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________________ . .. . .. .... पदार्थ होना ही चाहिये । उसके विना द्रव्योंकी सिद्धि नहीं हो सक्ती । बस ! उसीका नाम आकाश हैं । जो सबको क्षेत्र देनेवाला है, सबका क्षेत्रिय है, सबका आधार है। सारांश ! आकाश और सबै पदार्थोंमें आधार आधेय सम्बन्ध है । जिस प्रकार जीवके एक प्रदेशमें भी अपनेको और अनंत पुद्गलों, जीवों, काल मादिको जाननेका सामर्थ्य है, कालके एक प्रदेशमें अपनेको और अनंत जीव 'पुद्गलों आदिको वर्तानेकी सामर्थ्य है। उसी प्रकार आकाशके प्रत्येक प्रदेशमें जो परमाणुके बराबर होता है. अपनेको अनंत जीबो, पुद्गलों और काल मादिको स्थान देनेका सामर्थ्य है । पं० प्रवर दौलत रामजी • साहबने कहा भी है "सकल द्रव्यको बास जाधुमें सो आकाश पिछानो" । ____ऊपर आसमानमें जो नीला सा हद्दे नजर दिखता है अथवा जो लाल पीले रंगः बदलते रहते हैं उसे बहुतसे लोग आकाश समझ जाते हैं । परन्तु रंग पद्गलों में होता है आकाशमें नहीं हो सका । आकाश अरूपी वस्तु है। . जब कि आकाश सबका क्षेत्रिय है तो नहां जहां जीवादि पदार्थ है नहीं वहां आकाशका अस्तित्व सिद्ध ही है । लोकमें तो आकाश हैं ही । परन्तु उससे आंगे, क्या है इस प्रश्नका उत्तर यही मिलेंगा कि उससे आगे आकाश है, फिर उससे मागे, आकाश फिर उससे आगे ? माकाश ! लोकसे आगे भी आकाश है तो वहां जीवादि पदार्थ-क्यों नहीं पहुंच जाते और लोकको. और भी विस्तृत क्यों नहीं कर लेते ? इसका समाधान . धर्म द्रव्यके कथनसे हो सकेगा। आकाशमें स्थान दान आदि गुण हैं और कालं द्रव्यके समान मरूपी पर्याय हैं: अतः माकाशको द्रव्य कहना चाहिये । यदि आकाश न होता, तो पदार्थ ही न रह सक्ते। इस लिये लोककी सिद्धिके हेतु आकाशका अस्तित्व मानना ही चाहिये। ५-६-पाठक ! जीव, प्रकृति, काल और आकाश तो संसारमें प्रायः प्रचलितः हैं । अब हम उन भरूपी सुक्ष्म वस्तुओंकी और आपकी दृष्टि डालना चाहते हैं जो जैन, शासन सिवाय अन्यत्र अप्रसिद्ध ही हैं। जिन्हें स्वामी दयानन्दजी जैसे प्रसिद्ध आर्य • विद्वान् न समझ सके और धर्म अधर्म द्रव्यको जीव प्रकृति आदि पदार्थोके धर्म अधर्म : ‘मर्थात स्वभाव विभाव समझ बैठे और पवित्र जैन धर्मका खंडन अपने सत्यार्थ प्रकाशमें - कर गये। . : यह देखिये झाड़से एक फलं गिरा और धरती पर ठहर गया। लड़केकी पतंग उड़ते उड़ते कुएमें पडगई । अभिप्राय यह कि जीव पुद्गलोंमें गमनं स्थिति क्रिया देखते हैं। इसका कारण सोचिये तो अतरंग कारण तो वे ही गमन स्थिर होनेवाले पदार्थ हैं... ..... . ..... ....... ... . ...... . .. .........' - " .. .
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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