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________________ इलोकवद्ध शब्दोंसे की है। वास्तवमें: हस्तिमल्लिके विक्रान्तकौरवनाटककी नाटयकलामें नैपुण्यको देखकर हृदय उनकी तरफ भक्तियुक्त हो जाता है। : प्रियपाठकवृंद ! अब हम इस दृश्यभाग. नाटकादिकी उत्तमताको सिद्धकर सिंह साध्यताको न बताकर आगे श्रव्यके ऊपर आप लोगोंके चित्तको माइर्पित करते हैं। श्रव्य काव्योंमें द्विसंधानादि जैन महाकाव्योंमें काव्यके अष्टादश वर्णनीयका अनुपम, अद्वितीय निवेश करते हुए काव्य पढ़ने का अत्युल्कष्ट उत्तम-फल सुखधाम (शांतिनिके तन मोक्ष)की प्राप्तिके लिये प्रातःस्मीय एवं च नगदबन्दनीय केवली भगवानके उपदेशकों सन्निवेश करते हुए जो अद्वितीय महत्व अटकते हुए जगतकों बतलाया है. इसको कहकर हम यहाँपर पिष्टपेशण नहीं करना चाहते, अतः हम आगे बढ़ते हैं ।.... प्रियपाठकवृन्द! ज्यों ही हम आगे बढ़नेको लेखनी चलाते हैं, लेखनी इकाईक रुड़ होजाती है, क्योंकि लेखनी संचालक हस्त; अपने मन-नरेशकी आज्ञा ( जैन महाकाव्य सागरोंमें ही यशस्तिलकचम्पू स्वयम्भूरमण समुद्र नहीं है बल्कि समस्त सांसारिक काव्योंमें यह स्वयंभूरमणः समुद्र हैं ) के खिलाफ जरा भी नहीं बढ़ना चाहते हैं। अत: मान्यवर पाठकवृंद इस प्राकृतिक नियमसे बद्ध. हम जैन काव्यके अंश. चम्पू की समालोचना बतलाते हैं। " चम्पू की समालोचनाके लिये लेखनी उठनेपर " यशस्ति लकचम्पू" का नाम स्मरण आते ही हमारे आनंदरोमांच खड़े होजाते हैं। क्योंकि हम एक एकसे उत्तम काव्यनिकुनमें इस सम्य प्रवेश करते हैं जो कि चम्पूनिॉनमें ही प्रधान नहीं है. वरिक्त जगतके काव्य निकुंजमें कोई दूसरा काव्य-निॉन इसकी सानीकाःनहीं है । प्रियपाठकवृन्द ! यह हमारी अतिशयोक्ति नहीं है। यह बात काव्य रसास्वादी : निरपेक्ष विद्वानों ने ही मानी है। इस प्रधान काव्यका हृद्य गद्यपद्य देखनेसे दूसरा ग्रंथ देखनेकी इच्छा ही नहीं होती। उसीमें ही गद्यकाव्य, पद्यकाव्यका आस्वाद उत्तम विस्तृत रीतिसें पाया जाता है । इसमें काव्य वर्णनीयका कोई भी वर्णन ऐसा नहीं है, जो अत्यंत उद्धट रीतिसे वर्णन नहीं किया गया हो। इसकी गद्य इतनी उत्तम है, कि कादम्बरी लजितके साथ साथ बिलकुल तुच्छ मालूम पड़ती है इसकी गद्यको लिखते हुए कविने ...एक ही मार्गका आश्रय नहीं लिया है, किंतु वर्णनीयके अनुरोधसें, कहीं २ समास बहुल गौणीरीतिका सहारा लिया है। माननीय समालोचकवृंद ! " दृष्टान्तेन स्फुटायते: मतिः " इस आर्षसिद्धांतानुसार एक दृष्टांत देनेपर यह बात बिलकुल स्फुट हो जायगी । मेरे बहुत खोजनेपर " यशस्तिलकचम्पू में से. यह हृद्य गद्य आप लोगोंकी भेट करता हूँ। " यत्रोद्याने क्रीडासु सुन्दरी जनैनसह कामिनः रमन्ते इसवाक्यमें नो उद्यान शब्द है उसका कविने कैसा अभूतपूर्व अद्वितीय : मनोहर वर्णन किया है। .. ." : . .. '.. : :...:.' . ... . . "
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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