छिन्न विछिन्न, नैनस हि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...'..RE: - .त्यके लाखों ग्रंथरानोंको नष्ट कर, जैनप्रमितिसे जो संसारको वंचितकिया है। शायद इसीसें देवने प्रकोपकर भारतमाताके ३० कोटि जनोंकी स्वतंत्रताको अपहरणकर दारुण दुःखसे दुःखित किया है ! बौद्धमतकी राज्यसत्ताके समयमें जब कि भारतवर्षने प्रशान्त जैनधर्मको . • विदां कनेमें किसी प्रकारकी भी कंसर नहीं रखी थी, वृहद्ग्रंथराजोंके साथ.२ जनमहा: काव्योंका भी वृहदश नाशको प्राप्त हो गया था और जब कि श्री शंकराचार्यने जैनधर्मको नष्टीभूत करने के इरादासे वर्षों गरम पानी कराकर असंख्य जैनग्रंथराजोंको अग्निदेवकी भेट करदी। . हम नहीं लिख सकते हैं कि जैनसाहित्यके प्रसार करनेके कारणभूत महाकाव्योंका : . इस पूर्वतिहासमें कितना प्रक्षय हुआ होगा। अब हम अपने विचारशील पाठकोंको इस बृहत् पूर्वेतिहाससे अलग कर प्राप्त - अभीके करीब ३०० वर्ष पहिले ( अर्थात् मुगल बादशाह औरंगजेब ) के जमानेमें ही .लिये चलते हैं। . - मुगल बादशाहतकी जड़को काटनेवाले इस बादशाहके जमाने में हिंदू अन्योंकी ..तरह क्तिने ही महीनों तक जैनग्रंथराजसमुदाय गाँवोंकी तरह जलते रहे । भारतवर्षीया...' ध्यात्मिक क्षय करनेके लिये जो भारतके असंख्य ग्रंथमँडार पचनगणोंने नष्ट किये उसमें ... भी महाकाव्योंका प्रबल क्षय हुआ। ... उस ग्रन्थरानों के प्रक्षय युगके समय धार्मिक वीरोंने जो ग्रन्थरानि कैदरा गुहा-'दि गुप्त स्थानों में छिपाकर रक्षा की थी, उसमें भी बहुग्रंथराशि हमारे विद्याप्रिय पश्चिमीयः विद्वान् (जर्मनी, इंगलैंड, आस्ट्रेलियादिके रहनेवाले) प्रलोभन वा डरसे परतंत्र जैन संसार .. एवं च कर्तव्यपथसे विचलित - भारतवर्षसे लेगये। इसमें भी. वृहदवशिष्टभागः भट्टारकों, " अन्य भंडारोंमें दीमक, अ य कीटोंका आहार हो रहा है । अतःनों कुछ भी काव्यशास्त्र समुपस्थित है, उन जैन काव्यग्रन्थों का महत्त्व भव्य पाठकोंकी. ही भेंट करता । जैन काव्यका महत्व ' इस शब्दके उच्चारण करनेसे सहृदयके हृद्यमें जो भाव प्रादुर्भाव होता है, वही 'जैन काव्यका महत्त्व' इसका विग्रहलभ्यार्थ है। इसमें शब्द हैं जैन-काव्य महत्त्व । ...... यहां जैन शब्द संबंधी वाचक होनेपर भी इसका अर्थ सुलभ होनेसे इसके व्याख्यानको लक्षित न करके 'काव्य' शब्दका लक्षण लिखनेको प्रारंभ करते हैं। किसी भी चीज़झा लक्षण या स्वरूपमें जबतक सम्पूर्ण उहापोह नहीं होता है, तब तक सहद योंके हृदयाकाशमें उस पदार्थकी सुनिर्मल ज्योति ठीक ठीक नहीं चमकती है। अब उस १. काव्यका लक्षण "काव्यप्रकाश” ग्रंथके रचयिताने इस प्रकार किया है Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8.) करते हुए जैनालंकारिक काव्यका लक्षण अलंकार चिंतामणि के अनुसार कहते हैं । - " शब्दार्थात नवरसकलित रीतिभावाभिरामं । siverse विदोष गुणगणकलित नेतृसद्वर्णनाढ्यं ॥ लोकोपकारी स्फुटसिंह तनुतात् काव्यमग्र्यं सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मो रुहेतुम् ॥ (अलंकार चिंतामणि) यह जैन कवि श्रीमद्भगवज्जिनसेनाचार्यका कहा हुआ निर्दोष एवं च मान्य काव्यका लक्षण है । इस इलोकका अर्थ इस प्रकार है- शब्दालंकार, अर्थालंकार से दीप्त, नवरस सहित, रीति और भावसे सुन्दर व्य ग्यादि अर्थवाला, दोषरहित गुणसहित नेताकी सद्दर्णनसे पूर्ण, इह तथा परलोकका उपकारी, पुण्यधर्मका बड़ा भारी कारण, ऐसे काव्यको नानाशास्त्रप्रवीण, अनुपम बुद्धिवाला कवि करे | इस काव्यलक्षण से लक्षित काव्य ही वास्तविक काव्य कहा जा सकता है। इस तरहके 'काव्यसे उपर्युक्त प्रयोजन अथवा अन्यत्रोक्त " धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलाषु च । करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्यनिषेवणं ॥ (साहित्यदर्पण) इस प्रयोजनकी सिद्धि हो सकती है । अतः अब विचार करना चाहिये कि भारतीय काव्य भंडारोंमें ऐसे कितने काव्यरत्न हैं जो कि उक्त पूर्व लक्षण लक्षित हों । इसका विचार करनेके लिये सबसे पहिले " लोकन्द्वोपकारी पुण्यधर्मोरुहेतुम् " इन दोनों विशेषणोंको हम उपस्थित करते हैं । जो पुण्यधर्मोस्तु है । वास्तव में वही काव्यचितामणि उभयलोकका हितकारी होकर मनवांछित फलप्रद है । 'अब हमको यह विचार करना चाहिये कि पुण्य और धर्मकी शिक्षा जिनसे मिल सकती है ऐसे काव्य कितने हैं। सर्व प्रथम हम अजैन नैषधादि लोकप्रसिद्ध सरस काव्योंपर ही दृष्टिपात करते हैं, तो उसमें एक पुरुषका स्त्रीके साथ किस तरहका प्रेम होता है और उसका कैसे निर्वाह होता है इत्यादि विषयोंको छोड़कर धर्मादि शिक्षाकी प्राप्ति नहीं हो सकती और जो जो प्रसिद्ध प्रसिद्ध काव्य हैं उनमें माघ किरातादि तथा रघुवंश "कुमारसंभवादि हैं। उन्होंने कोई तो श्रृंगाररस ही से लबालब भरे हुए हैं । कोई बीररंस प्रधान तथा च कोई वंशवर्णनात्मक हैं । उसीको पुष्ट करते हुये ग्रंथान्त हुये हैं । उन्होंने आदिसे अन्ततक अवलोकन करने पर भी धर्मोपदेशकी गन्ध भी नहीं मिलती । पूर्वोक्तं प्रयोजनेच्छु हम नैनकाव्यमार्ग में पदार्पण करते ही उक्त प्रयोजनको पद पद पर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिगोचर करते हैं। क्योंकि जैन काव्योंमें ऐसा कोई भी काव्य नहीं हैं जिसमें धर्मोपदेशके साथ साथ समग्र लौकिक व्यवहार दिखाते हुये अन्तमें मोक्ष प्राप्तिके लिये केवलीभगवान्के मुख निष्टित वचनावली सरस-श्लोकोंसे सज्जित नहीं की गई हो। • इस बातकी सत्यता प्रमाणित करनेके लिये हम उन्हीं सहृदयोंसे प्रार्थना करते हैं जिन्होंने उभय काव्य (जैन, जैनेतर ) रसका आश्चादन गवेषणा पूर्वक किया हो । यही नैन काव्यका.' सर्व प्रथम सुख और शांतिको प्रदान करनेवाला महत्त्व है । इस सर्व प्रथम महत्त्वका हम - लोगोंको कम मूल्य नहीं समझना चाहिये। . . .... एक वार एक पंडितराजने ऐसा कहा था कि "धर्मप्रधान काशीनगरीमें अध्ययन.. करनेवाले काव्यरसिकंवृन्दोंमें बहुत से रसिक वेश्यागमनादि दुश्चरित्रोंको सेवन करते हैं।' : इसका खास कारण यही है कि उन काव्योंमें श्रृंगाररसकी प्रधानता के साथ २ .योग्य . शिक्षा, धर्मोपदेशका नितान्त अभाव है।" .. .... . वह काव्य भनेक प्रकारका होता है, किन्तु दृश्य, श्रव्यके भेदसे दो प्रकारका है। . दृश्य नाटकं प्रकरणादिको कहते हैं। और अन्य काव्यके भेद बहुतसे हैं । यथा-महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पू-गद्यकाव्य, आख्यायिका इत्यादि हैं। इन्होंमें खासकर काव्य शब्दका: उच्चारण करनेपर लौकिक प्रतीति. -महाकाव्यकी होती है । इसी महाकाव्यमें जैनाचार्यसे ". कहा हुमा पूर्व काव्यका लक्षण याथातथ्येन घटता है । अतः नाटक, भांण इत्यादिसे उप-. .. युक्त काव्यलक्षणों का प्रयोजन सुप्ठतया, सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव हम प्राधान्येन । .: महाकाव्योंकी ही उत्तमता बतलायेंगे । इससे पहिले काव्यलक्षणमें "नेतृसवर्णनाढ्य : - यह जो विशेषण हैं इसका अर्थ नेताका जो सवर्णन है अर्थात् निससे पूर्वोक्तं धर्मार्थका- . : ममोक्ष प्रयोजनोंकी सिद्धि हो सकती हो ऐसे वर्णनसे भाढ्य अचुर हो। . . .: मिसके उपर कवि अपनी शब्दार्थालंकारोंसे विभूपित . तथा गुणोंसे सुशोभित . सरस्वतीको सनाता है वह नेता कैसा होना चाहिये ? नेताका लक्षण "साहित्यरत्नाकर, ; में ऐसा कहा है--- .."महाकुलीनत्वमुदारता च तथा महाभाग्य विदग्धभागे । ..तेजस्विता धार्मिकतोज्वलत्वममीगुणा जाग्रति नायकस्य ॥" : .. अर्थात् महाकाव्यका नायक वही होसकता है जो महाकुलीन और बड़ा भारी. ..उदार और महाभाग्यशाली, अतिशय विदग्य और महा तेजस्वी, धार्मिक हो । संसारमें : : उपर्युक्त गुणविशिष्ट महाकाव्यके नायकको अनुसंधान करते हैं तो हमको अष्टादश दोष रहित, अनंत चतुष्टययुक्त तीर्थंकरोंको छोड़कर मानव जातिमें कोई भी दृष्टिगोचर नहीं होते । नतः द्वितीय सेर्वोत्तम जैन काव्योंमें. उत्तमता यही है कि प्रायः सम्पूर्ण महाका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (c) aur as वर्णनके उदाहरणमें बहुतसे जैन महाकाव्य उपस्थित हैं, इमें इसके • उदाहरण स्वरूप महाकवि श्री हरिश्चन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदयका दसवां सर्ग सम्पूर्ण देना चाहते हैं क्योंकि कविने ऐसी उत्तमताके साथ शैल वर्णन किया है कि. शायद ही किसी कविने ऐसा वर्णन अपने काव्य में किया हो लेकिन लेख बृहद न होनेकी चिंता हमको रोकती है, फिर हम इसका उदाहरण अवश्य देंगे । " पत्राम्बुजेषु भ्रमरावलीनामेणावली सत्तमरावलीना ! पपौ सरस्याशुनरं गतान्तं न वारि विस्फारितरङ्गतान्तरम् ॥ " ( महाः धर्मशर्माभ्युदय इस पथ यमकालंकार के साथ २ स्वभावोक्तिका कैसा मणिकांचन योग हुआ है यह देखकर चित्त गद्गद होता है । तथा च ." दूरेण दावानलशङ्कया मृगास्त्यजन्ति शोणोपलसंचययुतीः । "होच्छच्छति निर्झराशपा लिहन्ति च प्रीतिजुषः क्षणं शिवाः ॥ ( धर्मशर्माभ्युदय ) पर्वत तपस्या करनेका प्रधान स्थान है । इस बातको दिखाने के लिये मोक्षनगरका अत्यंत दुर्गमार्ग में जिनेन्द्ररूपी सार्थवाहको प्राप्त कर अगाडी पैर रखनेके लिये यह पर्वत प्रथम स्थान है । यह रुपक शांतरसको पिलाता हुआ कैसा आल्हादकारी है । .. ऋतु वर्णनका भी जैन महाकाव्योंमें सर्वत्र वर्णन किया गया है । उसमें भी हरिश्चंद्र कविका चारुरीतियुक्त वर्णनके श्लोक प्रियपाठकोंकी भेंट अवश्य करेंगे " कतिपयैर्दर्शनैरिव कोरकैः कुरवकप्रभवैर्विहसन्मुखः । शिशुरिव स्खलितस्खलितं मधुः पदमदादमदालिनि कानने ॥ इस श्लोक में वसतका आगमन हास्य करते हुए शिशु के साथ उपमा देते हुए क्या ही अच्छा वर्णन किया है । इसी तरह इसी ग्रन्थ धर्मशर्माभ्युदय में ग्रीष्मवर्णनमें कुत्तोंकी जीभ निकलने में कवि 'राजने क्या ही अच्छी उत्प्रेक्षा की है । "इह शुना रसना वदनाद बाहिर्निरगमन्नवपल्लवचञ्चलाः । हृदि खरांशुकरप्रकरापिताः किमकशानुकृशानशिखाः शुचौ ॥ (भद्दा. धर्मशर्माभ्युदय) • तथा वर्षावर्णनमें भी इसी कविका उत्तम श्लोक उद्धृत करते हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनतापकमामिवोक्षितुं कलितकान्तंचलद्युतिदीपिका ।. ... दिशि दिशि प्रसलार कृषीवता सह मुदार सुदारघनावलिः ॥ : .:::.. ... .. . .. ( महा.. धर्मशर्माभ्युदय) : : इस श्लोकमें. आकाशमें धनघटांका विचरण और विद्युत्का चमकना इस पर कवि उत्प्रेक्षा करते हैं । संसारको ताप देनेवाला..सूर्य कहां चला गया यह देखने के लिये मानों हस्तमें दीपंक लेकर यह धनावली ऊषकोंके आनन्दके साथ साथ दिशाओं में फैल रही है। शरदकालके वर्णनमें भी इस फेविका वुद्धिपाटा देखिये-: ... ..... ":"हृदयहारिहरिमणिकिण्ठकाकलितशोणमणीव नभः श्रियः॥ -- ततिरुक्षि जनैः शुकपत्रिणां:श्रमवतामयतारितकौतुका"॥ . ... .... ... ... (महा. धर्मशर्माभ्युदय ) ., ... इस श्लोकमें शरदकालमें शुक्रावलीका वर्णन नभश्रीके गलेमें पद्मरागमणि जटित · इन्द्रनीलमणियोंका हारसाम्य देतेहुए क्या ही अच्छा पद्य गाया है । .:. तथा इसी कविका शिशिर वर्णनमें अनुपम श्लोक लीजिये "स महिमादयतः शिशिरो व्धधादपहृतप्रमरकमलाः प्रजाः। " इति कृपालुरिंवाश्रितदक्षिणो दिनकरी न करोपचयं दधौ" ॥ .: . . . . . . (महा. धर्मशर्माभ्युदय ) :: ... इस श्लोकमें शिशिर वर्णनके साथ प्रजापीड़क नरेश अर्थात् प्रनाओंका रक्त चूमने पर दूसरा दयालु कैसा स्वार्थ त्याग करता है इस बातको शिशिरकाल और सूर्यके छकसे कमला और दक्षिण कर शव्दको लिष्ट बनाते हुए कैसा विलक्षण विनिवेश किया है। . : - पुष्पावचयके वर्णन में एक शास्त्राभ्यासी: सच्चरित्र अभद्ससर्गसे अपने चरित्रसे च्युत होने पर दूसरा दर्शक कैसा आश्चर्यसे निप्रभ हो जाता है इस बातको श्लेषभंगीसे , वक्ष, और बन, फूलमें कैसा घटाया है ।... . . " प्रमत्तकान्ताकरसंगमादभी सदागमाभ्यासरसोज्ज्वला अपि । क्षणान्निपेतुः सुमनोगणा यतो हियव पिच्छायम त्ततो.वनम् ॥" ... .. इसी तरह महाकाव्यका अष्टादश वर्णनीय हम कहां तक लिख ? मिस तरहसे हमने श्रीयुत कविराज हरिश्चन्द्रनी के कुछ पद्य दृष्टांत रूपमें आपके सन्मुख पेश किये हैं उसी तरह यदि महाकाव्य चन्द्रप्रभचरितः पार्थो घुदय यशस्तिलकचम्पू आदिका एक एक अत्युत्कृष्ट पद्य उद्धृत करें तो एक बड़ा भारी अद्वितीय ग्रंथ हो जायेगा जो कि कविगणों के. लिये आश्चर्यवर्धक एवं चं नया ढंगका शिक्षक होगा। लेख बहनेकी वीभत्सक भयसे हम इस विषयको यहींपर छोड़कर आगे बढ़ेंगे और अन्य अन्य विषयोपर दृष्टिपात करते हैं। -:.. . " :: ... . . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : .:.: : .: .::1 " " :: ............: दास्तवमें कोई निरपेक्ष सज्जन सुहृदयवर काव्यपरीक्षक जिस समय निरपेक्ष चश्माको लगाकर यदि काव्योंकी उत्तमताका विचार करेगा तो हम इस वातको दावेके साथ कह सकते हैं कि जैन काव्योंकी ही सर्व प्रथम उत्तमता, उसे ज्ञात होगी क्योंकि जैन काव्यसमुदाय, शब्दालंकार, अर्थालंकारोंके पुंजोंसे विभूषित एवं चं नवरस सहित, सुरीति भावोसे मनोहर, पदः पदके व्यंगादि अर्थसे आश्चर्यको करनेवाला, गुणोंकी पंक्ति वरमालासे घिरा: हुआ एक अद्वितीयताको लिये हुए हैं। वास्तवमें जिस समय मेघमालासे आच्छादितः सूर्य रूपी जैन काव्यसमुदायकी एक किरण मासिक पत्र " नैनसिद्धांतभास्कर " में प्रकाशित हुई उसी समयसे ही जैनकाव्यकी उत्तमता सिद्ध हो चुकी थी। हम भी अपने पाठकवृन्दोंके लिये इस किरणको देकर समस्त हृदयकमलोंको प्रकाशित किये देते हैं। • "तातो ताती ततेता ततति ततो तता ताति तांती ततत्ता। तात्तातीता तताती ततति ततितता तत्ततत्ते तिततिः ॥ तातातीतः तिताती तततु तंतिततां ततिता तूति तत्ते । . . 'ताते तितो तुतात्ता ततुतति तुत्ततितां तत्तु तोत्तः ॥ यह श्लोक त्रैमासिकपत्र नसिद्धांत भास्कर में प्रकाशित हुआ था, और उसका अर्थ लगाने लिये २६०) पारितोषिक मिलने के लिये भी सूचना.थी । अर्वाचीन दुनियां के समस्त संस्कृत के विद्वानों में से किसीने भी इसका अर्थ न लगा पाया । अवधिक पूर्ण होनेपर पत्रके सुयोग्य सम्पादक एवं च देशकी वेदीपर, त्यागधर्मको करनेवाले देश : भक्तं पदमराजजी रानीवालोंने इसके लिये द्विगुणित. पारितोषिक बढ़ाया पर भी आजतक किसी मी माईके लालने इस श्लोकका अर्थ नः लगा पाया । : काशीके अन्दर काव्य विषयके उत्तम २: विद्वान उपस्थित हैं जिन्होंने कि काव्य पढ़नेमें ही अपने जीवनकों बिताया है। एक विद्वान् जिसने कि काव्यके बड़े ग्रंथ अध्ययन किये थे, तथा उनको ५८ चम्पू कंठस्थ थे, बोले कि यह श्लोक अशुद्ध है क्योंकि मैंने तमाम संस्कृत कोषोंके आधार पर इस श्लोकको १. माहतक लगाया है, किन्तु यह :- लगता नहीं है। इसपर एक सज्जनवृंदने कहा कि प्राचीन ग्रंथोंके संग्रहस्वरूपः ऐसे अनसिद्धांतभवन " आरामें जाकर इस श्लोकके : अर्थको पढ़कर हे काशी नगरीके प्रधान काव्यपंडित ! आप अपनी पंडितमानिताको त्यागकर जैन काव्योंका एक तरफसे ध्यान पूर्वक देखना प्रारम्भ कर दीजिये, आपको मंजिल मनिलपर शब्दार्थालंकारोंकी कुटियोंमें नूतन रससे भरे हुए ऐसे गुणगणमय फल मिलेंगे जिनके कि आप स्वादको. 'लेकर अपने जीवनको धाया तथा च कृतकृत्य मानेंगे । :: : Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलोकवद्ध शब्दोंसे की है। वास्तवमें: हस्तिमल्लिके विक्रान्तकौरवनाटककी नाटयकलामें नैपुण्यको देखकर हृदय उनकी तरफ भक्तियुक्त हो जाता है। : प्रियपाठकवृंद ! अब हम इस दृश्यभाग. नाटकादिकी उत्तमताको सिद्धकर सिंह साध्यताको न बताकर आगे श्रव्यके ऊपर आप लोगोंके चित्तको माइर्पित करते हैं। श्रव्य काव्योंमें द्विसंधानादि जैन महाकाव्योंमें काव्यके अष्टादश वर्णनीयका अनुपम, अद्वितीय निवेश करते हुए काव्य पढ़ने का अत्युल्कष्ट उत्तम-फल सुखधाम (शांतिनिके तन मोक्ष)की प्राप्तिके लिये प्रातःस्मीय एवं च नगदबन्दनीय केवली भगवानके उपदेशकों सन्निवेश करते हुए जो अद्वितीय महत्व अटकते हुए जगतकों बतलाया है. इसको कहकर हम यहाँपर पिष्टपेशण नहीं करना चाहते, अतः हम आगे बढ़ते हैं ।.... प्रियपाठकवृन्द! ज्यों ही हम आगे बढ़नेको लेखनी चलाते हैं, लेखनी इकाईक रुड़ होजाती है, क्योंकि लेखनी संचालक हस्त; अपने मन-नरेशकी आज्ञा ( जैन महाकाव्य सागरोंमें ही यशस्तिलकचम्पू स्वयम्भूरमण समुद्र नहीं है बल्कि समस्त सांसारिक काव्योंमें यह स्वयंभूरमणः समुद्र हैं ) के खिलाफ जरा भी नहीं बढ़ना चाहते हैं। अत: मान्यवर पाठकवृंद इस प्राकृतिक नियमसे बद्ध. हम जैन काव्यके अंश. चम्पू की समालोचना बतलाते हैं। " चम्पू की समालोचनाके लिये लेखनी उठनेपर " यशस्ति लकचम्पू" का नाम स्मरण आते ही हमारे आनंदरोमांच खड़े होजाते हैं। क्योंकि हम एक एकसे उत्तम काव्यनिकुनमें इस सम्य प्रवेश करते हैं जो कि चम्पूनिॉनमें ही प्रधान नहीं है. वरिक्त जगतके काव्य निकुंजमें कोई दूसरा काव्य-निॉन इसकी सानीकाःनहीं है । प्रियपाठकवृन्द ! यह हमारी अतिशयोक्ति नहीं है। यह बात काव्य रसास्वादी : निरपेक्ष विद्वानों ने ही मानी है। इस प्रधान काव्यका हृद्य गद्यपद्य देखनेसे दूसरा ग्रंथ देखनेकी इच्छा ही नहीं होती। उसीमें ही गद्यकाव्य, पद्यकाव्यका आस्वाद उत्तम विस्तृत रीतिसें पाया जाता है । इसमें काव्य वर्णनीयका कोई भी वर्णन ऐसा नहीं है, जो अत्यंत उद्धट रीतिसे वर्णन नहीं किया गया हो। इसकी गद्य इतनी उत्तम है, कि कादम्बरी लजितके साथ साथ बिलकुल तुच्छ मालूम पड़ती है इसकी गद्यको लिखते हुए कविने ...एक ही मार्गका आश्रय नहीं लिया है, किंतु वर्णनीयके अनुरोधसें, कहीं २ समास बहुल गौणीरीतिका सहारा लिया है। माननीय समालोचकवृंद ! " दृष्टान्तेन स्फुटायते: मतिः " इस आर्षसिद्धांतानुसार एक दृष्टांत देनेपर यह बात बिलकुल स्फुट हो जायगी । मेरे बहुत खोजनेपर " यशस्तिलकचम्पू में से. यह हृद्य गद्य आप लोगोंकी भेट करता हूँ। " यत्रोद्याने क्रीडासु सुन्दरी जनैनसह कामिनः रमन्ते इसवाक्यमें नो उद्यान शब्द है उसका कविने कैसा अभूतपूर्व अद्वितीय : मनोहर वर्णन किया है। .. ." : . .. '.. : :...:.' . ... . . " Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. १.३... ... यत्र च मधुकरकुटुम्बिनीनिकुरम्बाडम्बरचुम्च्यमानमकरन्दकदम्बस्तम्भविलम्मतनिमः नितम्बिनी विम्वाधरपानपरवंशविलासिनि, सुरतसुखोन्मुखमुखरपरिखेलत्सखीसरवानेकखगप्रे: वनखमुखावलिख्यमानास्तिशिवरैः समीपशाखिभिः ललितप्रसंख्यानमखसंमुखीनवैरवान · संभानसे, कितक्तिवसहचरोपरचितकरवाद्यलयलास्यमानमधुमत्तंसीमन्तिनीसमालोकनकुतुहलमिलहनदेवताभराभुग्नककुभविटपिनि, टविटपविटकसंकटकोटरोपविष्टवाचाटशुकटकपठ्य : 'मानेन विटंविकटरताटोपचोटपाटवेन विद्यमानमुनिमनःकपाटपुटसंधिबन्धे, विकिरकुलकह. 'लवशविशीर्यमाणकुंरवकतरुणुकुरमुक्ताफलितवितंर्दिकावलिकर्मणि, चालकपिसमातलुप्तमानमः । राभिनिगरविभ्रमारग्मसंभ्रमाभिर्भामिनीभिः परिरम्यमाणनिभृतसरसापराधमलभे, भुनमुलपुल. कवितरणरतकान्तकेतपान्तरायितयुवतिपुप्पावचितिनि, · सरलट्ठमस्तम्भसंभूतसंमूसलताशोकत.' तिविनिर्मितासुपीनस्तनलिखितपत्रलाञ्छितोरः स्थलरमणरसरभसोच्छलदुत्तालचलनासुलीलान्दो. . कामु विलसन्तीनां बिलासिनीनां मुखरमणिमेखलाजालवाचलिमबहलपंचमालप्तिपल्लवितविरह; वीरुषि, . जम्कुनकुलगुअत्यारापतपतङ्गसंदीपितमदनमददरिद्रितसुन्दरीसंभोगहुतवहे, .. कदलीदलातपत्रोत्तम्भनभारभरितमभुनाभोगसंभावनाविककुचकुम्भमण्डलानामितस्ततो · विहान्तीनां . मोरूणामनवरतझणझणापमानमणिमंजीरशिञ्जिताकुलित नलकेलिदीपिका कलईससंसदि, रमणरततिरतवनितारतिरसोत्सेकविचलटिकचविचलिमालम्बामोदसुरभितसु.. भंगभुनानाभीवलीमगर्भ तमालदलनिय सरसपूरितकरकिशलयपुटेन यमितनखलेखनीधारिणा "खचरनिचयेन रच्यमानसहचरीकोलफलकतलतिलकविचित्रपत्रमशिनि, खलरतामियुक्तकुंटहा-.. रिकातानुतलोत्तरलतररुतोत्सावितनिच्च (चु) जमूलविलनिलीनोलकवालकालोकनाकुलंकाकोल.. कुलकोलाहलकाहले, बहमोफिलप्रलापगलितलजस्यनिसर्गादुत्तालतरसुरतसंरम्भिणाः पण्यानाजनस्य कलगलोछल्लोहलोछपितानुलपनपरसारिकाशावसंकुलकुलायकरलोपकण्ठ नरठिता- . भिनवाशानारतिचेतसि माकन्दमारीमकरन्दविन्दुस्यन्दुदुर्दिनेन मुचकुन्दमुकुलपरिमलोल्लासिना प्रचलाफिकुलकालापसीमन्तोचितेन बातचातकेनाचम्पगानसुरतनमखिन्नखेचरीपयोधरमुखलुलितघनधर्मनलमारीगाले, निधुवनविधिविधुरपुरन्धिकाघरदकदपितदीपमानाननचपक, चारिशरीफबीनसीधुनि, पुण्डेक्षुकाण्डमण्डसंपातिनीगिः पिङ्गपरिषद्भिश्चण्डतरमुड्डमरितडिण्डिमारवाकाण्डताण्डवितशिखण्डिमण्डले, मृहीकाफलगलनचटुलकामिनीकरवलयमणिमरी चिमेचकितकिकिरातरामिनि, नालिकेर फलसलिलविल्लुप्यमानमिथुनगन्मथलहावसानपयःपानानुच्छवाच्छे, कन्दुकविनोदव्याननिस्तारितविभ्रमेणतरुणजनसंनिधानविवृद्धश्नङ्गारमत्सरेण भ्रः 'मविभ्रमोमान्तभासत्परिमलमिलन्दसुंदरीसद्रोहमण्डितापाझपातेन विन्योकिनी समाजेन यां कारुणचरणपोटलितबकुलालवालमुमिनि, रननिरसंपिारितकुचकलशमण्डलाभिर्महीरुहनिवहं.. महिलाभिरिव परिपाकपेशलफलगिनंतमध्यभिर्वीजपूरवल्लरीभिरपराभिश्च वृक्षौपधिवनस्पति.' Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ... ... .. .. a . . ८ ......... . लताभिरतिरमणीये, नरखंचरामराणां मिथः संभोगलक्ष्मीमिव दर्शयति निखिल वनवनानी श्रियमिवादाय जातजन्मनि, रोध्रवराग़वैध्ययनीरन्धितकेतकीरजःपटलंनिमलितंकपोलदर्पणेनवि विधकुसुमदलविनिर्मितललामकर्मणा कुटनकुड्मलोल्यणमल्लिकानुगतकुन्तलकलापेन तापिच्छगु. लुच्छविच्छुरितशतपत्रीसकसनद्धचिकुरभङ्गिना मरुषकोद्भेदविदर्भितदमनकाण्डशिखंडितकेशमा शेन प्रियालमंजरीकणकलितकर्णिकारकेसरविराजितसीमन्तसंततिना चम्पकवितविकचकच(काञ्च)नाराविरचितावतंसेन माधवीप्रसुनगर्भगुम्फितपुन्नागमालाविलासिना रक्तोत्पचनालान्तरा लमृणालवलया कुलशकोटेन (1) सौगन्धिकानुवद्धकमलकेपूरपर्यायिणा, सिन्दूरवारसरकुसुन्दरकदलीप्रवालमेखलेन शिरीषवशवाणकतनघालंकारचारुणा मधुकानुविद्धवन्धूकधंतनूपुरभूषः णेन अन्यासु च तासु तासु कामदेवकिलिकिञ्चितोचितासु क्रीणांसु वद्धानन्देन सुन्दरी जनेन सह रमन्ते कामिनः" . ( यशस्तिलकचम्पू.१ आश्वास) भो काव्यरसिकगण! यह चम्पूकी वनक्रीड़ाके वर्णनका कुछ थोड़ासा अंश आप लोगों की सेवामें भेट है। जिससे कि आपको भलीभांति समझमें आसकता है कि चम्पू अद्वितीय ग्रंथ है। उपरिलिखित हृयगद्य कविने कैसी अनुपम अनुप्रासमाला पहनाई है। काव्य पाठक न्दोंको यह तो विदित ही होगा कि उपमा, विरोध, श्लेप, परिसंख्या आदिको रचना तो.. प्रत्युत सरल है किन्तुं अनुमाप्सोका बनाना उच्चतम भूषण है। कादम्बरी तथा" माघऋवि. के शिशुपालंबधमें ऐसी अनुप्रासोंका अद्भुत छंटाटोप नहीं पाया जाता । इस उपयुक्त हृधः । गद्यमें पूज्याचार्यने नैसी अनुपम और अद्वितीय अनुप्रासमाला पहिनाई है उसी प्रकार प्रियकाव्यरिसकवृन्दोंके आस्वादके लिये माधुर्यगृणः कैसा पंथ पद्यमें अद्भुत मरा हुआ है। जहातक आप काव्यसागरमें गोते लगायेंगे आपको यह बात अच्छी तरहसे ज्ञात हो जायगी कि-माधुर्यगुणं, उत्तमतासे जैन, काव्योंमें ही पायाजाता है । शायद मैं इसका कारण : जैन काव्योंके रचयिता भाचार्यगणोंकी क्षमा, अहिंसा तथाः वैराग्य समझता है। यह बात विना दृष्टांतके शायद आप लोगों की समझमें नहीं आवे । हम प्रसिद्ध भैनेतर काव्य काव्यप्रदीप" के दो श्लोक इस बातकें निर्णयके लिये देंगे "स्वच्छन्दोच्छलदच्छकच्छकुहरच्छातेतराम्युच्छटा मर्छन्मोहमहर्षिहर्षविहितस्नाहिकाहाय वः ॥ भिन्यादुधदुदारदर्दुरदरी दीर्घादरिद्रद्रुमद्रोहोद्रेकमयोमिमेदुरमदा मन्दाकिनी मन्दताम् ॥ ......" .... : भा र काव्यमदीप प्रथमः उल्लास ) TOTO प्रियम Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... .. ... : .. : ... .. . ........:: करनेमें शर्माते नहीं हैं यह अत्यंत धुरणास्पद है। किंतु हम इस जीतको बड़े स्वाभिमान साथ कहते हैं कि जैन काव्योंमें श्रृंगार रसको प्रायः निन्न स्थान ही मिला है तथा शांति वीर करुणादि लोकोपयोगी रसोको प्रधान स्थान मिला है। त्या जैन काव्योची रचना श्रृंगाररसको प्रधानकर संसारमें व्यभिचारादि अशुभ परिणामों के निमित्त जनेतर काव्योंकी तरह नहीं हुई, बहिङ्गलोकोपकारी विषयोंको उच्च स्थान ही मिला है। उदाहरणार्थ हम यश स्तिलकचम्पूच्चो ही लेते हैं । इस काव्यमें जो दिनचर्या, ऋतुचर्या आदिका जो वर्णन किया है वह अत्यंत उत्कृष्ट हैं । किसी काव्यमेथों में तो यह विषय पाया जाता ही नहीं, बल्कि किसी भी वैद्यक्ग्रेथने ऐसी चारु सरल मधुररीलिसे वर्णन नहीं किया होगा। : पाठकोंके विनोदार्थ हम चम्पूकें कुछ श्लोक अवश्य देंगे वाल्यांचा नादरणाननाशामधहितायां च न साधुपाक असाप्तनिद्रस्य तथा नरेन्द्र व्यायामहीनस्य च नान्नपाकः ॥ अर्थ-हे राजन् ! जैसे विना इके हुए मुखवाली तथा नहीं ढारी गई ऐसी स्थाली (वटलोई में अच्छा पाक नहीं बनता तथैव चिना निद्राको लिये हुए, तथा विना व्यायाम किये हुए पुरुषको अन्न नहीं पचता । .:. अभ्यङ्ग अषवातहा बलकारः कायस्य दाईयावहः। ......स्यादुनमङ्गकान्तिभरणं भेदः कफालस्यजितु । ___... आयुष्य हृद्यप्रसादि वपुषः कण्डुलमछेदि च । ...नाने देव यथा लेक्तिमिदं शीतैरशीतल ॥ यशस्टिलक) . ... अर्थात्-हे देव ! तैलमर्दन श्रम और वातको नाश करनेवाला है, और शिधिलताको निवारण करनेवाला तथा च शरीरको बलयुक्त करनेवाला है। तथा उबटन शरीरकी क्रान्तिको करनेवाला तथा च मेद, कफ, बालस्यको दूर करनेवाला है और है देव ! ऋतुके. • अनुकूल सेवन किया गया स्नान गर्म, ठंडे जलसे आयुके लिये हितकर, हृदयको प्रसन्न करतेदाला, शरीरकी खुजली, ग्लानिको नष्ट करनेवाला है। ... हुन्माद्यभागातपितोऽम्बुसेवी, श्रान्तः कृताशी वमनज्दराह । .. भगन्दरी स्यन्दविवन्धकाले गुल्मी जित्नुर्विहिताशनश्च ।। .. अर्थात् घामसे पीडित ऐसा मनुष्य यदि जलको पीवै तो उसकी मन्ददृष्टि होनाती है, तथा मार्ग श्रान्त अर्थात मार्गके चलनेसे श्रमको प्राप्त ऐसा मनुष्य यदि जलको सेवनः । करें तो वमन, बुखारको प्राप्त होवे, तथा प्रसाबबाधासे सहित मनुष्य भक्षण करें तो भगन्दरी रोग होजाता है, तथा जो मनुष्य त्याग करनेकी इच्छा रखता हुआ भोजनसे अफरा हुआ भी खाचे तो गुल्मी रोग हो । C.. :. .:.: . . : : . . . ....... al . . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : स्नान विधाय विधिवत्कृतदेवकार्यः । संतर्पितातिथिजनः सुमनाः सुवेषः । आप्तवतो रहसि भोजनकृतथा स्यात् .. ... सायं यथा भवति भुक्तिकरोऽभिलाषः ॥ (यश) ..... : । अर्थात स्नानको करके विधिके. अनुपार निन्द्रा को कर अपने अतिथिनों को संतुष्टकर, निराकृलचित्त होकर अच्छे वेषको धारणकर अपने.. हित नन गुरु आदिकोंसे युक्त एकान्तमें यदि भोजनको करै तो संध्याके समयमें उसकी भोजन करने में रुचि होती है। ...... चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले .............. मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते। .... ... भुक्ति जगाद नृपते मम चैष सर्गः ... ... .. :: स्तस्याः स एव समयो क्षुधितः यदेव ॥. ....:. अर्थात् हे राजन् ! चारायण नामक वैद्यने रानिमें मोनन करनेके लिये कहा है तथा तिमि नामक वैधने संध्याकालमें, धिषण नामक वैद्यने दोपहरके समयमें, तथा “चरक: नामक वैद्यने सुबह के समयमें भोजन करनेको कहा है। लेकिन मेरा तो इस विषयपर ऐसा मत है कि जिसको जब भूख लगे उसी समय भोजन करे। . ... अधिगतसुखनिन्द्रः सुप्रसन्नेन्द्रियात्मा। . . .. सुलघुजठरवृत्ति(क्तपक्तिं दधानः॥ . . श्रमभरपरिखिन्नः स्नेहसंमर्दिताः ।। ...": सवनग्रहमुपेयाद्भपतिमंजनाय ॥ . अर्थात-प्राप्त किया है सुखनींदको जिसने, अच्छी तरह प्रसन्न हैं इन्द्रिय, आत्मा मिसकी, तया बहुत थोड़ी है जठरकी वृत्ति (क्षुधा) जिसकी; भोजनको पचाता हुआ ऐसा और बहुत श्रमसे खिन्न ऐसा भूपति, तेलको शरीरमें मईनकर स्नान करने के लिये स्नान : गृहको नावे। . : आदौ स्वादु स्निग्धं गुरु मध्ये लवणमम्लमुपसेव्यम् । : रुक्ष द्रवं च पश्चान्न च भुक्त्वा भक्षयत्किचित् ॥ ....... भोजनके आदिमें स्वादयुक्त, घृत्युक्त भारी भोजन करना चाहिये। बीच में लवणयुक्त आम्लेके रससे युक्त मोजन करना चाहिये, पीछेसे रुक्षाहार करना चाहिये, तथा • मोमन करके कुछ नहीं खाना चाहिये। ....... शिशिरसुरभिर्भश्वातपाम्भः शरस, क्षितिपजलशरहेमन्तकालेषु.चैते। कफपवनहताशा संचयं च...प्रकोप ।। . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) मादोमासमें पवन प्रकोप हे रामन् । शिशिर ऋतु (माघ फाल्गुन) में कफका संचय होता है, सुरमि (वसन्तचैत्र वैख) ऋतु में कफका प्रकोप होता है, और धर्मऋतु (ज्येष्ठ, आषाढ) में कफ शांतिको प्राप्त होता है, गर्मी में वायु संचयको प्राप्त होता है, श्रावणमास होता है, शरद ऋतु (आश्विन कार्तिक ) में पवन शांतिको प्राप्त होता है शरदऋतु में पित्त संचय होता है, मार्गशीर्ष पौष पास में पित्त प्रकोप होता है, माघ फाल्गुन मास में पित्त शान्त होता हैं । ..T तदिह शरदि सेव्यं स्वादु तिक्तं कषायं । मधुरलवणमलं नीरनीहारकाले । नृपवर ! मधुमासे तीक्ष्णतिक्ते कषायें । प्रशमरसमथानं ग्रीश्मकालागमे च ॥ : अर्थात हे सम्राटवर | इस शरदऋतु में मिष्टान्न, तिक्त, कपायरसको सेवन करना चाहिये, तथा नीरनीहोर ऋतुमें मीठा नुनखरा आमुछेके रसको सेवन करना चाहियेः । वसन्तकालमें तीक्ष्ण, तिक्त कंपायरसको सेवन करना चाहिये, तथा ग्रीष्मऋतु के प्रारम्भ होने पर प्रशमरसान (मिष्टान्न ) को सेवन करना चाहिये आदि लोकोपकारी विषयका इसमें बहुत ही योग्य रीतिसे वर्णन किया गया है । इस ग्रंथके अष्टमास में समस्त आचार जिमाका दर्शन नड़े विस्तार के साथ तथा साहित्यकी हालियको दिखाते हुए जिस योग्य सुचारुरीति से किया है वह कोई दूसरे ग्रन्थमें नहीं मिलता । यह भी इसके अनन्यलभ्य महत्त्व द्योतन करनेके लिये उदाहरण होगा अतः पाठकों मनोविनोदके लिये स्नानवि far एक विशेषण दर्शाते हैं। ' "" ॥ ॐ म कमर विकतोरगं नरसुरः सुरेश्वरशिरः किरीटको टिकरूपतरु पल्टायमान चरणयुग हम् अमृताशनकर विकीर्यमाणमन्दारन मेरु पारिजातसंतान कवनप्रसून स्पन्दमानमकरन्दस्वादो न्मदमिन्मत्ता लिलोपोत्ताछित निष्टिम्पाटतियापार गिलासः वर चरक्रमा रहेका चितवेणुबलकीपणवानक मृद त्रिवितादाहरी मेरी मम्माभूत्यनवविशु परततावद्धवादनाद निवेदित निखिल विष्टिपाधिपो पासमावसरम् अनेकामर विकिर चुकी किशलया शो का नोकहोलसम्म पुनरुक्त कल दिक्पाल हृदय परागमपरम् अखिलमुनेश्व पेलाउनातपत्रत्र व शिखण्डमण्डलम - णिमयुखरेखा लिख्य मानमखमुखरखे भरी मालतले तिढकपत्रम्, अनवरत पक्षविक्षिप्यमाणोमयदक्षचामरपरम्परांशु माधवलित विने यजन पनप्रासादचरित्रम् अशेषप्रकाशितपदार्थातिशायी शारीरप्रभाप रिवेषमुपतपरित्समास्तारं मतितिमिरनि हरम् अनवस्तु विस्तारास विकारोसार विस्फारितसरस्वतीत तर्पित समस्त सरोभाकर म्हमारातिपरिवृढो पाहा शनासनावसान ग्न रत्नकरपसरपल्लवितवियत्पादपादपापोगम्, अनन्यसामान्य समवसरण समासीनमनुज दिवि नसुन 2 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जीवंधरको पत्र लिखती है । तथा विरहाग्नि दुःखसे दुःखित स्वामी जीवधर उसका क्या उत्तर देते हैं मदीयहृदयाभिधं मदनकाण्डकाण्डोतं नवं कुसुमकन्दुकं वनतटे त्वया चोरितं । . विमोहकलितोत्पलं रुचिररागसत्पल्लवं. . तय हि वितीर्यतां विजितकामरुपोज्ज्वला ॥ जी० ० ४ तथा स्वामीजी उसके उत्तरमें पत्रद्वारा यह भेजते हैं, :. " मम नयनमराली प्राप्य ते वक्रपद्मे . तदनु च कुचकोशप्रान्तमागत्य हृष्टा । · विहरति रसपूर्णे नाभिकासारमध्ये यदि भवति वितीर्णा सात्विया तं ददामि ॥ जी० च० ४ ० - काव्यरसिकमंडल ! नरा निरपेक्ष दृष्टिपर पक्षपातका एनक न लगाकर कहिये । प्रेमी प्रेमिकाओंके ऐसे सुन्दर पत्र क्या, और किसी कविने अपने नेता उसकी प्रेमिणो के साथ करवाये हैं; इसका सौभाग्य जी० ० के चयिता श्रीयुत महाकवि हरिश्चन्द्रनीको ही प्राप्त हुआ है। . : ........: .. पाठकों ! "जीवन्धरचम्पू" उत्तमतामें प्रायः सम्पुर्ण उल्लेखनीय है । अतः भोर हमको उल्लेख - करना चाहिये था किन्तु मनलतक पहुंचने में मार्ग अभी. विशेषः त्य करना है; अतः हम चम्पूको छोड़कर श्रन्यकाव्य के प्रधान भेद " महाकाव्य में उत्तमता दिखाते हैं। ............. . पाठकवृन्द ! जिस तरह वैष्णव महाकाव्यपंज मानकल आप लोगोंकी निगाहमें आते हैं उसी तरहसे जैनमहाकाव्य पुत्र भी उससे किसी हालतमें भी कम नहीं है । यद्यपि मैंने : लेखके पूर्व मागमें इस बातको दिखला दिया है कि बौद्ध तथा शंकराचार्य, महमुदगज़नवी; : औरंगजेब बादिके जमाने में जैन ग्रन्थराभोंके साथ २ जैनकाव्योंका मी प्रक्षय हुआ था फिर ... मी इस प्रक्षप युगसे वृहदवशिष्ट काव्य माग भारतमें उपस्थित हैं। . आप लोगोंको जो काव्य दृष्टिगोचर होते हैं वह प्रायः सम्पूर्ण निर्णयसागरके छपे हुए ही होंगे, क्योंकि जैन समान अपने धनके सामने ऐसे रत्नोंको थोड़ा ही कुछ, मूल्यवान समाती है ? नहीं तो मारतादि देशोंमें रक्खे हुए अपने काव्यरत्नोंको प्रकाशित न करती ? ... देखिये जितने भी जैन काव्य निर्णयसागर से प्रकाशित हुए हैं, वह सब जयपुरकी सरकाः रीलाबेरीसे प्राप्त हुए हैं। यह लायब्रेरी प्राईवेट तथा अन्दर है। इस लाइब्रेरी, जैने : कान्योंकी उपस्थिति बहुत है, उसमें से बहुत थोड़े प्रकाशित हुए हैं किन्तु वैष्णव काव्य Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) - निर्णयसागर में बहुलता से पाये जाते हैं इसलिये अपनी दृष्टिमें बहुत कम आते हैं, किन्तु यदि आप प्रकाशित तथा अप्रकाशित दोनोंको मिलाकर वैष्णव काव्योंसे तुलना करेंगे तो जैन 'काव्योंकी गणना किसी प्रकारसे मी कम नहीं हो सकती । . जैन महाकाव्य समुद्रके अन्दर जो विचित्र रत्न स्वरूप एकाक्षर वा द्वयाक्षर के C 'उपस्थित हैं, पाठकों को हम उन्होंका सिंहावलोकन कराते हैं । रोरोरा रैररैरेरी रोरो रोकररेररिः । रुरुरुरुरुरुरुरोरारारीरैकरोररम् ॥ (म० चंन्द्रपम ११ सर्ग) अर्थ-चिल्लाते हुए शत्रुके स्थागशील कुबेरको तिरस्कृत करनेवाले शत्रुको, चक्रोंके आक्षेप प्राप्त कर लिया ( अथवा चक्राक्षेपोंके द्वारा शत्रुका शत्रु स्वयं आगया । ) " ककाकुक के कांके किको कैफ ककः । ककुकौकः काककाकमका कुकुकका ङ्ककुः ( महा ० नेमिनिर्वाणं . ) अर्थात् देखिये विचित्र एकाक्षरसे समुद्रका कैंसा सुन्दर वर्णन किया है। कंकः किं कोeharकी किं काकः केकिकोऽककं । कोकः कुर्केककः कैकः कः केकाकाकुकांककं ॥ (महा० धर्मशर्माभ्युदय) अर्थ- चक्रवाक हंसके समान गमन करनेवाला वगुलाके व्याकार तथा मयू के समान स्वरूप धारण करनेवाले कौएके आकार, स्वर्ग, पृथ्वी जलमें अद्वितीय होकर कुटिकवासे मयूरके समान शरीरको समान मनाकर कुटिलतासे युद्ध करता मया । " गंगोरगगुरूग्रांग गौरगोगुरुरुग्रगुः । रागागारिंगरैरंगैरग्रेऽगं गुरुगीरगात् " ॥ ( धर्मशर्माभ्युदय ) अर्थ- गंगा, शेषनाग तथा हिमालय के समान गौर 'पाणीवाले बृहस्पति तथा प्रखर है ! प्रकाश जिनका ऐसे वृहस्पतिके समान गानसे महानांद के कारण विषके समान महानाद : : होता गया । ( अर्थात् जिस प्रकार शरीरको विष दुख देता है इस प्रकार कर्णौके लिये. कटुक नाद ) f रैरोsरिरीरुरूरारा रोरारारिरेरित ।. करूरो रुरूरारारुरुरुरुरुरेररूरः ॥ ( महाकाव्य द्विसंधान ) अर्थ - धन देनेवाले, और शत्रुओंके समूहको अच्छी तरहसे नष्ट करनेवाले शब्द . करनेवाले प्रतिविष्णु (श्री बलभद्र ) बड़े १ आरोंको शत्रुओंके प्रति प्रेरित करते गये और शुभ हृदयको घायल करते मये । यहां रामायण पक्ष में (द्वितीयार्थ ) घन देनेवाले, शत्रुओंके समूहको नष्ट करनेवाले, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२४). विनीयमानो गुरुणा हि नित्य सुरेन्द्रलीला लभते नरेन्द्र ॥ निगृहतो वाधकरान प्रजानां भृत्यांस्ततोऽन्यानयतोऽभिवृद्धिम् । कीर्तिस्तवाशेषदिगन्तराणि, व्याप्नोतु यन्दिस्तुतकीर्तनस्य ॥ कुर्याः संदा संवृतचित्तवृत्तिः फलानुमेयानि निजहितानि । गूढात्ममंत्रः परमंत्रभेदी भवत्यगस्थः पुरुषः परेषाम् ॥ ... ..... (चंद्रप्रभ ४ सर्ग ३६-१२) अर्थ-हे पुत्रं उत्कृष्ट प्रमाववाली विभूतियोंको चाहते हो तो अपने. जनों (प्रमा) के कमी दुःखित मत करो, क्योंकि नीतिज्ञ कहते हैं कि उन. सम्पत्तिओंके आनेका प्रथम कारण जनोंका अनुराग ही है। . (प्रनानुरंजन शासन शासन है, नहीं तो सब निश्कासन हैं) [तथा सम्पत्तिओंका. समागम. निर्यसन रानाके होता है । __.. निर्व्यसन नरेशके सम्पत्तिोंका आगमन होता है, तथा रानाका निन्यतनत्व, अपने परिवारके वश करने पर ही होता है, अपने परिवारके वशमें न करनेसे व्यसन (दुःख गरीय (अतिशय मड़ा) होता है। अपने परिवारके वशमें रखनेकी इच्छा रखनेवाला राजा कृतज्ञताके पारको प्राप्त होवे । क्योंकि दूसरे २ गुणों से सहित होने पर भी कृतन (किये हुए ऐशानको न मानने वाला समस्त लोकको दुःखित करता है। कलिशालके दोषोंसे रहित हे राजपूत्र ! तुम धर्माविरुद्ध धन, कामकी वृद्धिको प्राप्त करो क्योंकि युक्तिसे धर्म, अर्थ, कामको सेवन करनेवाला नरेश इस लोक, पालोक दोनोंको सिद्ध करता है । अपने प्रमादको नष्ट कर अपने तमाम कार्य वृद्धोंकी अनुमति से सदेव करो क्योंकि वृहस्पतिसे विनीयमान ( कहा हुवा ) इन्द्र, सुरेन्द्र, लीलाको प्राप्त होता है, अथवा वृद्धसे विनीयमान राजा इन्द्रलीलाको प्राप्त होता है। प्रनाको बाधा करनेवाले ऐसे राज्य के 'नौकरोंको निग्रह, और प्रजाकी उन्नति करनेशले ऐसे राज्य नौकरोंका अनुयह करने में वन्दिजनोंसे स्तुति होनेवाले ऐसे रानाकी (तुम्हारी ) कीर्ति सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त ... होवेगी । (इस श्लोकके अनुपार वर्तमान नौकरशाही जो कि प्रजाको वाधा कर रही है, . उसके लिये निग्रह स्वरूप असहयोग जिसका प्राण अहिंसा है: करना जैन समाजको धर्म, ... कर्तव्य एवं च.शुमंनीति प्रतीत होती है। ....... हमेशा अपनी चित्तवृत्तिको प्रकाशित मत करो ; जिससे कि तुम्हारे विचार केवल कार्यके फलसे अनुमान किये जाय; क्योंकि गूढ़ विचारवाला पुरुष जो है सो दूसरेके विवा रको जान सकता है किन्तु दूसरे लोग उसकी मंत्रणाओंको नहीं जान सकते। .... :प्रिय पाठक वर्ग विचारियें कितनी बहीं चड़ी हुई उच्चकोटिकी राजनीति है, यदि . : Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह राजनीति: काममें लाई जाय तो मान भारतवर्षकी यह दशा नहीं होती। प्रिय पाठक बंद; मैं अब "धर्मशर्माभ्युदय की उत्तमता दिखाता हूं। इस महाकाव्यके रचयिता श्रीयुत . कवि हरिचन्द्रकी प्रशंसा बहुतसे प्राचीन विद्वानोंने की है। उसमेंसे हम. कादम्बरी"के : रंचियता श्रीयुत बाणकवि "हर्षचरित में कहेगये पद्यको दिखाते हैं। .:. . . पधन्धोज्ज्वलो हारी, कृतवर्यकमास्थिति। . भारहरिश्चन्द्रस्य, गद्यषन्धो नृपायते ॥ ( हर्षचरित ) ".. .. प्रिय पाठकवृन्द ! प्रसिद्ध वाणकवि भी कहता है कि पदबन्धोंसे उन्ज्वल,हारी,ऐसी - भट्टारहरिश्चन्द्रकी गद्यबन्ध नृपकी तरह आचरण करती है । उन्हीं श्रीयुत कविराम हरिश्च· चन्द्रकृत यह एक मनोहर पयकाव्य है । - इसकी हम क्या प्रशंसा करें इसके प्रथम सर्गमें सज्जनदुर्जन वर्णन बहुत चारु.. रीतिसे किया जाता है । उदाहरणार्थ हम दो पद्य उद्धृत करते हैं। गुणानस्तान्नयतोयसाधुपद्मस्य यावदिनमस्तु लक्ष्मीः। दिनावसाने तु भवेद्गतश्री राज्ञः सभासंनिधिमुद्रितास्यः॥ धर्मशर्मा० : उच्चासनस्थोऽपि सतां न किंचिनीचः स चित्तेषु चमत्करोति। स्वर्णाद्रिश्रृंगाग्रमधिष्टितोऽपि काको वराकः खलु काक एवाघ.अ. प्रिय पाठक वृंद ! अपरके श्लोकों श्लेषगर्मित स्वमावोक्तिको दुर्जनके लिये कैसा .: दिखलाया है सो विचारिये । तथा दूसरेमें दुर्जनके लिये कैसा अर्थातर दिखलाया है। . तथा इसी तरह इस ही पहिले सर्गमें जम्बूद्वीप, सुवर्णगिरि तथा रत्नपुर नामके ग्रामका वर्णन पदलालित्य, अलंकार, रस, उपमा, उपमेय आदिसे अधिकतम सुन्दर बना • दिया है। जो कि नैपध माधर्म नहीं पाया जा सकता। तथा पांचवें सर्गमें स्वर्गसे उतरती हुई देवांगनाका अत्यंत मनोहर ऐसा वर्णन किया है जो कि नैषध, माघमें उन देवांगना. '. ओंका ऐसा वर्णन ही नहीं मिलता तथा सुन्दरके साथ २ वृहदाधिक्य के साथ किया है। . जिसको कि बहुतसे महाकाव्यों सिर्फ ३-४ श्लोकोंसे किया होगा। तथा इसी तरह इस महाकाव्यके कुल दसवें सर्गमें विन्ध्याचल पर्वतका कैसा उत्कृष्ट उत्तम वर्णन किया है नो. ....कि किसी काव्यके अन्दर नहीं पाया जाता है तथा ११ वें सर्गमें ऋतुओंका वर्णन विशेष उल्लेखनीय है किन्तु हम उसका दृष्टांत स्वरूप देने में बिलकुल असमर्थ हैं; क्योंकि अभी बहुत दूर पड़ाव है; . . . . . . .:. . . अब हम हर्पकवि, श्रीयुत हरिचंद्र कविनीकी काव्यरचनाका मिलानकर "महा. काव्य के भागको ख़तम करेंगे । . . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... .. .. श्रीयुत हर्षकवि राजा नलकी विद्याके वर्णनमें कहते हैं--- "अधीतियोधचरणाप्रचारण, दशः चतुत्रा प्रणेयन्नुपाधिभिः । ..चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं, न वेद्धि विद्या सुचतुर्दश स्वयं ।। . : . . अर्थ-महारांना नलं अघीति; ज्ञान, आचार, प्रचार से विद्याओंमें, ४ पर्नेको करते .तथा उन्होंने स्वयं. १४ विद्याओंको प्राप्त कर लिया। मैं नहीं जानता कि राजा नलने १४ विद्याभोंको कैसे प्राप्त किया..... . ___ तथा कविवर हरिचन्द्रजी राजाकी विद्याका वर्णन करते हैं। ततः श्रुताम्भोनिधिपारदृष्वनो, शिंकमानेव पराभवं तदा । विशेषपाठाय विधृत्य पुस्तकं करान्न मुञ्चत्यधुनापि भारती (धर्म) - अर्थ-श्रुतप्तांगरके पारको प्राप्त ऐसे इस राजासे पराभव(हार)की आशंकासे ही मानों विशेष अध्ययन के लिये सरस्वती अपने हाथसे भान मी पुस्तकको नही छोड़ती है। विचारिये पाठक उभयकाव्योंकी उत्तमता । अब हम और भी इस विषयमें मिलान करते हैं। ___ हरिचन्द्र कवि राज्ञीके वर्णनमें कहते हैं:--- कृतौ न चेत्तेन विरंचिना सुधानिधानकुम्भौ सुदृशः पयोधरौं । " तदङ्गालग्नोऽपि तदा निगद्यतां स्मर परासु कधमाशु जीवितः ।। ___ अर्थ-उस सुव्रताके दो स्तन यदि वृह्माने अमृतके कोष नहीं बनाये । तो फिर कहिये उसके शरीर में लगा हुआ मृत कामदेव किस तरह जीवित हो गया। तथा "हर्ष कवि कहते हैं: अपि तषि प्रसपतोमितै कान्तिझरैरंगाधिता। स्मरयौवनयो खलु इयोः प्लपकुम्भौ भवतः कुचावभौ ॥ अर्थ-क्रांतिरूपी झरनासे . अंगापित दमयन्तीके शरीरमें विद्यमान कामदेव यौवनके लिये उसके कुचयुग तैरनेके लिये दो घडोके समान होते भये । ..... कपोलहेतोः खलु लोलचक्षुषो विधियधात्पूर्णसुधाकर द्विधाः। . विलोक्यतामस्य तथा हि लाञ्छनच्छलेन पश्चात्कृतसीवनवण.॥ : अर्थ-संचल हैं चक्षु जिसके ऐसी राज्ञीमें ऐसे कपोलोंके कारणसे ब्रह्माने चन्द्रमाकी . द्विषा विभक्त कर दिया । अतएव कलंक छलसे सिलाईका निशान दीख पड़ता है। . तथा हर्षकवि कहते हैं....तसारविन्दुमंडलं, दमयन्ती वंदनाय वेधसा । कृतमध्यविलविलोक्यते, 'धृतगम्भीरावनीखलीलिम् ॥ अर्थ-ब्रह्माने निश्चय करके दमयन्तीके मुखके बनाने के लिये चन्द्रमाका सब ..."" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) .. ... पर रचा था। मेघदूत श्रृंगारमय है किन्तु अजितसेनन ने उस मेघदूतका एक २ या दो २ · चरण लेकर. शृंगाररससे बिलकुल वैराग्यरसमें परिणतकर वास्तवमें ताबाको सोना बना दिया है। इस ग्रंथका सिर्फ एक श्लोक दिखाते हैं कि यक्ष नगरीमें मद्य पीनेका विधायक था। उसका कैसे ढंगसे निषेध किया है। ................. . लोलापाङ्गा सुरसरसिका प्रोन्नतभूविकाराः ।.... .: प्राणेशानां रहसि-मदनाचार्यकं कर्तुमीशाः ।... स्वाधीनेऽर्थे विफलमिति वा वा मनेना च यस्या। • . मासेऽन्ते मधुरतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतं ॥ (पाम्युदय) ... . प्रियपाठकवृंद इसी तरह इस काव्यमें उत्तम २ श्लोकोंमें वैराग्यशिक्षा भरदी है। तथा रत्नसिंह कविने अपने प्राणप्रिय काव्य" भक्तामरका चतुर्थ पादलेकर समस्यापूर्तिकी कैसी खूबी दिखाई है वह यह एक उदाहरणसे आप लोगों के समझमें भाजायगी। एतन्मदीरित वचः कुरुनाथ नो चेत् । . रोत्स्यत्यरं नरपतिः स्वयमुग्रसेनः। .. .. कुर्वन्तमुत्तमतपोऽपि भवन्तमेषः। . नाभ्येति किं निजशिशो परिपालनार्थ ॥ और भी जैन संसारमें बहुतसे खंडकाव्य है । जिनमें से उल्लेखनीय निनशतक है जिसको कि स्वामी समन्तभद्रजीने बनाया है । आदिसे अन्ततक चित्रमय कविता है। निसके पद्य "अलंकारचिन्तामणी" में चित्रालंकार प्रकरणमें उद्धृत किये हैं, उसको और हम बताते हैं । हम उसके सिर्फ ३ या ४ पद्य उद्धृत करते हैं । प्रासादगुण विशिष्ट द्वयक्षर ठोंक शायद ही किसी जैनेतर काव्यमें पाया जाता हो। हम आपको वही दिखलाते हैं। . . .....:::: : ___मानोनानामनूनानां मुनीनां मानिनामिनम् ।, .. मनूनामनुनौमीम नेमिनामानमानमन् ।। ... . और भी प्रासादगुणविशिष्ट गत प्रत्यागत (सीधे वाचो तो वही और इलों उल्टे वाचने पर भी वही) देते हैं । ... .. "नतपाल महाराज गीत्या नुतममाक्षर। . .... रक्षमामतनुत्यागी जराहा मलपातन ||:....... .... ...ऐसे श्लोक बनानेमें अर्थक्लिष्ट दोष नहीं छूटता मंगर यह दोनों शोक इतने .... प्रासादके हैं. कि देखते ही अर्थ मालूम पड़ जाता है । ." - :-.. .. .. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) और बी १ श्लोक यह है कि नो सब चित्रों की खानि है ।"पारावाररवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा।.... वामानाममनामावारक्ष मईडमक्षर | :: . ..:. इसका द्वितीयपाद मध्यपमक है । और मताल भी व्यंजन है । और अवर्ण.. ही स्वर है । गूढ़ द्वितीय पाद है ( अर्थात द्वितीय पादके अक्षर तीनों चरणोंके अन्दर पाया जाता है) और गत प्रत्यागत ( अर्थात प्रत्येक चरणको उल्टा सीधा वाचे जाने. पर कोई भी परिवर्तन नहीं होता ) और अर्थभ्रम है ! अर्थात प्रत्येक चरणका पहिला मक्षर और अंतका अक्षर मिलानेसे पहिला पाद बन जाता है ऐसा ही प्रत्येक पादका द्वितीय २. अक्षर, उपान्त्य जोड़नेसे द्वितीय पाद बन जाता है। ऐसा ही तृतीय और . . चतुर्थ चरणं समझना और इसमें सर्वतोभद्र है । इसका चित्र नीचे दिया जाता है। . (सर्वतो भद्रवंध) . वा र र वा | रा पा - राक्ष मा क्ष क्षमा क्षरा वा मा ना. म ना मा चा - - - - - वा | माना | म । मनामा । वा राक्ष..::मा..क्ष क्षमा | क्ष |रा पारावार र. वा | रा. पा_... : : .. इसी चित्र प्रकरणमें ललंकार चिंतामणि चक्रकी स्वनामगर्भित एक चक्रचित्र भी .. दर्शाते हैं इसमें " अजिसेनकत अलंकारचिंतामणि भरतयशसि" यक किस चातुर्यसे निक कता है यह इस चित्र में दिखलाया गया है। .. .......... (यह चक्र चित्र न छप सकनेसें नहीं दिया गया है ) इस. चक्र चित्रका श्लोक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..:.. ".. E: :. . . . -: अन्याकृत्यमलोवरो भवयमः कुर्वन्माति तापसे । ... . तत्वा चित्यमतीशिता तबशितः स्तुत्योरुवाणि पुनः ॥ जिष्णूतष्फुटकीर्तिवारवशमा श्रेयोऽभिधे मण्डने । धीर स्थापय मा पुरो गुरुवर त्वं वर्धमानो रुधी ॥ - खंडकाव्यमै क्षत्रचूडामणि नामक ग्रंथ है इसमें जो महत्त्व है. यह किसी कविको नहीं मिला है। इसमें अश्लोक मय जीवधरं अनुपम विचित्र चरित्र और अश्लोकोंमें नीति है । वास्तवमें ऐसा नीतिशास्त्रका काव्य शायद ही संस्कृत काव्योंमें हो नव कि: हम इसका स्वाध्याय करते हैं, तो यह मिलता है जिसको किं. प्रातःकाल पढ़ना चाहिये। ... जीवित्तान्तु पराधीनाजीवानां मरणं वरं । : मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने। ...... अब हम आपको कालिदासके रघुवंशकी तथा क्षत्रचूड़ामणिकी नीतिका मिलानः कराते हैं। . .. ..: : " : प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि। स पितः पितरस्ताषां केवलं. जन्म हेतवः ॥.. रात्रिंदिवविभागेषु यदादिष्टं महीक्षितां। ....... तसिषेष नियोगेन, स विकल्प पराङ्मुखः। .. स वेलावप्रवलयां, परिखीकृत सागरं । . : .. : अनन्यसासनमुर्वी, शशासक महीमिय'॥ (रघुवंशे). सुखदुःख प्रजाधीने, तदाभूतां प्रजापते। . प्रजानां जन्मवर्ज हि सर्वत्रपितरो नृपाः॥.. रात्रिंदिवाविभागेष्ठ नियतो नियति व्यधात् ।. . . . कालातिपातमात्रेण, कर्तव्य हि विनश्यति ॥ ..... प्रयुद्धेऽस्मिन् मुवं कृत्स्ना रक्षयत्येव पुरीमिव ! ... . राजन्वती भूरासीदन्वर्थ, रत्नसूरपि। (क्षत्रचूड़ामणि) : .... . . मिलानकर देखिये कितना रस, लालित्य, सरलता क्षत्रचूडामणिमें टपकती है। "गद्यकाव्य" भी एक, काव्यका भाग है यद्यपि हृद्य हृद्य गद्यके दृष्टांतको पूर्वमें दे चुके हैं : फिर भी "गचिंतामणि" कादम्बरीसे पदलालित्य, सरसतामें उत्तम है । कादम्बरीमें वृथा। ही मसिद्ध शब्दोंको देकर, कठिनता बढ़ा दी है। हम ही इसबातको नहीं कहते । वल्कि . . एक निरपेक्ष प्रोफेसरका भी ऐसा ही मत है। हम उसके वाक्योंको नीचे उद्धृत करते हैं . . ...... c : Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 'माननीय विचारशील सुहृत्तम पाठकवृंद ! जिस समय हम बहुविस्तृत हिन्दी जैन काव्यसागरकी तरफ दृष्टिपात करते हैं तो हमारी दृष्टिं वहांसे हेटती नहीं है। और - वहां पर चचल मनको भी अपने स्वभावको बाध्य होकर बदलना पड़ता है। मौर वह अपने द्वारपाल चक्षुयुगलको वहोंपर खड़ाकर भाप इस विस्तीर्णसागरमें मनोनीत माणिक्य पुंजकी प्रबल ग्रहणेच्छासे प्रवेश होता है । धैर्य विभूषित सज्जनवृंद ! भाप शांतचित्त . .. होकर थोड़े समय के लिये आप भी इस अनंतसागरके तट पर एकाग्रचित्त हो बैठिये । थोड़े ही समयमें यह सेवक हिन्दी जैनकाव्योत्तमरत्नपुंज भेटमें सम्मानित कर आपसे .. विदा लेगा। . . . : . . : . . .प्रथम जिससमय हम जैन हिन्दीपुराण काव्य, आदिपुराण, महापुराण, हरिवंशपुराण, पाडवपुराण, पुण्यातव, यशोधरचरित पुराण, आदि नैन. पुराण काव्यनिकुंभ में घुसते हैं तो शब्दार्थालंकारोंकी शोभासे पूर्ण, एवं च नूतन नामागुणों की सुगन्धित माला ओंसे सजे हुए एक ऐसे निकुंजमें पहुँचते हैं-जहां पर धर्म, शान्तिका वायुमण्डल प्रतिसमय हमारे त्रस्त, चंचलहृदयको,अनुपमशान्त वैराग्यमें स्थित बनाता है। इस पवित्र निकुंजमें अधर्म, हिंसादुर्गन्धयुक्त वायुको प्रवेश मन्य परिकल्पितं लिंग पुराणादिककी तरह कहीं भी किसी सूक्ष्माति सूक्ष्म छिद्र द्वारा नहीं हो पाता, क्योंकि इन पुराणानिॉनोंकी चारों दीवाले भहिंसारूपी ईंटों तथा शान्ति के गिलाओंसे बहुत मज़बूतीके साथ बनी हैं। जिस तरहसे अन्यपुराणोंमें कपोलकल्पित, नितान्तासंभव, भ्रभोत्पादक तथा हिंसा घणा क्रूरतादि. विषयोंकी, भत्याधिक्य मर्यादाके उलंघन करनेवाला.. वर्णन पाया जाता है। जैसे. कि ब्रह्मानी की उत्पत्ति .पदंमसे हुई है (1) सीता. की उत्पत्ति विना. माता पिताके हुई है (२.) तथा एक गौमें ३३ कोटि देवता. वास करते हैं इत्यादि असंख्य मिथ्या तथा विशेषवासनाओंके जालमें फंसानेवाली कथानों का वर्णन जैसे वैष्णव पुराणोंमें पाया जाता है तैसा वर्णन भव्य, सभ्य, काव्यनिकुंनवृंदमेंसे किसी भी काव्यके सूक्ष्मतमांशमें भी अनुषधानकारियोंके दृष्टिपथ नहीं होता । प्रायः इन वैष्णव. पुराणोंकी ऐसी निर्मूल, अत्यतासंभव हिंसासे आब्यः (प्रचुर) देखकर ही हमारे यूरोपीयलोग मनगढंत, मिथ्या, भ्रमोत्पादक, मकारके वर्णनके लिये उपमाका काम लेते हैं । "मस्तु । ... हम दृष्टांतस्वरूपमें इनके ( जैन पुराणों के ) हृद्यगद्य इस लेखमें लिखकर इस लेखका वृह: दाकार न करेंगे । किंतु दिलमें सदैव चुभनेवाले ( हर्मोत्पादक.) यशस्तिलकचरितं पुराणके वारेमें अवश्य लिखेगे । इस पवित्र पुराणको पढ़नेसे राक्षसी प्रतिवाठे मनुष्यके भी हिंसासे घृणा होकर पवित्र अहिंसामय जीवनका संगठन होगा। तथा इस पुराणमें कविनें. किस सौन्दय अनुपम ग्रहितासे वर्णन किया है कि पाठक महोदयोंकि रोमांच खड़े होनाते हैं. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस बातको हमारे नन्दनीय सामायिवर्ग तथा मष के विद्वान साध्याप कर : - अपने क्षेत्रों में विश्वस्तिको वो सकेंगे। मैं अब पुण्याश्रवाद उत्तमोत्तम भनकायोंकी उत्तमता बतलाने के लिये समय नहीं रखता। फिर मी कायोत्तमः पार्थ राशुवाटिकांके कुछ चुने हुए कुसुमोंसे भाप सज्जनोंपर वर्षा करताहुभा इस प्रकरण को सान्त करूंगा। .: वास्तबमें कविवर मुवीसजीने. श्री पार्थ राय पुराणको काव्य दृष्टयां अति मनोहर काव्य बनादिया है । दृष्यांतके लिये हम उनका साधे का समय देते हैं.:..भुवनतिलक भगवंत, संतज़न कमल दिवापर। .. . जगतजंतु बंधच अनंत, अनुपम गुणसांयरः ॥. . . . रागनाग भयमंत, दूत-उच्छेपन वलि अति। .. रमाकंत अरहंत, अतुल जसवंत जगतपतिः ॥ . . तथा च-विमलवोधदातार, विश्व विद्या परमेसर। ... - लछमीकमलकुमार, मार-मातंग-मृगेसर ॥ . ., · मुखमयंक अवलोकि, रंक रजनीपति लाजै . " नाममंत्रपरताप, पाप पत्नग डरि भाजै ।।. क्या ही आदरणीय तां आलंकारिकाभूषणों से सज्जित है । प ठक क्षमा १९, हा इन कविकी इस लेखनशैलीकी उत्तमताको देखकर आश्चर्य होता है तथा हम इसी पुराणके और श्लोक कुछ देंगे जिपसे कि इनकी विद्वत्ताका पूर्ण पता टगै: जय अश्वसेन कुलचंद्र जिन, संक्र चक्र पूजित चरन । ... . . . . तारो अपार भवजलधिते, तुम तरंड तारन तरन ॥ ... . . . वाघ सिंह वस होयहि, विषम विषधर नहिं डं। .. भूत प्रेत बेताल, व्याल वैरी मनं संके॥ . : साकिनि डाकिनि अगानि, चौर नहि भय उपजावें।... ... रोग सोग सब जाहि विपत नेरे नहिं आवै । (पा० पु०) : पाठ वृद, कविकी इस अनुपम कविता सेनालंकार, अर्थालंकारको देखकर गा. नहीं कह सर्वते कि जैनेंतर काय?में ऐसे पुराणात्न उपहात होंगे ? अब इन्हीं कविका बनाया हुआ जैनशता" ग्रंथ है। इसकी उत्तपताका वर्ण र बया करें यह हिन्दी में पयः मय अत्यंत काय है जिनकी कि कुछ बानगी हम आपको देते हैं. ....... .. चितवत वदन, अमलं चंद्रोपम, तजि चिंता चित होय अकामी। त्रिभुवन चंद पाय तपं चंदन, नमत चरन चंद्रादिक नामा।.. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .... ... तिह, जग छई चंद्रिका कीरति, चिहन चंद्र चिंतत शिवगामी ॥ वन्दा चतुर चकोर चन्द्रमा चन्द्रवरन चंद्रप्रभस्वामी ।। इसी तरह. और मी च विशति स्तुति कती उत्तम की गई है इसको हमारे ... पाठ दही विच रें। - इस कवि? यज्ञमें हिंसा निषेधार्थ कैसे अनमोल बोल रहे हैंकहै. पशु दिन सुन यज्ञके करैया मोहि, ..... होमत हुताशनमें कौनसी घडाई है। स्वर्गसुख मैं न चहौं "देह मुझे" यौँ न कहौं, - घास खाय रहौं मेरे यही-मन भाई है ।। जो तू यह जानत है वेद घौं वखानत है, . ... .. 'जग्य जलौ जीव पाव-स्वर्ग:सुखदाई है। डा क्यों न बीर या अपने कुटुंब ही को, .... . मोहि जिन जारै जगदीश की दुहाई है । प्रिय पाठकवृंद ! कविको नव यह सरा, स्युक्ति यज्ञ में हिंसाका निषेध, अन्यमतावलम्बि देखते हैं तो दांतों तले उँगली दवा देते हैं । वप्त इन कन्युत्त के दो ही ग्रंथोंकी . वागी देकर हम आगे बढ़ते हैं। हम. स्वर्गीय कविवर यान्तरायनीकी कविताकी अन · उत्तमता बतायेंगे। हम उदाहरण के लिये इनका धर्मविलास पेश करते हैं। वास्तवमें हिंदी. संपारमें यह एक उत्तम पद्य ग्रंथ है । इसकी मी थोड़ी का नो भव्य पाठकोंके निमित्त पेश करता हूं। ज्ञानीका वचःणआपने छप्पयमें इस प्रकार किया है धाम तजत धन तन्तत त गजवर तुरंग रथ। :, अरि तजत नर तजत, तजत सुवंपति प्रमाद पथं ॥ अपि अजत अघ भजत, भजत संथ दोष भयंकर । मोह तत मन तजत सजत दल कर्म सत्रुवर ॥ अंरि चट चट्ट सब कट्टकरि, पट्ट पह महि पट्ट किय। करि अहल? भवक? यदि सट्ट सह सिव सह लिए: तजत अंग अरधंग करत थिर; अंग पंग-मनः । लेखि अभंग सरवंग, तजत बचननि तरंग मन ।:: जित अनंग थिति. सैलसिंग, गहिं भावलिंग पर। तप तुरंग चढ़ि समा रंगरंचिं, करम जंघ करि । - . . .. 17 . .... Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "गुण विचार श्रृंगार वारे उद्दिम उदाररुख । करुणा कम रस रीति, हॉल हिरदै उछाह सुख । अष्ट कर्मदल मलन, स्ने बरते तिहि थानक । तन रिलेच्छ दीमत्स, बन्द दुख दशा भयानक । । अर्द्धन अनंत बल चितवन, शांत सहज वैराग ध्रव । नवरस विलास परकाश तब, जब सुबोध प्रगट हुव । पाठक, मिस तरह जेनेतर कवि श्रृंगारन विषय पर ही कविता रचकर सुकवि बननेका दावा करते हैं। किन्तु हमारे कविश्रेष्ठ श्रीयुन बनारसीदासनीने उपयुक्त पद्यमें आत्मामें ही नवरस अति संर रीत्या घटिन किये हैं। पर. बृह्म त्माका यह नवरस युक्त अपूर्व चितवन भविद्वानोंको अभूतपूर्व आनन्दमय बनाता है। ऐसी मैन कवियोंकी अनुम्म सुन्दर ३ विना क्या अजेन कायों में मिल सकती है। हम इन्हीं कदिशृष्ठकी कविता ऐसी पेश करते हैं कि समस्त हिन्दी संभारमें इस दंगकी कविता नहीं मिलेगी। भगवान पश्चाय और सुरश्च सथकी स्तुति में आपको (सर्वहस्वाक्षर) मनहरण करम भरम जग तिमिर हरन खग। उरगल खल पा शिव मग दरसि। निरखत नयन भविक जल वरपत। हरषत अमित भविक जन सरसि ॥१॥ मदन कदन जित परम धरम हित। सुमिरत भगत भगत सब डरसि। सगल जलद तन मद सपत.फन । कमठ दलन जिन नमत बनरसि ॥२॥ (सचे हृस्वकारान्त) पट्पद सकल करम खल दलन कमठ शठ पवन कनक नग । धवल परम पद रमन, जगत्त जन अमल कमल खग। परमत जलधर पवन, सजल धन समतन समकर । पर अघर जहर जलद, सकल जननत भव भय हर ॥ यम दलन नरक पद छयकरन, गम अतुट भव जल तरन। वर सवल मदन वन हरद हन, जय जय परम अभय करन ॥३॥ . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) ". प्रिय पाठक वृन्द, विचारिये कैसी उत्तमतम कविता है। क्या ही पदलालित्य अर्थ - गीर्यमय एवं च अलंकारोंसे सुसज्जित है । इन कर्व श्वर श्रीयुत बनारसीदासभी द्वारा जैन: काव्यपुंग हरेता से रचा गया है। इन कविवरकी कविता देखकर श्रीयुत रामायण लेखक गोस्वामी तुलसीदासजी भी इनपर प्रत्यंत, प्रेम, श्रद्धा करने लगे थे। 'एक दफे गोस्वामी तुलसीदासजीने अपनी "रामायण" की समालोचना के बारे में पूछा तब पुज्य कवि रजीने 'उत्तर दिया राग सारंगवृन्दावनी | विराजे रामायण घट मांहि, भरमी होय मरम सो जाने । मूरख मानें नाहिं विराजे, रामायण घट मांहि ॥ १ ॥ आतमराम ज्ञान गुन लछमन, सीता सुमति समेत । शुभपयोग वा नर दल मंडित, वर विवेक रण खेत, विराजै० ॥ २ ॥ ध्यान धनुष टंकार शोर सुनि, गई विषयदति भाग । भई भस्म मिथ्यामत लंका, उठी धारणा आग, विराजै० ॥ ३ ॥ जरै अज्ञान भाव राक्षसकुल, लरे निकांछित सुर । जूझे रागद्वेष सेनापति, संसै गढ़ चकचूर, विराजै० ॥ ४ ॥ चिलखत कुंभकरण भव विभ्रम, चुल्कित मन दरपाव । थकित उदार वीर महिरावण, सेतुबंध समभाव, विराजै० मूर्छित मंदोदरी दुराशा, सजग चरन हनुमान । घटी चतुर्गति परणति सेना, छूटे छपक गुण वान, विराजे० ॥६॥ निरखि सकति गुन चक्रसुदर्शन, उदय विभीषण दीन । फिरै कपंध मही रावणको, प्राणभाव शिरहीन, विराजै० ॥ ७ ॥ इह विधि सकल साधुघट अंतर, होय सहज संग्राम । यह व्यवहार दृष्टि रामायण, केवल निश्चय राम, विराजै० to l तुलसीदास इस अनुपम आध्यात्मिक चतुथको देखकर अत्यंत प्रसन्न हुये और अपनी कविताको " तिसी.मी रायक भी नहीं " यह कहकर कविवरमीकी मक्ति से .. " भक्ति विरदावली " नामक सुन्दर कविता ( पार्श्वनाथ स्तोत्र ) प्रदान की । वास्तवमें इन कविचरकी जितनी भी कविता कुसुम वाटिका है वह सब आध्यात्मिक मंत्रसे सुगंधित है | आपका बनाया हुआ " समयसार " कैसी सुंदर कविताओं आध्यात्मिक रहसे हुआ है इसके किये हम आप लोगोंको एक पद्य भेंट करते हैं भरा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम रसिक अरु रामरस, कहन सुननको दोय । जब समाधि परगट भई, तब दुविधा नहि कोय ॥ '.. नंदन वंदन थुति करन, श्रवण चितवनः जाप । पठन पठावन उपदिशन, बहुविधि क्रिया कलाप । -: "शुद्धातम अनुभव, जहां शुभाचार तिहि नाहि । ..... ... करम करम मारग विषे, शिवमारग शिव माहि ...और भी जनसाहित्यमें अच्छे २ ग्रेय हैं उनमें से श्रीयुत कवि वृन्दावनजों के पुत्र अनितदासने भैत सामायण जिसमें कि ७१. अध्याय है, रची हैं। काव्यदृष्टिसे यह मी अनुपम कविता है । इसमें तुलसीदाप्तमीकी तरह निर्मूल विवेचन नहीं किये गये हैं। ... जैनकाव्यनिकुंजमें "बुधजनसतसई" मी बहुत उत्तम ग्रंथ है। इसकी वानग के लिये हम नीचे लिखते हैं आपने पहिले १०० श्लोकोंमें जिन स्तुति की है उनके दो श्लोक. यह है. तीन लोकके पति प्रभु तीन लोकके तात् ।। ... त्रिविधि शुद्ध बन्धन करूं, त्रिविधि ताप मिट जात् ।। मन मोहो मेरो प्रभु, सुन्दर रूप अपार । · इन्द्र सारिखे थकंग, करि करि नैन हजार..... __... आमे जाकर इसी ग्रंथमें बहुत ही अच्छी २ शिक्षायें, तथा शुभ नीतिन है। जिनको पढ़कर माचर्य होता है। . प्रिय पाठकों, अब आपका समय नहीं लेना चाहता है बल्कि इसी कथनको . उपसंहारसे कहता हूं। . . ........... .... संसारमें संस्कृत काव्यसागर के समान कोई भी काव्य इस जगतमें नहीं हैं, तिम - संस्कृत काव्यसागरमें भी नैन काव्यप्तागर अत्यंत विस्तीर्ण है तथा इसके अन्दर वह वह . रत्न उपस्थित हैं कि यदि काव्यरसिकवृन्दोंने इसको छाना तो उन रत्नों को प्राप्त होगी। - जो कि नैनियों के लिये ही वे. भूषण नहीं होगे वरिक इस ३० कोटि जनसंख्यावाले मारत के लिये अनुपम प्रदर्शनीयका स्थान पावेंगे। तथा जैन हिन्दीकाव्यपुंज भी हिन्दी काव्यनिकुंजमें अनुपम, वैराग्यके रससे अमृतको पिलाता हुआ, दीन हीन भारत के रक्षक असहयोगकी जान अहिंसाके सूक्ष्मः । तत्त्वोंकी शिक्षा देकर इतिहासमें अपना सर्वोपरि नाम लिखवा सकता है। .ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । भाच्चरणाम्बु नलगन । स्वततेच्छुक-वनवारीलाल स्याद्वादी, शास्त्रीयखंड, मोरेना (ग्वालियर) । MA.. .. .. .. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) चमेली, आदि विचित्र पुष्पोपर विहार करनेवाले काले काले भ्रमर, व प्राकृतिक नानाप्रकारके दृश्य, कनककर्णिकामय कनक पृष्प मनुष्यके संकुचित हृदयकमलको जैसे सगद्द और हर्षित विकसित करते हैं, वैसे ही काकुंन, शृंगार, वीर, कल्या, शांतादि रस, उपमा उपमेय चित्रादि विचित्र अहङ्कारोंसे मनुष्यका स्हृ-चित्त, श्रृंगार, वीर, करुणा, या शांतर में भीग जाता है। तथा वार २ उन भानन्द लहरियों में लहराया करता है। तदनुसार जैन कार्योसे आनन्द और आनन्दके साथ २ अनुराम अनिर्वचनीय आनंदकी प्राप्ति होती है। ___अब यहां पर यह प्रश्न हो सकता है कि काव्य क्या वस्तु है और इसकी क्या व्युत्तत्ति है? श्री जैन व्याकरण मत नुसार इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हो सकती है कि जिनोदेवता यस्य स जैन: जनानां काव्यानि, तेषां महत्वमिति नैन काव्यमहत्वम् ” अर्थात् जैन कायोंका महत्व, अथवा जैन काव्येष्वेव महत्वम् जेनकाव्य महत्वम् । अर्थात जैन कायोंमें ही महत्व (खूबी ) है, जैनेतर कायोंमें नहीं है। अथवा वेवल काव्य शब्दकी व्युत्पत्ति की जाय तोकि विश्च भश्च इति वो तो व्येति प्राप्नोति तत काव्य अर्थात् आत्मपुख या स्वर्गादि सुख, मोक्षको प्राप्त करता है या करता है उसे काव्य कहते हैं, क्योंकि "चतुवकिलाप्ति काव्यादेव प्रवर्तते " अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्षकी प्राप्ति काव्यसे ही होती है । अथवा काय ब्राह्मणः विः पक्षी इति कविः कविरिव अयमिति कविः तस्य कर्म काव्य अर्थात जिस प्रकार हंस पक्षी दुध पानीका भेदकर सार भाग दूधको ग्रहण करता है, उसी प्रकार कवि विद्व न दुर्जनतादि हेय पदार्थोको छोड़कर मार उपादेय मोक्षादि या तत्वों को प्रण कर आत्मसुखमें निमान हो परमपदको प्राप्त करता है। अथवा कान्यका प्रथम अक्षर. ककार ही लेते हैं, तब भी इसका स्थान सर्वोच्च सिद्ध होता है क्योंकि जैनेन्द्र मह वृत्ति घ.कारका स्थान कण्ठ कहलाता है " अह विसनीयाः कण्टका" अर्थात-भ कर्ग -विसर्ग ये काठ स्थानीय होते हैं, तथा यह रञ्जनोंमें प्रथम ही गणित होनेसे इसका सबसे वाँसे विशेष अर्थ प्रतिपादकत्व है, यही कहा है कि___ कारः सर्ववर्णानां मूलं प्रकृतिरेव च, काकाराजायते सर्व कामं कैवल्य. मेव च " अर्थात्-कार सर्व वर्णीमें मूल प्रकृति है और कहारसे सब काम तथा कैवल्य केवलज्ञान प्रप्त होता है। अथवा " कचते दीप्यते मस्तकोपरि शोमते " इति मावः । अर्थात सर्वोकृष्ट जैसे मस्तकपर मणि शे.मता है, वैसे ककारवर्ण शोमा सहित वांछित फरको देता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि ( रानापत्यंतगुणोक्तिराजादिम्पः कृत्ये च ट्या) अर्यान-इत्त नरेन्द्र महाभाष्य सुत्रसे "व्यग' प्रत्यय करके काव्य शब्द सिद्ध होता है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) ... .. अब यहाँ प्रश्न हो सकता है काव्य क्या वस्तु और क्या लक्षण है ? तो एक हिन्दी परिमापासे विदित होता है कि-"परस्पर एक दुसरेको सहायता चाहनेवाले तुल्यरूप पदाथोंका एक साथ किसी एक साधनमें लगा देना? कान्य कहलाता है। इससे संस्कृत भाषाके । काव्य सहित तरलता, माधुर्य, रसाधिस्यता, मनोहरता, पदयोगना, अर्थगढ़, मक्षर अर, . भाव प्राचुर्य, कांति, प्रसन्नतादि गुण समझना चाहिये। . . इसलिये कविकुअरोंने काव्यका विलक्षण लक्षण विरोचना और गम्भीरतापूर्वक . यही किया है कि . चमत्कृतिजनकतावच्छेदकं धर्मवत्वं काव्यत्वम्।" . अर्थात-मनुष्य के हृदयको चमत्कार उत्पन्न करनेवाला धर्म ही काव्य कहलाता है। अथवा-"रमणीयताप्रतिपादकार्थशब्दः काव्यम् ।" . ... अर्थात-उत्कृष्ट तथा मनोहरताका प्रकट कानेवाला शब्द काम है, क्योंकि शब्द रमणीयता कान्यकी वाह्य छटावलरी है। प्रथम तो शब्द सौन्दर्य ही सहृदय हृदयी मानवोंको काव्य पढ़नेके लिये शीघ उत्सुक बना देता है । पश्चात रस, मार, तथा अकारादि मानस सरोवर में स्वकीय कास्य कविता कलिकाका विकाप्त करते हैं तथा काव्यका, लक्षण इस प्रकार भी करते हैं कि: चतुरचेतश्चमत्कारि कवेः कर्मकाव्यम् । ___ अर्थात-बुद्धिमान पुरुषों को चमत्कार उत्पन्न करनेवाला कविका कर्मकाव्य शब्दसे. . : व्यवहृत किया जाता है। मपया-साहित्यदर्पणकारने इस प्रकार लक्षण किया है कि-.. "वाक्य रसात्मकं काव्यम्" अर्थात इस शृंगार, वीर, आदि नवों ही रसोंसे युक्त काव्य कहा जाता है। यद्यपि यह लक्षण सर्व जगह व्याप्त नहीं होता है, तथापि यत्र कुत्र स्थानमें सुगंठित होता है, क्योंकि विना अलंकारसे, और निर्दोष विना काव्य श्रव्य नहीं होता है इसलिये बाग्मट कविने इस प्रकार लक्षण किया है कि: "शब्दार्थों निर्दोषौ सुसगुणौ प्रायः सालङ्कारौ काव्यम्" .. ... यहीं " काव्यप्रकाश " कारने लक्षण किया है कि- . . " तददोषौ शब्दार्थो सगुणी अनलकति पुनः कापि" .. ___ अर्थात वाक्यार्थ पदादि दोषोंसे रहित, अलंकारों से युक्त, औदार्य, काति, माधु- . . यदि गुणों से युक्त शब्दार्थ काव्य कहा जाता है, क्योंकि रसात्मक वाक्योंके होनेपर मी . सौन्दर्यादि गुणों से रहित और सदोष होनेसे काव्य प्रशलाको प्राप्त नहीं होता, अतः उक्त .. क्षों से युक्त ही सत्काव्य होते हैं। तथा पदलालित्य, अर्थगौरखता विषयगृहता, रस पूर्णता, सुन्दरता, हत्यरोचकता, और शान्तता आणि गुणों से युक्त काव्य है तो जैन काब्ध है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... काव्यके मुख्यतया तीन भेद हैं परन्तु इनके भावान्तर बहुत भेद हो जाते हैं। वे. भेद इस प्रकार हैं कि गद्यपद्यमित्रैश्यं विविधा अर्थात् गद्यकाव्य, पद्यकाव्य, और: गअपमिश्निन, जैसे यशस्तिलक, जीवन्धर चम्पू आदि लेकिन यह सब कार निषि होनेपर ही श्रव्य होते हैं, क्योंकि एक कविका वचन है कि "श्रव्यं भवेत्काव्यमदूषणं यन्न निर्गुणं कापि कदापि मन्ये । उत्कोरका स्थात्तिलकाच्चलाक्ष्याः कटाक्षभावैरपरे न वृक्षाः ॥ १॥ ........ ....... (धर्मशमाभ्युदय ) अर्थात्-निषिकाव्य श्नव्य होता हैं, निर्गुणं कभी नहीं, ऐसा मैं मानता हूं, जैसे कामनीके कटाक्षों से तिलक नामका वृक्ष कलियों से युक्त होता है, और दूसरे वृक्ष नहीं कोरकित होते. । इसलिये निपि काव्य मुकाव्य और श्राप होते हैं, और ऐसे ही काव्यों द्वारा बास्तवमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्षकी प्राप्ति होती है। क्योंकि काव्य कान्यकुंभमें, धर्म, अर्थ, काम मोक्षके लिये, अनर्गल अनावृत कपाट द्वार हैं । जो मनुष्य जिस परंतुकी इच्छा करता है, उसके काव्य कुंनमें सरलर त्या प्रवेश हो जाने से इच्छिा पदार्थकी सिद्धि हो जाती है क्योंकि किसी. कविके ये वचन हैं कि वे महारमा धन्य हैं तथा उन्होंका यश सदा के लिये स्थिर हैं. कि जिन मानवोंने काव्य कनक कटोरियों का बनाया है, व उनमें जिन महानुभावोंकी किया गाथा गाई गाई है, वे पुण्यवान, यशस्वी, कीर्ति कौमुदीके कौमुदीश कहलाते हैं । काव्य, कविता, जनताकी विद्वत्ताकी इयत्ता; सहृदयता, चतुरता, धार्मिकता, रचनासुन्दरता, तथा उपम उपमेय इत्यादि भाव उसकी प्रतिमा पर प्रतिमासित कर देती है। काव्यके लक्षणानुसार पदलालित्य, सुदरता, रोचकता, मावाम्मीरता, मधुरता, अनिर्वचनीयताके साथ हुआ करती है। इसलिये मनुष्य अपने. २. अमीष्ट पदार्थोम सलग्न हो अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करते हैं। फल भी इसका यही है कि काव्यं यशसेऽकृते व्यवहारविधेशिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वतये कान्तासंमिततयोपदेश युजें ॥ १ ॥ (काव्यप्रकाश) अर्यात-काव्य यश-कीर्तिके लिये, व्यवहार विधि, अकल्याणके नाशार्थ, शत्रुनिवागोर्थ, कांतासमित. उपदेशके हेतु-निमित्त किया जाता है, इससे यह तात्पर्य है कि श्री रामचंद्रादिकी तरह प्रवर्तना चाहिये रावण आदिकी तरह नहीं, कीर्ति आदि पूर्वोक्त गुणोंकी प्राप्ति, और व्यवहारादि दक्षता इसीसे होती है, इसीलिये हमारे प्राचीन कवीश्वर और कवि भाचार्योने काव्यों का प्रणयन तथा उपयोग किया। अतः पुरातन कालमें हिंसा, हीनता, हास्य, हिचक, हास, हेना, (अपमान ) हुवाद और हठता. आदि हेय दुगुणोंको जड़मूलसे उखाड़कर महिंसा, हर्ष, हित, हित, हिम्मत, होम इत्यादि हित करनेवाला काव्य कमलाः Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - . ..(४४:) सुखपूर्वक विलोडन किया करते हैं। जिससे आमाकी कालिमा, अपवित्रता, भरोचकना, अपमान, कुध्यान, घमसान, भज्ञान पलायमान होनाते हैं, और इसके अनन्तर दणकी तरह जाज्वल्यमान, ज्ञानभानु प्रकाशित होनाता है, पश्चात अनन्तमुख, वीर्य दर्शनादि गुण प्रकट होते हैं । तथा आत्मा कर्म समूहोको नष्ट कर मोक्ष पदवीको प्राप्त कर लेता है, खास यही बात जैन काव्यों में बड़े महत्वकी बताई है। ..... भन इसके बाद अलंकारोंके नियममें कुछ बता देना उचित समझता हूं... क्योंकि दोपोंसे रहित होनेपर भी तथा गुणोंसे संयुक्त होने पर मी विना अलंकारों से वाणी शोभाको प्राप्त नहीं होती है जिस तरह स्त्री विना आभूपोंसे नहीं : शोभित होती है । अतएव अलंकारोंका होना वैसे ही मावश्यक है, वे अलंकार उपमा, उत्प्रेक्षा, रूप, दीपक, भादिः भेद प्रभेदोंसे नाना तरहके होते हैं। लेकिन मुख्य भेर दो ही हैं, शब्दालंकार, अर्यालंकार उपर्युक्त तो अर्थालंकारमें परिगणन किये हैं और शब्दालंकारके छः भेद हैं-यया-चित्र, इलेष, अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, तथा पुनरुतवदामाप्त, ये छ होते हैं । यमकादि प्रायः सर्व तोभद्रादिवन्धोंमें प्रायः लोकवद्ध होते हैं। .... . काव्योंकी रचना भी रीतिके अनुपार प्रीतिदायक होती है, इसलिये ग हीय, वैदर्भाग आदि देशाालके अनुसार करना चाहिये । ___ रसों के बारेमें इतना ही कहना होगा कि नैनेतर काव्यप्रकाशादि अन्योंमें केव३ आठ रसोंका विवेचन किया है, वह इस प्रकार है कि- शृंगारवीरकरुगाद्भुतहास्यमयानकाः " • इत्यादि पश्चात् लिखते हैं कि "शान्तोऽपि नवमो रसः " अर्थात् शन्त नामका भी एक रस है, इसमें अजैन कवियोंकी निक्ष बुद्धि है; अतः निस बुद्धिसे ही यह वाक्य है। लेकिन मैन कवीश्वोंने इसको सूत्र अपनाया है। यहां तक कि इनके प्रत्येक काव्योंकि आदिमें, मध्यमें, अन्तमें, खून ही वर्णन किया है, और बास्तवमें चाहिये मी यही क्योंकि इसीसे आत्माका कल्याण होता है। श्री वाग्भटकवि अपने वाग्भट्टालंकार में लिखते हैं कि साधुपाकेप्यनास्वाचं भोज्यं निलवणं यथा । तथैव नीरसं काव्यमिति ब्रूमो रेसान्निह ॥ . . अर्थात-निप्त तरह मोननका अच्छी तरह पाक होने पर भी विना सैन्धव (नमक) के अच्छा नहीं लगता है, उसी हरह नीरस काव्य मी अच्छा और श्रय नहीं होता है। अतः यहाँ मी रस कहते हैं शृंगारवीरकरुणाद्भुतहास्थभयानका। रौद्रवीभत्सशान्ताच नवैते निश्चिता युधैः ॥ .... . . ... " Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) . . अर्थात्-विद्वान् पुरुषोंने शंगार, वीर, करणा, अदुनं, हास्य भयानक, रौद्र, : वीभत्स, .. - और शान्त ये नव ९ रस कहे हैं । और इनके मी स्थायी भाव, अस्थायिभावः अर्थात. ति, हास्य, शोकादि भावोंका विस्त र किया है । इस प्रकार सरन्धादि फल, लामादि... पूर्वक यह "सूक्ष्म उपोद्धात" बाद हम जैन: काव्य और इतर काव्योंको देखते हैं तो पदलालित्य, अर्थगौरव, शब्दगौरव, विषयगहनता, रसंपूर्णता, सौन्दर्यादि गुण जैन कायोंमें . पाये जाते हैं, उतने अन्यमें नहीं पाये जाते हैं । यह बात. नो, विद्वान् व जिनके पास - सज्ज्ञान पेटी रूपी कप्तौटी है वे स्वयं इस संदर्शन जान सकते हैं :-........... दृष्टांतके लिये "कादम्बरी' नाम उच्च ग्रंथके कुछ अंश आपके समक्ष उपस्थित करता . हूं.। कादम्बरीके रचयिता वात्स्यायन वंशमें उत्पन्न कुवेर नामक विद्वान उनके चित्रभानु और.चित्रमानुके सुपुत्र श्री वाणकवि हैं। इन व विका समय काल ममी ठीक.२ निश्चित. नहीं हुआ है, fiतु इतिहासवेत्ताओंको तथा मुझे भी जहांतक पता चला है तो . यही .. मालूम होता है कि राजा हंसवर्षनके समयमें ये कवि हुये थे। और इंसाधनकी समामें : प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, उक्त राजाका समय (६१०) ८६०९०) है । इसे सिद्ध होता है कि : - इसी समयके मरीब करीब हुये होंगे । इन व विकी प्रशंसा गणमान्य मनुष्य बहुत करते हैं और चाहिये भी, लेकिन यह प्रशंसा तस्तक ही ठीक होती है, जबतक इनसे अच्छा काव्य: कमल विकसित न हो, नहीं तो "निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायतेग अर्थात्-वृक्षरहित : प्रदेश में अंडीका वृक्ष भी वृक्ष माना जाता है । जैसे बाणकवि, अपने " कादम्बरी " नामक.. गद्य काव्यमें प्रथम ही राना शूदकका वर्णन करते हैं कि- ... ... .. ...: आसीदशेषनस्पतिशिरः समभ्यर्चितशासनः पाकशासन इवा. परंः, “चतुरुदधिमेखलाया. भुवो. अर्ता, प्रतापानुरागावनतसमस्त... सामन्तचक्र, चक्रवर्तिलक्षणोपेतः, चक्रधर इव करकमलोपलक्ष्यमा णशङ्खलाच्छना, हर इव जिनमन्मथा, गुह इवाप्रतिहतशक्तिः, कमल.... योनिरिव विमानीकृतराजहंसमण्डल, जलधिरिव, लक्ष्मी प्रसूति, इत्यायेतादृशः शूद्रको नाम राजा। . . . ... . ... अर्थात्-समस्तरामाओंपर शासन करनेवाला दुसरा इन्द्र ही हो, चार समुद्र मर्यादावादी पृथ्वीका स्वामी, प्रतापानुरागसे रानमण्डको अवनत कर दिया है, चक्रवर्ती क्षणोंसे युक्त, . श्रीकृष्ण की तरह हस्तकमलमें शंख, चक्रको धारण करनेवाला अर्थात् हस्तमें शंख चक्र दि. ., प्रशस्त चिन्हों से युक्त था, श्रीकृष्ण मी साक्षात २ शंख पसे युक्त ही है, और महादेव..:. की तरह कामदेवको जीतनेवाला, अर्थात् कामदेवने मत्म कर दिया तदनुसार हमने मी उसे : भस्म कर दिया, लेकिन यह बात असम्भव माम होती है, क्योंकि अंगांड़ी. चहके. इस : Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) राजाको साक्षात् कामदेव ही बना दिया है, और इस गद्यमें केवल वीररस, तथा उपमाका वर्णन किया है। अब देखिये जैन कवीश्वर श्री हरिश्चन्द्र और श्री कविसिंह श्री. वादीमसिंह जिनक सांस्कारिक नाम अजितसेन था, लेकिन पंडितोंने इनका प्रचुर पाण्डित्य देखकर "वादीमसिंह यह नाम रखखा । इनकी रचना चातुर्य से विद्वत्ता, धर्मज्ञनादि गुगों से प्रसन्न हो जब पण्डितोंने 'वादी सिंह ये नाम रखा तो न जाने इनकी कितनी विद्वत्ता होगी । हम यहां पर श्री हरिचन्द्र कविके से मिलान करते हैं, जिससे पाठक समझ जायेंगे कि किसकी गद्य रचना में सौन्दर्य तथा पदलालित्य, अर्थगौरव है । वकिल संदन व आनन्दितसुमनोगणः, अन्तक इव महिषीसमधिष्ठतः, वरुण इवाशान्तरक्षणः, पवन इव पद्मामोदरुचिरः, हर इव महासेनानुयातः, नारायण देव वराहवपुष्कलोद योद्धृत धरणीवलप सरोज सम्भव इव सकलसारस्वतामरसानुभूतिः, भद्रगुणोऽप्यनागः विबुधपतिरपि कुलीनः सुवर्णधरोप्यनादित्यागः, सरसार्थपोषक वचनोऽपि नरसार्थपोषकवचनः आगमाल्याश्रितोऽपि नागमाल्याश्रितः, एतादृशः सत्यन्धरनाम राजा । सत्यन्धर अर्थात- महाकवि हरिश्चन्द्र रानाका वर्णन इस शैली से करते हैं कि इन्द्रकी तरह देवता समूहको और (शब्दश्लेपसे बतलाते हैं) विद्वज्जनोंको प्रसन्न करता है, तथा देवताओंको ही प्रसन्न करता है, अतः इस राजामें इन्द्राधिक्य द्योतन किया, इतने ही वाक्य में अतिशयोक्ति, श्लेष, उपमा, उपमेय, शब्द संदर्भ, अर्थ गौरव कितना है? यह आप स्वयं विचारें । अत्र आगे चलिये । कालकी तरह महिषीसे युक्त है, यहाँपर भी वही बात हैं, अर्थात् राजा. महिपी - रानी, और काल महिषी-युक्त है । वहगकी तरह दिशाओंको रक्षण करनेवाला है, अर्थात् वरुण देवताकी तरह है तो वरुण दिशाओंकी रक्षा करता है. और आशाओं यानी इच्छाओंको अन पर्यंत रक्षा करता है । वायुकी तरह कमलकी सुगं वे से युक्त है, अर्थात् पद्मकी आमोद सुगंधिसे रुचिर है और, यह पद्मा-रक्ष्वीसे युक्त है। महादेवकी तरह महासेन से अनुयात है, अर्थात् महादेव, अपने पुत्र महासेन कार्त्तिकेय से युक्त हैं, और राजा महासेना, अर्थात महती सेना से अनुगात हैं। श्री कृष्णकी तरह प्रथ्वी को धारण करनेवाला है, अर्थात् श्री कृष्णने वराहावतार धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया है, और यह राजा, वराहपुष्कलोदय-भत श्रेष्ठ युद्धमें पुष्कर विशेष उदयसे धरणीवलय को धारण किया है । इत्यादि, देखिये किस चतुरता बुद्धिमत्ता से दोनों पक्ष पाते हुये, रचना, सौंदर्य, पदलालित्य, उपमा, उपमेय, विरोध, अतिशयोक्त प्रतिकादि अलंकारोंमें कैसी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (92) दिशिनिहितविजयस्तम्भः इति, इत्यादि एतादृशी नाम सत्यन्धरो राजा । इस गद्य वाणविकी अपेक्षा वीर रस, समासभूयस्त्व, जो कि गद्यका खास गुण है, और इसीका नाम ओजगुण कहलाता है, क्योंकि "भोजः समासान्त्व दरम्" अर्थात -समासभूयस्व ओम गुण कहलाता है, वह गधेने अत्यन्त सुन्दर होता है, इस लिये इस गद्य में विशेषतया समास भूयस्य, पदलालित्य दिया है। 14 श्रीमाणकवि अपनी कादम्बरी में एक जगह महाश्वेता नामकी नायिका भावी पति माण में विज्ञाप दिखलाते हैं । तथा महाश्वेता पत्तिमरणसे दुःखित हो विलाप करती है। हा अम्ब! हा तात ! हा सख्य ! इति व्याहरन्ती तथा हा नाथ जीवितविन्न अक्ष के मामेकाकिनी पशरणम करुणः विमुच्य यासि, ईपदपि विलोकय, कार्त्तास्मि, मक्ता स्मि, अनुरक्तमस्मि बालास्मि, अगतिकास्मि, दुःखितास्मि, अनन्यशरणास्मि मदनपरितापि पाठको | देखो कविने किस चतुरतासे वर्णन किया है, या विचार मुक्त हैं कि इस गद्य अर्थ गौरव हैं ? और कोई कारुणिक रात मी नहीं विशेष प्रतीत होता । यहां पर हम पूछते हैं कि "मन दुःखावल्या होती है तथा पतिमरणसे खीकी अत्यन्त ही दुःखावस्या हो जाती हैं, लेकिन वाणवि वर्णन करते हैं कि माता पिता और सखियोंको सम्बोधन कर कि मैं दु:खित हूँ, भक्त हूं, अनुरक्त हूँ, 'अनाथ हूँ, इत्यादि कहकर कवि अन्तर्मे कहते हैं कि "मंदनपरिभूतास्मि" अर्थात् कामदेवसे परिपीडित हूँ, देखो, विचित्र बात है कि जो स्त्री पतिमरणसे दुःखित है वह ऐसा वाक्य कैसे कह सकती है ? मेरी समझ तो • कोई न कहेगा, वह केवल श्रीवाणविकी न्यूनता है । चा, अब इसका वर्णन कविसिंह श्री गदीम सिंह किया है। हां, मनोमाकार रूप हो, महागुण मणिद्वीप !हा, मानस विहारारूप ! हा मदनकेलिचतुरभूप मन पृप्येवरून 1. कांसि कासीति विलपन्ती, शोकविषमोहिताही लताड़ तो प्रात्यायन्ती काचित् देवता गिरनुस्थापयामास । इस रचना शैलीको आप जान सकते हैं किस सौन्दर्यसे, पदलालित्य तथा कारुणिक रससे कविने वर्णन किया है । और भी देखिये कि कहीं ९ इनका गद्य बिल्कुल मिटता है, सम्भव भी है कि इन्होंने इससे सहायता ली हो। जैसे " वत्स | वलनिषूदनपुरोधसमपि स्वभावतीक्ष्णया विषणया कुर्वति सर्वपाडित्ये भवति पश्यामि नावकाशमुपदेशानाम् तदपि कमसहस्रेणापि कवलयितुमशक्यः प्रलयतरणिपरिष 'शोध्यो यौवन जन्मा मोहमहोदधिः, अशेष भेष प्रयोग वैफल्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्पादनदक्षी लक्ष्मीकटाक्षविक्षेपविसी दर्पज्मरः । मन्दीकृतमणिमन्त्रौषधिप्रभाव प्रभावनाटकनटनसूत्रधारः स्मयापस्मार इति किं-. चिदिह शिक्ष्यसे। . (गचिंतामणि) . :: बस, ऐसा ही विज्ञकुल वर्णन शब्द परिवर्तन कर पाणकविने किया है । जैसे"तात चन्द्रापाड़ विदितवेदितव्याल्याधीतसर्वशास्त्रस्यते नावल्यमुपदेष्टव्यमस्ति, केवलं च निसर्गत एव भानुभेद्यमतिगहनं तमो पौवनप्रभवम्, दारुणी लक्ष्मीमदोऽत्यन्ततीबोदर्पदाहज्वरोष्मा, अमन्त्रगम्यो विषमो विषय विषस्वादयोह इत्यतो विस्तरेणाभिधीयसे।" (कादम्बरी) । .. और भी. महुतसी जगह मिलान पाया जाता है । गधचिन्तामणिमें शान्त रस बतला. . नेके लिये, विषय घासनादि छुड़ाने के लिये शिक्षा दी है कि अभिनवविहंगलीलावनं यौवनं, अनङ्गभुजङ्गरसातलं सौन्दर्य, स्वरविहारशैलूषवृत्तस्थानमैश्वर्य, पूज्य पूजाविलङ्घन. लधिमजननी महासत्वता च प्रत्येकमपि भवति जननामनर्थाय, चतुर्णी पुनरेतेषांमेकत्रसन्निपातःसन सर्वानधनाभित्यर्थस्मिन् का संशीति (गचिन्तामणि) . .....इसी मावको लेकर वाणकविने लिखा है कि : "गर्भश्वरत्वमाभिनवयौनवत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वं चेति महतीयमनर्थपरम्परा, सर्वतः नामेकैकमप्येषायतनम्, किमुत समवायः . . . . (कादम्बरी) ....काव्यप्रेमियो ! यदि फिर भी निष्पक्षपात दृष्टि इन गोपर डालेंगे तो अवश्य स्फुट रीतिसे मालूम हो जायगा कि कादम्बरीकी रचना गद्यचिन्तामणिसे मिलती है, और संभव है कि इन्होंने कुछ वंश लेकर वर्णन किया हो, और यह भी बात है कि इनका ऐसा करने पर भी वादीमसिंहकी रचना और पदलालित्य, सौन्दर्य से कहीं अधिक न्यून है। अर हम. कादम्बरीकी विशेष आलोचना, मिलान करके एक बातका संवर्श और करा देना उचित समझते हैं, वह यह है कि इसमें अर्थशाठिन्य, शब्दकाठिन्य कहीं २ इतना है कि प्रकृतं कथाभाग भी स्मरण रखना मुश्किल पड़ जाता है, और सरलता · मी इतनी है कि हितोपदेशादिकी तरह गद्य कह डालते हैं-अर्थकाठिन्यका एक उदाहरण देते हैं कि " कुमुदिन्यपि दिनकरकरानुरागिणी भवति" इत्यादि- . . . .अर्थात्- कुमुदिनी चन्द्रमाकी किरणों से अनुरागिणी होती है, ये यहाँपुर भर्य, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, परन्तु दिनकर शब्दसे सूर्य प. भयं द्योतक होता है, चन्द्रमा नहीं, सो यहाँपर चन्द्रमा यह अर्थ लगाया है, और इस मर्यके लिये बड़ी खींचतान की है; अच्छा मान मी लिया नाय किसी तरह यह अर्थ तो यहां प्रसिद्ध नामका दोष आता है, जो कायके सारे महत्वको घटा देता है। खैर, इसे विद्वान् संकेतमात्र ही समझकर श्री.बाणविकी विद्वत्ताकी इयताका परिचय जान लेंगे। क्योंकि विद्वानोंको संकेतमात्र काफी होता है। यह मेरा ही मत नहीं है बल्कि इस विषयमें अच्छे २ मनुष्योंने हस्तक्षे किया है। जैसे प्रोफेसर '. वैवर घाणकविकी गधपर अपने विचार प्रकट करते हैं कि " Baba's' proge is an Indian Food when áll progress is revder. ed impossible by the under-growth, until the traveller cuts out a path for himself and where even then he has to. iedkon : witli malicious wild beasts in the shape of nokron'n mords afrighit hini,". अर्थात जैसे हिन्दुस्तान के नंगन में उन सवनवृक्षों के बीचमें पैदा हुई छोटी २ झाड़ियों के मारे रास्तागीरं गमन करने में असाध्य हो जाता है और किसी तरह मार्ग निराळ मी देता है तो दुष्ट भयंकर जन्तुओंसे पिंड छुड़ाना पड़ता है, उसी तरह बाणविक गधमें अपसिद्ध शब्दोंके मारे कथोपयोगी माग समझना मुश्किल पहनाता है, और यदि वह मेहनतसे अर्ष निकाल मी लेता है तो मप्रसिद्ध और कठिन शब्दकि समझनेके लिये प्रथक कष्ट उठाना पड़ता है । वास्तवमें यह नात अक्षरशः सत्य है । . अ श्री कालिदास कविक विषयमें इतना कहना ठीक होगा कि इनका समय सर्व सम्मत (६३.४ ) है। इनके जीवनचरित्रसे आधारवृद्ध परिचित ही हैं। यहांतक कि लाग्दिासको कविकलर कहते ही हैं, कोई १ तो ऐसा कहते हैं कि यदि कालिदास केवळ "मेघदुत नामक काइप एनीते तो मी इनका यश संसारमें चिरस्थायी रहता, लेकिन इन्होंने, अस्ति कचित पाविशेषः' इस वाक्यपरं ३ काव्य बनाडाले, मो आजको नात ही प्रसिद्ध हैं। जिनके नाम, रघुवंश, मेघदूत, कुमारसम्भव हैं । लेकिन नहीं कह सकते कि इन्होंने मी. . वैताही.काट लाट किया हो, किन्तु इसं वातसे अवश्य प्रतीत होता है कि सम्मवतया जहाँ तहां किया हो, क्योंकि राना मोनारानके स्वर्गारोहणकी बात सुनकर दुःखित कालिदासनीने ये कहा था कि...... अद्यधारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराज दिवं गते । अर्याह रामा मोजके स्वर्ग जानेपर, पृथ्वी निराधार, सरस्वती मालम्पनरहित, पण्डित खण्रित, ये सब बातें एक साथ होगई। ' '... .. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . भगवजिनसेनाचार्य कहते हैं... ............ .... "पुराणकविभिः क्षुण्णे कधामार्गेऽस्ति मे गतिः ॥ अर्थात-पूर्व कवियोंसे शुद्ध किये कंधा मार्ग में मेरी गति हो. नायगी । . श्रीजिनसेनाचार्य--- - के गंभीरः पुराणाधिक मदोध दुर्विधः। .. सोऽहं मेहोदधि दोश्यां तितीर्ष यामि हास्यताम् । अर्शत-गमीर पुराण समुद्र कहाँ, और गुप्त सरीखे दुर्बोध जन. कहीं, यह मैं नाहुओंसे बड़े भरी समुद्रको तेरनेकी इच्छा करने वाला हास्यताको प्राप्त होउंगा । ... श्री कालिदास-. .... ... .. क. सूर्यप्रभवोवंश क चाल्यविषया मतिः। तिती दुस्तरे मोहादुऽपेनास्नि लागरम् ॥.... अर्थात्-सूर्यवंश कहां, और अल्पविषयी बुद्धि कहाँ, लेकिन सूर्यवंशका वर्णन करना मानो मोहसे दुस्तर समुद्रकों टूटी नौकासे पार करना है। कालिदास कुमारसम्म नामक काव्यमें रचना करते हैं कि-:: असंभृत मण्डनमगायटेरेनासवाख्यं करणं मंदस्पः। - कामस्य पुष्पव्यरिक्तमत्र वाल्यात्परंसाथवयंप्रपैद् ॥ . महाकविहरिश्चन्द्र अपने धर्मशर्माम्युदयमें कल्पना करते हैं कि: असंभृतं मण्डनमङ्गन्यष्टे नष्टक मे यौवनरत्नमेतत् । इतीय वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि वन्भ्रमीति ॥ अर्थात्-अष्टयष्टिका विना प्रयत्न सिद्ध यौवनरूपी रत्न कहाँ नष्ट हो गया इसी लिये ही क्या ननं काय होकर वृद्ध मनुष्य देखता हुआ पृथ्वीपर घूपता है। ... भव यहां पर विचारनेकी बात है कि "असम्भृत मेंण्डनमङ्गयष्टे " इतना पुरा पद, कालिदासने कुमारसम्म में जोड़कर श्लोक तैयार किया है, तथापि, हरिश्चन्द्रकविकी रचना, सौन्दर्य, कलकार, संप्रेक्षामें कम ही हैं। . श्री मावकविको भी. सारा संसार जानता है, क्योंकि यह बात प्रसिद्ध ही है कि • "काव्येषु माघः कविकालिदास अर्थात काव्यों में माघ काव्य, और: कड़ियों में कालिदास : प्रसिद्ध हैं। आपको कालिदासके बारेमें पूर्ण परिचय मिल ही गया है, माघकविकी इस प्रसिद्धि के साथ २ यह भी बात है कि माघकविके श्लोक अग्निसाक्षात्कार : बनाकर लिखे. शये हैं, तथा जो दुपित हो लोक हो वे इस अग्नि में जल जावे रेंसी कविकी प्रतिज्ञा पी, पर हम नहीं कह सकते यह दात कहाँ तक सच है, क्योंकि इतने इलोक दृषित है कि . . .. . . . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) साधारण व्यावर जानने वाला जान सकता है । जैसे संमूर्च्छच्छ्रशंख निश्वनः स्वनुप्रयातेपरंहस्य शार्ङ्गिणि । सत्यानि निन्ये नितरां महात्त्यपि व्यथां दयेषामपिमेदिनीभृताम्|| ( शिशुपाल्चत्र ) - इस ain "ant" यह शब्द निर्लक्षण दोपसे दूषित है, इयेषाम् की द्वयानाम् होना चाहिये गर्योकि व्याकरण (लक्षण) शास्त्र में द्वयेषां न बनकर नाम रूप बनता है । *तः दुपान सुरक्षा है, और दयेषां निर्लक्षण है, और भी समझना चाहिये। जैसेतन मन तो घनास्यागमसंमदः मुदा" अर्थात् श्रीकृष्ण परमात्मा के हृदय में नारद ऋपिके आने की खुशी (हर्ष) समाई नहीं। जिनसेनाचार्य वसुन्धरा महादेवी पुत्र कल्याणसम्पदा । प्रमोद पूर्णाङ्गीन स्वांगे नन्वमात्तदा || अर्थात - वसुन्धरादेवी अपने पुत्र कपाणकी सम्पत्ति से उत्पन्न हुए आनन्दसे फूची नहीं समाई। यह बल्पना आचार्यनीकी है, इससे सिद्ध है जैन काव्योंमें ही महत्व है। इसके अनन्तर अलंकार और वधकी विशेषता बताते हैं यह चित्रहार है, इसका लक्षण, नत किपायें, द्वितिश्वादमें यमक, अताक बन अतीवर हो तथा सर्वतः पाठ समान हो। जैसे क- पारावाररवारापारा क्षमाक्षक्षमाक्षरा । : वामानासमनामावारक्ष ममक्षर || अर्थात है जिननाथ, समुद्रनिश वगीश ! हे सर्वज्ञ ! हे पापनाशक ! हे ! तुम्हारी मार है, अतः मुझको प्रपन्न करो, शोभित करो, रक्षा करो। यह लोक राय और शांत रससे मशहूगा है। श्री nisar सर्वतोप इस प्रकार है वि + 'सकारनानासारकास, कायसाददसायका 1 रवाहसार, नादवाददवादना || समूह इसका भी चित्र बनाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि सोत्साह नाना प्रकार से | शरी तथा गति और वाणोंके शन्दसे और वाह श्रेष्ठोंके नाद से बाकी नि हो रही है। इसमें कविने की विशेषता बतलाई है। परंच इसमें इतनी त्रुटि है कि इसमें कोंकी विशेषता है। रस मी साधारण है। . पुज्यवार जिनसेनाचार्य ने भले हारचिन्राणणिमें बहुत ही अच्छी तरह स्तशये जैसे, देखिये - .. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) छन बंध। शीतलं विदिता शीतीभूतं स्तुमोऽनघम् । सुविदा परमानन्द सूदितानङ्ग दुर्मदम् ॥ अर्थात् सर्व पदार्थज्ञ, शीतीभूत, पाप रहित, विद्वानोंको भानन्ददायि कामदेवको नष्ट * करनेवाले शीतलनाथ भगवानको नमस्कार करते हैं। हारवन्ध। चन्द्रातपंच सततप्रभपूतलाभम् । भद्रं दया सुखद मंगल धाम जालम् ॥ वन्दामहे वरमनन्तजयान् याजम् । त्यां वीरदेव सुरसंचय शास शास्त्रम् । अर्थ, स्पष्ट है यहां पर वीर देवकी स्तुति सरस्वती कण्ठामरण भादिमें नहीं पाय जाता है। सर्पबन्ध "पल्लएकमहिता" । अर्थात् पल्लव पता किसको प्राप्त हुआ; अथवा नार पुरुषोंसे पूजित की गई। इत्यादि नाना प्रकारके बन्ध होते हैं मुरन, गोमूत्रिका, अष्टदल, घोड़इदकपद्म आदि समझना चाहिये, हमारे कहनेका तात्पर्य यह है कि ये सब नेनेवर प्रसिद्धः सरस्वती जण्ठामरणादिमें नहीं पाये जाते हैं। यह संक्षेपसे बता दिया गया है, मगर अन्य काव्यों में हो मी तो इसके जैसे पदलालित्य आदिमें कम हैं। पाठक ! लेख बह जानेके पयसे यह विषय छोड़ कर इसी काव्यका अङ्क समस्यापत्ति है, इस समस्याकी समस्यापूर्ति ति कवि. योंने भच्छी की है तो हम कहेंगे, कि श्री भगजिनसेनानायकी हुई समस्यापूर्तिका जान्न प्रमाण एक पाम्युिदयका भवतरण है । इनके मुकाचिलेका कोई भी कवि इनके सम्प्रदायमें नहीं हुआ है। यह कवित्व शक्तिकी महिमा है कि शृंगारमय काव्यको शान्तरप्तमय, करदेना। श्री कविवर कालिदास और कविसिंह श्रीवादीमसिंह " क्षत्रचूड़ामणि" नामक काव्यको प्रायः सभी जानते हैं। भतः शन दें कि यह क्या है : कालिदास "प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः॥ रात्रिंदिव विभागपु यदादिष्टं महीक्षिताम् । तस्तिषवे नियोगेन सविकल्प पराङ्मुखः॥ सवेला वप्रवलयां परिखीकृत सागराम् । अनन्यशासनामुवी शशासैकमहीमिव ॥. (श) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादीपसिंह- .. .....: -सुखदुःखे प्रजाधीने तदाभूतां मजापते। . . . . . प्रजानां जन्मवज्यं हि सर्वत्र पितरो नृपाः॥.. .. २-रात्रिंदिवविभागेषु नियतो नियति व्यधात् । कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ॥ ३-प्रयुद्धेऽस्मिन् भुवं कृत्स्ना रक्षत्थेकपुरीमिय। . . ... राजन्वती भूरासीदन्वर्थ रत्नसूरपि ॥ - (क्षेत्रचूड़ामणि) ... महानुभाव ..इन श्लोकोंका अर्थ क्रमशः नीचे लिखे प्रमाण समझे। ..... ...-प्रमाधीशकी प्रनाआधीन होने सुख दुःख प्रजापतिको होते हैं। क्योंकि राजा जन्मको छोड़कर माता पिता होते हैं। .: -नानाने रात दिनका टाइमटेविच (समय विभाग) बना लिया, क्योंकि काल व्यर्थ. - चले जानेसे कंतव्य नष्ट होनाता है। . -रानाके प्रबोषित होने पर रामा समग्र पृथ्वीको एक नगरीकी तरह रक्षा करता . है। और रत्नसु पृथ्वी रानसहित यथार्थ नामवाली होगई। . भाप उक्त छोंकोसे मिलान कर सकते हैं कि पादीमसिंह कृत क्षत्रचुडामणिके श्लोकों में कितनी सरलता है, और प्रत्येक श्लोकमें नीति वाक्यामृत मर दिया है । " कि कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति " ठीक उर्दू शायरका कथन है कि “ गया वक्त : हाथ माता नहीं, सदा दौर दौरे लगाता नहीं " इत्यादि नीतिके उपदेशके साथ तत् तत् • स्टोर शांत रतका-वैराग्यका खून ही वर्णन किया है, धर्मशास्त्र का उपदेश दिया है। तथा पदलालित्य, समुचित पद, हृदयग्राही टांत, हृदय-रोचकता, अनेक लोकोक्ति, ::मितोक्ति श्रादि गुणोंसे मिश्रित यह अद्वितीय काव्य है इसका प्रचार खून करना चाहिये। :: इसके अतिरिक्त हमें इसका गौरव, होना चाहिये कि हमारे यहां ऐसे १ महाकाव्य र हैं, जिनके सहश अभी कहीं नहीं पाये जाते, और जिनके श्लोकों को ही देखकर अच्छे । पण्डित दांतों तले अंगुली दबाते हैं। जैसे:: "क ख गो घ ङ च च्छौ जो शादड दा तु। . था दुधान्य पफया भामा थारा ल व श ष स"॥ : - इसका अर्थ अच्छे २ विद्वानोंने नहीं करपाया, इसका सादृश्य हमें कहीं मिलता ही नहीं, और नहीं मी होगा। बत्तीस व्यंजनों का क्रमशः छोक बनाना किसीकी शक्ति होगी। इसमें विद्वान् अनुमान ही लगाले । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चित्राला के इलोक दें देना ठीक है । जैसे---... "ककाकुकङ्ककेकाकेकिकोकैककुः कः। - अकुकौका काककाकडकाळकुकका कक्कु । ........... ... ता य मात्र-यहां पर कवि समुद्रको स्वाभाविक वर्णन करते हैं कि-जत्रा, मयूर, चावाक, तथा जलके कांकों का रक्षक, और विष्णु का निवास स्थानभूत समुद्र हैं। तितोसितातु तेऽतीता तेतृतोती तितोलत : .. . .ततोऽतांति ततौ लौते तत ताते ततो ततः ॥.. भाव मात्र-विशिष्ट पूनाके योग्य ! यकीयं ज्ञानवृद्धि हेत, ज्ञानावरणादिकों के नाशक ! अपरिग्रहसे महान् ! ज्ञानवृद्धि प्राप्त ! हे त्रैलोक्येश्वर तुम्हारा जाने विस्तीर्ण है। इस प्रकार चित्रके एकाक्षरी, दो अक्षरी मेद होते हैं। ....... . अब मैं आप लोगोंका समय ज्यादा न लेकर नैषधीय चरित्र, और धर्मशांम्युम से मिलान काके लेख समाप्त करूंगा ! ...... धर्मशर्माभ्युदय महाकायके कर्ता श्री हरिश्चन्द कवि है। वाण कविने स्वरचित .हर्ष चरितमें इनको. प्रारम्पमें स्मरण किया किया हैं। .. ... .. पदन्धोज्ज्वलोहारी तवक्रमस्थिति। - महारहरिचन्द्रस्य गद्यवन्यो नृपायो । इस प्रकार निष्पक्षपाती अझैन कवियों ने भी इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशश की है. इनकी अनोखी सुझ, कल्पना चातुर्य बहुत गंभीर है, पदलोलिय और अर्थगौरव कुट कर भर दिया है । यथा-राजा महासेनकी विद्या प्रशंसाको कति वर्णन करते हैं। "तत भुताम्मोनिधिपारदृश्वनः विशङ्कमानेवपराभवं तदा। ..विशेष पाठाय विधृत्य पुस्तक करान, सुंश्चत्यंधुनापि भारती । ...अर्थात-शास्त्र समुदके परगामी रानासे परामवकी शंका करती हुई . भारती-वाणी) विशेषपाठ, याद करने के लिये अा मी पुस्तकको नहीं छोड़ती है। · माव-मारतीके हस्तमें पुस्तक है, इसीपर कविने उत्प्रेक्षा की है कि : राना विद्या पारंगत है, अतः मुझे शास्त्रार्गे : महरादे इसलिये पुस्तक धारण की हैं। '. अथवा, रान चौदह विद्याभोंमें अत्यन्त निपुण है, इससे कविने यह भी द्योतन किया है। श्रीहर्ष कविये कवि श्रीहरि पण्डितले सुत्रं है, और इनकी मातांका नाम मामलोती है। E Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अभी (इस समय) इनका कोई समय निश्चित नहीं हुआ है। परन्तु स्रष्ट सं०११७४से कुछ पहिले इस कायका निर्माण हुआ है, क्योंकि इससे जाना जाता है कि बनारसमें , : ५.५० खष्ट सं० में राना गोविंदचन्द्र राज्य करते थे पश्चात विजयचंद्र तत्पश्चात् जयन्तचंद्र. राजा हुये; और इनकी समामें इन्होंने प्रतिष्ठा पाई है । तथा इनकी प्रेरणासे हर्ष कविने यह नैषधीय चरित्र बनाया है। अब जयन्तचंद्रके कालसे इनका. मी वही काळ कुछ भागे पीछे हों। ___ हर्षकवि रामा नलकी विद्या बुद्धि वर्णन करते हैं___ " अधीति बोधाचरणप्रचारण; दशश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः। - चतुर्दशत्वं कृतवान्कुतः स्वयं न वेझि विद्यासु चतुर्दशत्तम् ॥ . अर्थात-राजा नइने १५ विद्याओं में अध्ययन, अर्थज्ञान, अनुष्ठ'न, अध्यापन : . इस प्रकार चार भास्था करते हुये चतुर्दशत्व प्राप्त किप्त तरह किया यह मैं नहीं . नानता, यह को सामान्वार्थ है । हम यहां पूछते हैं १४ विद्याओं में चतुर्थशस्त्र क्या प्राप्त किया विद्या. तो १४ होती ही हैं, उससे क्या अथषा, यह कविका पिष्टपेषण है। और यदि चतस्त्राबल्यात्वेन सिद्ध करोगे तो भी ठीक नहीं क्योंकि चतुर्दशव का वह स्वयं ज्ञाता के दूसरी बात ये है कि क्षत्रियोंको अध्यायनका अधिकार नहीं है यह मामृति वचन है, लेकिन क्षत्रिय राना नल अध्यापन करता यह बात शास्त्र विरुद्ध है। अच्छा और पदलालित्य, उत्प्रेक्षा आदि सजन जान सकते हैं कि किसमें विशेषता है। कवि हरिश्चन्द्र- . " कृतौ न चेत्तेन विरश्चिना सुधानिधानकुममा सुदृशः पयोधरौ।' .. तदङ्गालग्नोऽपि तदा निगद्यतां स्मरः परासुः कथमाशु जीवितः॥ अर्थात-ब्रह्माने सुनयनीके स्तनों को अमृत रखनेके वो घड़े बनाये हैं, यदि न बनाये होते तो उसके मन में लगा हुआ मृतकामदेव किस तरह नीवित होता, यह पतलाश्ये । तात्पर्य यह है कि महादेवने कामदेवको भस्म कर दिया था, अतः मर गया और मरा हुमा अमृतसे जीवित हो जाता है, वही उत्प्रेक्षा की है कि रानीके स्तन अमृन फाश, हैं, और उससे कामदेव जीवित हो गया है। . श्री हर्प- . . . . अपि तदपुषि प्रसर्पतो मिते कान्तिझरैरगाधताम् । स्मरयौवनयो। खलु यो प्लवकुम्भौ भवतः कुचावुभौ ॥ .::.. ....... अर्थात्-रानी दमयंतीके कुच (स्तन) कांतिझरसे भगाधको प्राप्त दययंती के शरीरमें ... स्मर और यौवनके तैरनेके लिये दो घड़े हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. महानुमाव ! विचारें कि कैसी भद्दी कल्पना है कि तैरनेके घड़े, और कविने अमृतकलशकी उपमादी है / तथा मृतको अमृत रस देकर सदा जीवित ही कर दिया है। . कवि हरिश्चन्द्र"कपालहेतोः खलु लोलचक्षषो विधिः व्यधात पूर्णसुधाकर विधा। विलोकतामस्थ तथा हि लांच्छनच्छलेन पश्चात् कृतसीवनवणम् // . . . . . ..... (धर्मशर्मा०): ... अर्थात्-ब्रह्माने राज्ञीके कपोलमंडल बनाने के लिये पूर्ण चंद्रमाके दो टुकड़े कर, दिये, यदि नहीं तो देखिये, कि करके ज्यानसे टुकड़े कर पीछे सीवनका व्रण ही मालम होता है, चंद्रकलङ्कपर उत्प्रेक्षा की है। .. .. :. ... .. हृतसारंभिवेन्दुमण्डलं दमयन्ती वदनामवेधमा / .. कृतमध्यविलं विलोक्यते धृत गम्भीर खती खनीलियः॥ (नैषघ) . . . अर्थात् ब्रह्माने दमयन्तीका मुख बनानेके लिये हृतसारकी तरह चंद्रमा, गहरे गड्ढे व आकाशकी नीलिमासे युक्त अथवा मध्यमें किये विलकी तरह दिखाई देता है। अर्थात-दमयंतीका मुख स्वच्छ है। .. कवि हरिश्चन्द्र-ॐ शब्दकी कल्पना"इमामनालोचनगांचरां विधिविधाय सृष्टेः कलशार्पणोत्सुका। लिलेख वके तिलाङ्कमध्ययो वोमिषादोमिति मंगलाक्षरम् // धर्मशर्मा) . अर्थात-सृष्टिंकी रचना के बाद कलश अर्पण करने में उत्सुक ब्रह्माने अदृष्टिगोचर राज्ञीको बनाकर रानीके मुख गत तिलक चिहके मध्यमें भुकुटीके वहानेॐ ॐ यह मङ्गलाक्षरः लिख दिया ! अर्थात् भृकुटीको आकार प्रायः ॐ सरीखा होता है। प्रकान्तरसे उदीरिते श्रीरतिकीर्तिकान्तिभिः श्रयाम एतानिति मौनवान्विधिः / लिलेख तस्यां तिलकामध्ययोः भ्रुवोर्मिषादिति संगतोत्तरम् // अर्थात लक्ष्मी, रति, कीर्ति काति, आदि गुणोंने ब्रह्माके पास जाकर भर्ती (Application )की, इसको पुनकर मौनी ब्रह्माने तिलकाकः मध्यमें भृकुटीके बहानेसे ॐ यह संगतोन्तर लिख दिया। अर्थात् ॐ स्वीकारार्थक है / पाठकः / इत्यादि उपयुक्त. दृष्टांतोंसे नान सकते हैं कि, पदलालित्य, ओज, सौन्दर्य जैन काव्योंमें विशेष है / इस. शोककी कराना विचिन्न है। ऐसी कल्पना मच्छे 2" कवियों में नहीं की हैये '.. 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