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- नरक, स्वर्ग, मोक्ष मानना युक्तिरहित्य होनेसें. मूर्खता द्योतक है। क्योंकि प्रत्यक्षसे न नर्क ही दिखता है और न स्वर्गादि ही; फिर भाच्चयकी बात है कि इस अध- परंपरा पर लोगोंका क्यों विश्वास होता आ रहा है। उक्तश्च.... अन्न चत्वारि भूतानि भूमिवर्धिनलानिला। ...... चतुर्व्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते ॥ ..... भूमि, वारि (जल), अनल ( अग्निः.), अनिल (वायुः ) ये ४ ही पदार्थ हैं, इनसे ही जीवका निर्माण होता है।
किण्वादिभ्यः समेतभ्यो द्रव्येभ्यो मदः शक्तिवत् । . . . अहं स्थूला कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥ ___. “अर्थ:-जैसे किणु आदिक मदोत्पादक कारणों से मद शक्ति उत्पन्न होती है। उसी प्रकार चार भूतोसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है। देह और चैतन्य भेद मानना सर्वथा । मिथ्या है क्योंकि मनुष्य नो कुछ अधिक मोटा होता है, कहता है कि मैं मोटा है और इससे जो प्रतिपक्षी है यह अपने आपको कहता है कि मैं बहुत पतला है, यहां मैं२ इन: शब्दोंसे मोटा शरीर और पतला शरीर इसका ही ग्रहण होता है। देहके सिवाय किसी अन्यका ग्रहण नहीं होता जिससे अदृश्य जीवकी कल्पना की जाय। .... देह स्थौल्यादि योगाच स एक आत्मा न चापरः।
. . मम देहोऽयमित्युक्ति सम्भवे दौपचारिकी ॥ .. .अर्थ:- मेरा यह देह है, मेरा शरीर स्थूल या कृप है इत्यादि भेद प्रतिपादक
वचन उपचरित ही हैं क्योंकि देहको छोड़कर आत्मा कोई देही नहीं है। .. यावजीवं सुखं जीवेतू नास्ति मृत्योरगोचरः। .. भस्मीभूतस्य जीवस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ-जबतक कि जीवन है आनन्दसे : जीना चाहिये क्योंकि सब हीका नाश अवश्यमावी हैं और नाश होनेके बाद पुनः. जीव आता नहीं जिससे कि फिर मुख.. ... भोग सकें।
.... . ..... तथाः जीव स्वर्ग मोक्ष आदि आदि किसीकी मी सिद्धि नहीं होती.! पुनः जो ब्राह्मणादि जीवादिका उपदेश देते हैं वे अपने स्वार्थवश होकर ही देते हैं।
ततश्च जीवनोपाय ब्राह्मणैः विहितस्त्विह। मृतानी मतकार्याणि न त्वन्धद्विद्याले कंचित ..
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