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aur as वर्णनके उदाहरणमें बहुतसे जैन महाकाव्य उपस्थित हैं, इमें इसके • उदाहरण स्वरूप महाकवि श्री हरिश्चन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदयका दसवां सर्ग सम्पूर्ण देना चाहते हैं क्योंकि कविने ऐसी उत्तमताके साथ शैल वर्णन किया है कि. शायद ही किसी कविने ऐसा वर्णन अपने काव्य में किया हो लेकिन लेख बृहद न होनेकी चिंता हमको रोकती है, फिर हम इसका उदाहरण अवश्य देंगे ।
" पत्राम्बुजेषु भ्रमरावलीनामेणावली सत्तमरावलीना ! पपौ सरस्याशुनरं गतान्तं न वारि विस्फारितरङ्गतान्तरम् ॥ " ( महाः धर्मशर्माभ्युदय
इस पथ यमकालंकार के साथ २ स्वभावोक्तिका कैसा मणिकांचन योग हुआ है यह देखकर चित्त गद्गद होता है । तथा च
." दूरेण दावानलशङ्कया मृगास्त्यजन्ति शोणोपलसंचययुतीः । "होच्छच्छति निर्झराशपा लिहन्ति च प्रीतिजुषः क्षणं शिवाः ॥
( धर्मशर्माभ्युदय )
पर्वत तपस्या करनेका प्रधान स्थान है । इस बातको दिखाने के लिये मोक्षनगरका अत्यंत दुर्गमार्ग में जिनेन्द्ररूपी सार्थवाहको प्राप्त कर अगाडी पैर रखनेके लिये यह पर्वत प्रथम स्थान है । यह रुपक शांतरसको पिलाता हुआ कैसा आल्हादकारी है ।
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ऋतु वर्णनका भी जैन महाकाव्योंमें सर्वत्र वर्णन किया गया है । उसमें भी हरिश्चंद्र कविका चारुरीतियुक्त वर्णनके श्लोक प्रियपाठकोंकी भेंट अवश्य करेंगे " कतिपयैर्दर्शनैरिव कोरकैः कुरवकप्रभवैर्विहसन्मुखः । शिशुरिव स्खलितस्खलितं मधुः पदमदादमदालिनि कानने ॥
इस श्लोक में वसतका आगमन हास्य करते हुए शिशु के साथ उपमा देते हुए क्या ही अच्छा वर्णन किया है ।
इसी तरह इसी ग्रन्थ धर्मशर्माभ्युदय में ग्रीष्मवर्णनमें कुत्तोंकी जीभ निकलने में कवि 'राजने क्या ही अच्छी उत्प्रेक्षा की है ।
"इह शुना रसना वदनाद बाहिर्निरगमन्नवपल्लवचञ्चलाः । हृदि खरांशुकरप्रकरापिताः किमकशानुकृशानशिखाः शुचौ ॥ (भद्दा. धर्मशर्माभ्युदय)
• तथा वर्षावर्णनमें भी इसी कविका उत्तम श्लोक उद्धृत करते हैं ।