________________ ::: ..::. - . : Dhok F... .... ." - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, मनका पर्श, रस, गन्ध, रूपवालें होनेसे पटल में अन्तर्भाव हो जाता है क्योंकि जो जो पशः रूप रस गन्धवाले होते हैं. वे पौगलिक होते हैं जैसे अख / .. __ . - वायु और मनमें रूप न माननाः मी न्याः संगत नहीं है क्योंकि वायुरूप युक्तः है. स्पर्शवाली होनेसे / इस अनुमानसे वायुको रूपताः सिद्ध. ही है। वायुका रूप देखने में - नहीं आता अतः उसे मानना मी नहीं चाहिये, : यह कहना भी न्याय मान्य नहीं है क्योंकि जो जो देखने में नहीं आये उन उनका अभाव, यदि आप ऐश करेंगे तो तुम्हारे देखने में परमाणु नहीं आमकता अहः उपका मी अमान कहना चाहिये। या तुम्हारे देख नेमें अपने बाबा परवाना आदि भी देखने में नहीं आते अनः के हैं ही नहीं ऐसा. ही.. कहना चाहिये। (शङ्काकार)-परमाणु परवावा आदि यद्यपि प्रत्यक्ष नहीं है तथापि कार्यो कारणका अनुमान होता है / इस न्यायसिद्धांतानुसार कार्य जो मकान आदि उनसे कारण : परमाणु आदिका और पिता हैं अतः पाबावाका हम ज्ञानकरलेंगे। लेकिन वायुके रूपका कोई कार्य नहीं नितसे कि कारण स्वरूप रू का ज्ञान किया जाय। (उत्तर)-।। मी ही कहा के बयोंकि इतकी रूपरस्त्र के साथव्याप्ति ऽ.सिद्ध है अजीजहां पर्शवत्व होगा रूपवत वहाँ अवश्य मानना पड़ेगा। मन दो प्रकारका होता है / इयमन और भावमन / यमन अष्टकमजद में रहता है और तदाकार जो आत्माके प्रदेश हैं उसे भावमन कहते हैं / चक्षु की तरह ज्ञान और उपयोगका कारण होनेसे मन भी सादिवाला है, मावमलका अन्तर्माई आत्मामें हो जाता है। ........... ......... ..(शंका) आपने जो ज्ञानोपयोगवत्व हेतुसे मुर्तिमत्वकी सिद्धि की सो ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानोपयोगवस्थ हेतुं शब्दमें भी रहनाता है जो कि विपक्ष है। यानी मूर्तिपत्व साध्यसे विरुद्ध है अतः अनेकान्तिक दोषसे दुष्ट हेतु होने के कारण साध्य सिद्धि नहीं कर सकता। . :.. .. : (उत्तर ) यह आपकी शंका सर्वथा आपहीसे मान्य हो सकती है क्योंकि शब्दयो पौद्लक होनेसे हम मूर्तिमान मानते ही हैं। '..: (शङ्काकार ) यदि शब्द पौन लक होता तो अन्य 9 पद्रके समान दिख 'लाई देता लेकिन जन शब्द दिखलाई ही नहीं देता तो मूर्तिमान से सिद्ध हो सका है। यह शो भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि वक्ताके मुखके निष्ट देशी मनुष्य प्रायासे और दुर देश स्थित पुरुष अनुमान कर पानी मुख पर सई आदि हुस्की वस्तू ...