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..(४४:) सुखपूर्वक विलोडन किया करते हैं। जिससे आमाकी कालिमा, अपवित्रता, भरोचकना, अपमान, कुध्यान, घमसान, भज्ञान पलायमान होनाते हैं, और इसके अनन्तर दणकी तरह जाज्वल्यमान, ज्ञानभानु प्रकाशित होनाता है, पश्चात अनन्तमुख, वीर्य दर्शनादि गुण प्रकट होते हैं । तथा आत्मा कर्म समूहोको नष्ट कर मोक्ष पदवीको प्राप्त कर लेता है, खास यही बात जैन काव्यों में बड़े महत्वकी बताई है। .....
भन इसके बाद अलंकारोंके नियममें कुछ बता देना उचित समझता हूं... क्योंकि दोपोंसे रहित होनेपर भी तथा गुणोंसे संयुक्त होने पर मी विना अलंकारों से वाणी शोभाको प्राप्त नहीं होती है जिस तरह स्त्री विना आभूपोंसे नहीं : शोभित होती है । अतएव अलंकारोंका होना वैसे ही मावश्यक है, वे अलंकार उपमा, उत्प्रेक्षा, रूप, दीपक, भादिः भेद प्रभेदोंसे नाना तरहके होते हैं। लेकिन मुख्य भेर दो ही हैं, शब्दालंकार, अर्यालंकार उपर्युक्त तो अर्थालंकारमें परिगणन किये हैं और शब्दालंकारके छः भेद हैं-यया-चित्र, इलेष, अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, तथा पुनरुतवदामाप्त, ये छ होते हैं । यमकादि प्रायः सर्व तोभद्रादिवन्धोंमें प्रायः लोकवद्ध होते हैं। .... .
काव्योंकी रचना भी रीतिके अनुपार प्रीतिदायक होती है, इसलिये ग हीय, वैदर्भाग आदि देशाालके अनुसार करना चाहिये । ___ रसों के बारेमें इतना ही कहना होगा कि नैनेतर काव्यप्रकाशादि अन्योंमें केव३ आठ रसोंका विवेचन किया है, वह इस प्रकार है कि- शृंगारवीरकरुगाद्भुतहास्यमयानकाः " • इत्यादि पश्चात् लिखते हैं कि "शान्तोऽपि नवमो रसः " अर्थात् शन्त नामका भी एक रस है, इसमें अजैन कवियोंकी निक्ष बुद्धि है; अतः निस बुद्धिसे ही यह वाक्य है। लेकिन मैन कवीश्वोंने इसको सूत्र अपनाया है। यहां तक कि इनके प्रत्येक काव्योंकि
आदिमें, मध्यमें, अन्तमें, खून ही वर्णन किया है, और बास्तवमें चाहिये मी यही क्योंकि इसीसे आत्माका कल्याण होता है। श्री वाग्भटकवि अपने वाग्भट्टालंकार में लिखते हैं कि
साधुपाकेप्यनास्वाचं भोज्यं निलवणं यथा ।
तथैव नीरसं काव्यमिति ब्रूमो रेसान्निह ॥ . . अर्थात-निप्त तरह मोननका अच्छी तरह पाक होने पर भी विना सैन्धव (नमक) के
अच्छा नहीं लगता है, उसी हरह नीरस काव्य मी अच्छा और श्रय नहीं होता है। अतः यहाँ मी रस कहते हैं
शृंगारवीरकरुणाद्भुतहास्थभयानका। रौद्रवीभत्सशान्ताच नवैते निश्चिता युधैः ॥
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