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________________ ... . अर्थात-धूर्त ब्राह्मण गणने अपने जीवनोपायके लिए नाना क्रियाओंका कथन . किया है। यह उनका कथन है कि मनुष्यके मरने के बाद प्रेतकार्य करने पड़ते हैं, क्योंकि । विना प्रेतकार्य किये मनुष्य स्वर्ग सुख कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है. .... यो वेदस्य कतारों भण्डधूर्त निशाचरा .. ..जरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृताम् ॥ अर्थ:-वेदके तीन ही मुख्य कर्ता है-मण्ड, धूर्त, राक्षस, क्योंकि जरीतुमरी 'भादि वचन धूर्त, मण्ड, राक्षम पण्डितोंके वचन ही हैं। इस तरह जब जीवकी ही सिद्धि. . नहीं होती तो फिर अजीव किस तरह सिद्ध होगा, क्योंकि जो नीव नहीं उसे अनीव कहते हैं । अनीव जीवका प्रतिषेध रूप है, . प्रतिषेध हमेशह. विधि पूर्वक होता है । जब कि मुख्य नीव भनीव ये पदार्थ ही सिद्ध नहीं होते तो जीव पुद्गलकी गति स्थितिक सहायक धर्म, अधर्म द्रव्य, अवगाह देनेवाला आकाश, तथा इनको वर्तानवाला काल ये कैसे सिद्ध हो सकते हैं । और जीव अजीवके बन्ध निर्जरा मोक्षादि कैसे सिद्ध होंगे। इस तरह जीव, धर्म, अधर्म, आकाशादि किसीके सिद्ध न होनेसे चार्वा कमत सिद्ध हो गया और उसीका. सब लोगोंको आश्रय लेना चाहिये । सांख्य मतानुयायी जीवको . मान करके मी कटस्य नित्य मानते हैं । मीमांक. अनिश्चितकर मानते हैं, नैयायिक . जीवको जड़ रूप मानते हैं, और बुद्धानुयायी ज्ञान सन्तान रूप ही मानते हैं। इत्यादि . सिद्धांत माननेवाले परमार्थतः सत्य सिद्धांतसे बहुत दूर पड़े हुए हैं। .... '. प्रथम चार्वाक मतका खण्डन किया जाता है-पृथ्वी, अप, वायु, और अग्निसे यदि जीव बनता होता तो पृथ्वी आदिके गुण उसमें अवश्य पाये जाने चाहिए क्योंकि कारणके धर्म कार्यमें अवश्य आया करते हैं, यदि ऐसा न हो तो मिष्ट गुणके द्वारा बनी . हुई चीज़ कहुई मी लगनी चाहिये । और विपके द्वारा मनुष्यको नशा मी नहीं आना पाहिये इत्यादि तथा ऐसा होनेसे पदार्थ व्यवस्थाका व्याघात हो जायगा । अतः कार्य में कारणके धर्म अवश्य आना चाहिये। . . .... ... ... ... जबकि पृथ्वीका गन्धवत्व काठिन्य गुणात्मकत्व आदि गुणं, नलका द्रव्यत्वादि । वायुका ईरणादि, अग्निका दाहकत्वादि गुण चैतन्यमें पाये ही नहीं आते तो कमी भी यह बात मान्य नहीं हो सकती कि जीव चार भूतोंसे बना है। अन्यच्च जैसे कि कारण धर्म कार्यमें अवश्य रहने चाहिये उसी तरह कार्यके धर्म भी उसके कारण मैं अवश्य रहने चाहिये । नहीं तो यह कार्य इन्हीं कारणोंका है इसका निश्चय कैसे हो सकेगा.! . . ... . चैतन्यका 'बी आदिमें कोई धर्म मी नहीं पाया जाता। मनुष्यको जो ज्ञान होता 1
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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