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भुवनतापकमामिवोक्षितुं कलितकान्तंचलद्युतिदीपिका ।. ... दिशि दिशि प्रसलार कृषीवता सह मुदार सुदारघनावलिः ॥ : .:::.. ... .. . .. ( महा.. धर्मशर्माभ्युदय) : :
इस श्लोकमें. आकाशमें धनघटांका विचरण और विद्युत्का चमकना इस पर कवि उत्प्रेक्षा करते हैं । संसारको ताप देनेवाला..सूर्य कहां चला गया यह देखने के लिये मानों हस्तमें दीपंक लेकर यह धनावली ऊषकोंके आनन्दके साथ साथ दिशाओं में फैल रही है।
शरदकालके वर्णनमें भी इस फेविका वुद्धिपाटा देखिये-: ... ..... ":"हृदयहारिहरिमणिकिण्ठकाकलितशोणमणीव नभः श्रियः॥ -- ततिरुक्षि जनैः शुकपत्रिणां:श्रमवतामयतारितकौतुका"॥ .
... .... ... ... (महा. धर्मशर्माभ्युदय ) ., ... इस श्लोकमें शरदकालमें शुक्रावलीका वर्णन नभश्रीके गलेमें पद्मरागमणि जटित · इन्द्रनीलमणियोंका हारसाम्य देतेहुए क्या ही अच्छा पद्य गाया है । .:. तथा इसी कविका शिशिर वर्णनमें अनुपम श्लोक लीजिये
"स महिमादयतः शिशिरो व्धधादपहृतप्रमरकमलाः प्रजाः। " इति कृपालुरिंवाश्रितदक्षिणो दिनकरी न करोपचयं दधौ" ॥ .: . . . . . . (महा. धर्मशर्माभ्युदय ) :: ... इस श्लोकमें शिशिर वर्णनके साथ प्रजापीड़क नरेश अर्थात् प्रनाओंका रक्त चूमने
पर दूसरा दयालु कैसा स्वार्थ त्याग करता है इस बातको शिशिरकाल और सूर्यके छकसे कमला और दक्षिण कर शव्दको लिष्ट बनाते हुए कैसा विलक्षण विनिवेश किया है। . : - पुष्पावचयके वर्णन में एक शास्त्राभ्यासी: सच्चरित्र अभद्ससर्गसे अपने चरित्रसे च्युत होने पर दूसरा दर्शक कैसा आश्चर्यसे निप्रभ हो जाता है इस बातको श्लेषभंगीसे , वक्ष, और बन, फूलमें कैसा घटाया है ।... . .
" प्रमत्तकान्ताकरसंगमादभी सदागमाभ्यासरसोज्ज्वला अपि ।
क्षणान्निपेतुः सुमनोगणा यतो हियव पिच्छायम त्ततो.वनम् ॥" ... .. इसी तरह महाकाव्यका अष्टादश वर्णनीय हम कहां तक लिख ? मिस तरहसे हमने
श्रीयुत कविराज हरिश्चन्द्रनी के कुछ पद्य दृष्टांत रूपमें आपके सन्मुख पेश किये हैं उसी तरह यदि महाकाव्य चन्द्रप्रभचरितः पार्थो घुदय यशस्तिलकचम्पू आदिका एक एक अत्युत्कृष्ट पद्य उद्धृत करें तो एक बड़ा भारी अद्वितीय ग्रंथ हो जायेगा जो कि कविगणों के. लिये आश्चर्यवर्धक एवं चं नया ढंगका शिक्षक होगा। लेख बहनेकी वीभत्सक भयसे हम इस विषयको यहींपर छोड़कर आगे बढ़ेंगे और अन्य अन्य विषयोपर दृष्टिपात करते हैं।
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