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जैन काव्योंका महत्व ।
( जैन साहित्य सभा लखनऊका लेख नं० ४ ) ருக்ககக்கதைக்கருக்கத்தக்கது ( लेखक - पं० बनवारीलालजी स्याद्वादी - मोरेनां । ) 'वन्दारुवृन्दपरिघटविलोलिताक्ष वृन्दारकेश्वरकिरीटतटावकीणैः । मन्दारपुष्पनिकरैर्विहितोपकारं चन्दामहे जिनपतेः पदपद्मयुग्मं ॥ 'मुकुरविमलगण्डं चन्द्रसंकाशतुंडं गजकर भुजदण्डं कामदाहात्रिकुण्डं । विनुतमुनिपपण्डं गोमटेशप्रचण्डं गुणनिचहकरण्डं नौमि नाभेपपिण्डं |
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श्री स्याद्वादविद्यापतये नमोऽस्तु ।
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आध्यात्मिकजननी, अहिंसाधर्मप्राणा, साहित्यसुन्दरी, परोपकारशीला, विज्ञाननयना भारतवर्षीयार्यजातिके पूर्वेतिहास पर दृष्टि दृष्टि करनेपर यह जाति चारित्रोन्नता, अक्षयज्ञानरत्नोंकी प्रसवित्री सुष्टुतया प्रतीत होती है, किन्तु निरपेक्ष हम यह भी कहेंगे, · कि तत्सामयिक कुछ विपयलम्पटियों एवं च स्वधर्मोन्मत्तगणोंने प्रज्वलित- द्वेषाग्निसे द कर इस व्यार्यजातिके सर्वोत्तम पूर्वेतिहासको कलंक -- कालिमामय बना दिया है । इस प्रज्व लित विशेषामि हीके कारण गगनस्पर्शी उत्तंगशृङ्गसमन्धित हिमधवल पर्वतमाला, एवं मीतिजनक नीलवर्णसलिलरशिपूर्ण समुद्रमरीखे प्राकृतिक आत्मरक्षकों के उपस्थित रहने पर भी . सुसभ्य ज्ञानालोकसे प्रकाशित अत्यंत वलिष्ट धार्मिकवसुन्धरा भारत पर विवर्मी और - विजातीय नीच वैदेशिकदस्युदलके पुनः पुनः आक्रमणोंसे भारतवर्ष विध्वस्त विपर्यस्त और परपदानत होकर अपनी अतुलधनराशि विद्या, प्राचीन सभ्यतासम्पत्ति, ऐश्वर्य, आत्मगौरवको पश्चिमीय सागर में समाधिस्थ कर आज मुट्ठीभर पश्चिमीय जनों की तंत्रता (परतंत्र-: ता) के चुंगल में फँसा हुआ अपने जीवनमरणके प्रश्न हल करवाने की अवस्था में उपस्थित ह गया है । प्रिय पाठकवृंद ! यहांपर ही मेरे अनुप्रपात होकर समाप्त नहीं हो जाते। किंतु
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इस विद्वेपानि तथा च स्वधर्मोन्मत्तता ही के सबसे श्री अहिंसाकांतायुक्त,. मान्यक्षमामाणिक्य, मार्दवचन्द्र, आजीवाचार्य, शौच्यतीर्थभूमि, सत्यरत्नविभूषित, संयम: 'परिखावेष्टित, तपोभूमि, त्यागमननि, आकिंचन्य मूलसे शोभायमान, विश्वप्रेमचन्द्र की ज्योत्स्ना"का प्रकाशक, ऐसे जैनधर्मका सार्वभौमिक प्रसार न चढ़नेके हेतु, विपक्षियोंने जैनधर्मके प्रचा कोको निःसीम कष्ट प्रदानके साथ साथ सहस्रों जिनमन्दिरों को छिन्न विछिन्न, नैनस हि