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स्वर्गीय स्याद्वाद वारिधि पुन्य पं० गोपालदासनी बरैयाने श्री जैनसिद्धांतदर्पणमें एक तक निकाला है कि गति स्थितिके हेतु जुदे जुदे दो पदार्थ माननेकी क्या
आवश्यक्ता है ? इसका समाधान भी उस प्रातः स्मरणीय विद्वान्ने किया है कि परस्पर विरोधी धर्म एक ही धर्मीमें नहीं हो सक्ते इस लिये जो पदार्थ चलानेवाला है वह ठहरानेवाला नहीं होसक्ता और जो ठहरानेवाला है वह चलानेवाला नहीं हो सका अतः दोनों पदार्थ प्रथक् प्रथक् सिद्ध हैं । और दोनोंकी ही आवश्यक्ता प्रतीत होती है।
अब आप लोगोंकी समझमें आया होगा कि धर्म अधर्म पदार्थ हैं अर्थात धर्मी हैं और गति स्थिति सहायकता दोनों के क्रमशः धर्म हैं। जिस प्रकार साइंसवालोंने लिखा है कि यदि माद्याकार्षण न होता तो सूर्य चन्द्र अपने मार्गपर न रहते न जाने कहां जाते, यदि परमाणु आकर्षण न होता तो सब चीजें धूलकी दशामें रहतीं। उसी प्रकार जैन ऋषियोंका कहना है कि यदि धर्म द्रव्य नहीं होता. वो जो पदार्थ जहां था वहां ही रहता कोई भी पदार्थ नहीं चलते न कोई मोक्ष नाता न कोई देशान्तर जाता । न चरखा चलता, न सुत कतता, न सभा होती, और न आप लोग अपने घरसे आ सक्ते ।
और यदि अधर्म द्रव्य न होता चलती हुई कोई भी वस्तु न ठहरती। गिरलीको दंडा मारनेसे वह चली ही जाती फिर न ठहरती । छतरी जो हवामें उड़ पड़ी थी उड़ती ही जाती । और सिद्ध आत्मा जो ऊपरको गमन किये थे चले ही जाते कभी भी विश्राम नहीं पाते । यहां तक कि इन दो द्रव्योंके विना लोक अलोकका भी भेद न होता ।
यह चित्र देखिये छहों द्रव्योंसे भरे हुए लोकका आकार है। छहों द्रव्य अपने अपने गुण पर्यायोंमें परणमते हैं कोई भी द्रव्य
अपने गुणस्वभाव नहीं छोड़ते और न अन्यके .. गुण स्वभाव ग्रहण करते हैं। हां! जीव पुद्गल,
स्वभाव विभावरूप होते हैं । विभाव परणति
निबंधका विषय नहीं है होता तो हम उसका • कथन करते । पर इतना अवश्य कहेंगे कि एक
दुसरेके निमित्त नैमित्तक, होनेसे द्रव्योंकी परगति सिद्ध होती है । अतः लोकका वा द्रव्योंका कोई करता, हरता विधाता सिद्ध नहीं हो सक्ता इस लिये सभी द्रव्य स्वयम् सिद्ध हैं। द्रव्योंका 'समुदाय रूप, लोक, किसके जलसे अधर खड़ा ।
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