________________
(६१) है यह कहे विना; हम निबंध पूरा नहीं कर सकते । एक साइसके विद्वान्ने एक मनुष्यको निलकुल निराधार खड़ा कर दिया था। और उसे हमने स्वयम् देखा है। बुद्धिसे सोचा जावे तो यह जीव अनीव ही की करामात है कहनेका अभिप्राय यह कि इतना बड़ा लोक जीव अनोव ही की विलक्षण विद्युतसे जिसे मायाकरषण कह सक्ते हैं अपर खड़ा है। परमार्थ दृष्टिसे सब द्रव्यों के आधार स्वरूप भाकाशके आधारपर लोक है और आकाश अपने परमधर्म आधारके आधार है। ... लह द्रव्यों के संबंधमें नीचे लिखा छेद स्मरण योग्य है।
सवैया मात्रिक"जीव धरम अधरम नभ पुगदल, काल सहित षट् द्रव्य प्रमान ।' चेतन एक अचेतन पाचों, रहैं सदा गुण पर्जयवान ॥ केवल पुगदल रूपवान है, पाचौं शेष अरूपी जान । '
काल द्रव्य विन पंच द्रव्यको, अस्तिकाय कहते युधिवान ॥ १॥ : ::, . उपसंहारमें हमें यह कहना है कि निबंधमें कई जगह मतान्तर वादीको लक्ष्य बनाकर संबोधन किया है तो किसीकी निन्दा वा विरोधकी इच्छासे नहीं किया है । अब ऐसा कीनिये कि एक घड़ी भरको आपही वादी बन जाइये और कहिये लोककी सिद्धिके वास्ते जीव द्रव्यको आवश्यक्ता नहीं है और न उसका अस्तित्व सिंह है। तो मैं कहता हूं कि माप कौन हैं ! ....: अम आप कहिये-हम पुदिल हैं शरीर हैं । शरीरमें शराब कैसा नशा कुछ काल रहने से लोग सीब नीव चिल्लाने लगे हैं। . . . मैं कहता हूं-कि शराबका नशा भी जीव ही को होता है । नहीं तो शराबंकी बोतलें भी उछलती कूदती फिरती इससे जीवका मस्तित्व सिद्ध है। " ... अब आप कहिये--कि पुद्गल नहीं हैं। . ........
तो मैं कहता हूं कि यह रंग बिरंगे पदार्थ देखते हैं सो क्या हैं ? अब आप कहिये-संसारमें आकाश नहीं है। : : तो मैं कहता हूं-जीव. पुगदल आदि कहां रहते हैं ? .... आप कहिये-हमं कालकी कुछ आवश्यक्ता नहीं समझते ।
....'